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फिल्म समझदारी और सलीके से झूठ बोलने का माध्यम है
फिल्म समझदारी और सलीके से झूठ बोलने का माध्यम है. जो अपने झूठ को जितने अधिक प्रभावशाली तरीके से बोलने में सक्षम और सफल होगा वही बेहतर फिल्मकार माना जाएगा. यह जिम्मेदारी डायरेक्टर पर आयद होती है इसीलिए कहा जाता है 'फिल्म इज़ अ डायरेक्टर्स मीडियम'. आज से 57 वर्ष पहले 06 फरवरी 1965 को रिलीज़ हुई गोल्डी द्वारा निर्देशित फिल्म 'गाइड' इसका सटीक उदाहरण है.
'लिव इन रिलेशनशिप' आज के दौर में सुना जाने वाला एक सामान्य सा शब्द है. ऐसा होना देश भर में एक सामान्य घटना की तरह लिया जाता है. क्या मेल क्या फीमेल कोई भी सार्वजनिक रूप से इसे सहज भाव से इसे आज सार्वजनिक स्वीकार लेता है. अब तो कोर्ट भी इसे मान्यता देने लगा है. रिलेशनशिप को आधार बनाकर विवाहित जोड़ों की तरह कुछ अधिकार भी महिला साथी को देने वाले फैसले सुनाए जाने लगे हैं.
लेकिन, 57 बरस पहले क्या 'लिव इन रिलेशन' को इतने सहज भाव से लिया जाता था, कतई नही., रियल लाईफ की तो बात ही छोडि़ए रील लाईफ में भी इसे दिखाने पर न सिर्फ नाक भौं सिकोड़े जाते थे, बल्कि इसे रोकने के हर संभव प्रयास किए जाते थे. गाइड इसी विषय पर बनी फिल्म है, सो उसका विरोध भी लाज़मी था, हुआ भी. फिल्म की विवाहित नायिका रोज़ी (वहीदा रहमान) बिना तलाक लिए अपने पति को छोड़कर गाइड राजू (देवानंद) के साथ 'लिव इन' में रहती है.
उस दौर में चूंकि यह घटना आम नहीं थी, इस अर्थ में झूठी यानि काल्पनिक थी. इस झूठ को निर्देशक विजय आनंद उर्फ गोल्डी ने न सिर्फ अपने क्रिएशन से दर्शक के गले उतारा, बल्कि खूबसूरती से उतारा. एक तबके के विरोध के बावजूद इस फिक्शन को परदे पर इतना स्वाभाविक और रियल बनाया कि फिल्म अंतत: दर्शकों द्वारा न सिर्फ स्वीकार की गई, बल्कि सुपर हिट भी साबित हुई.
बताते चलें जिस काल्पनिक कहानी का विरोध लोगों और सरकार (सेंसर) द्वारा किया गया. वह सुप्रसिद्ध लेखक आरके नारायण के अंग्रेजी उपन्यास 'द गाइड' पर बनाई गई थी. दिलचस्प यह है कि 1960 में आरके नारायण के इसी उपन्यास को देश के सबसे प्रतिष्ठित 'साहित्य अकादमी अवार्ड से सम्मानित किया गया था. पद्म विभूषण रासीपुरम कृष्णस्वामी अय्यर नारायणस्वामी (आरके नारायण) अंग्रेजी साहित्य के भारतीय लेखक थे. दूरदर्शन के गोल्डन इरा के दौर में प्रसारित धारावाहिक मालगुणी डेज़ उनकी ही रचना पर आधारित था.
'गाइड' की बात करने से पहले यह भी जान लें कि 'गाइड' बॉलीवुड की एकमात्र ऐसी फिल्म है जो हिंदी और अंग्रेजी दौनों भाषाओं में बनाई गई है. डब नहीं की गई अलग-अलग शूट की गई हैं. इंग्लिश (यूएस) वर्जन का निर्देशन टैड डेनियल्स्की ने किया था और इसे पर्ल एस. बक द्वारा लिखा गया था. यूएस वर्जन में देव, वहीदा सहित सभी प्रमुख कलाकारों ने ही अभिनय भी किया था.
शुरूआत में इंग्लिश और हिंदी वर्जन साथ-साथ शूट किए गए. कलाकार पहले हिंदी संवाद बोलते और फिर शाट को अंग्रेजी संवाद में शूट किया जाता. लेकिन यह प्रयोग असफल रहा और पहले यूएस वर्जन बना और रिलीज़ हुआ. जो बुरी तरह फ्लाप हुआ. लेखक आरके नारायरण इससे खासतौर पर खफा थे उन्होंने फिल्म की कड़ी आलोचना करते हुए इसे 'मिसगाईडेड गाइड' कहकर पुकारा. फिल्म इंडस्ट्री में ये अपनी तरह का संभवत: इकलौता प्रयास था.
अंग्रेजी वर्जन फ्लॉप हो चुका था, सो कोई और होता तो इस विषय पर हिंदी फिल्म का आउडिया ड्राप ही कर देता. लेकिन जिद्द तो देवानंद की पहचान रही है, हिंदी में गाईड बनने का उपक्रम जारी रहा. कहा जाता फिल्म पैसा और स्टार्स से बनती है लेकिन फिल्म सिर्फ इनसे नहीं बनती फिल्म 'ज़ुनून' से बनती है. देवानंद और गाईड की कहानी इसे सच साबित करती है. फिल्म का निर्माण देवानंद की प्रोडक्शन कंपनी नवकेतन फिल्म्स ने किया था.
'गाइड' की सफलता में उसके बोल्ड कथानक और बेहतरीन स्क्रीनप्ले का योग तो था ही, फिल्म का संगीत भी कम कमाल का नहीं था. इसके कालजयी गीत लोगों के दिलो दिमाग पर आज भी छाए हुए हैं. तीन घंटे तीन मिनिट की इस फिल्म में दस गीत थे. सभी एक से बढ़कर एक. 'पिया तोसे नैना लागे रे' में उस दौर का सबसे मंहगा सेट लगाया गया था. यह एक बेहद लंबा गीत था. गीतों पर निर्माता-निर्देशक को कितना यकीन था इसकी झलक तब मिलती है जब दो गाने एक के बाद एक परदे पर आते हैं. यह भी एक नया प्रयोग था.
'सैंया बेईमान' खत्म होता है और 'क्या से क्या हो गया बेवफा तेरे प्यार में' शुरू हो जाता है. पिया लगभग 8.30 मिनिट का लंबा सांग था और पूरे समय अपने सम्मोहन में जकड़े रखता है. इसी तरह 'सैंया बेईमान' लगभग 4.28 मिनिट और 'बेवफा' 3.04 मिनिट का गीत था. ये दौनों ही श्रोताओं के कानों में रस घोलते रहते हैं, धोल रहे हैं. 'दिन ढल जाए हाय रात न जाए' हसरत जयपुरी की लाइन थी, जिसे बाद में गीतकार शैलेन्द्र ने अपने लिखे गीत में यूज़ किया.
दरअसल, पहले फिल्म के गीत हसरत लिखने वाले थे, लेकिन कहा जाता है कि उनकी देवानंद और विजय आनंद से क्रिएशन को लेकर अनबन हो गई थी. बाद में, शैलेन्द्र ने फिल्म के गीत लिखे. दूसरे गीतकार के रूप में चयन से नाराज़ शैलेन्द्र ने ज्यादा पैसों की मांग की जिसे निर्माता ने पूरा किया. एक वक्त ऐसा आया कि एसडी बर्मन ने अपनी बीमारी के चलते फिल्म संगीत से अलग होने की इच्छा जताई पर देव नहीं माने और उनके स्वथ होने का इंतज़ार किया. अंतत: एसडी ने कालजयी संगीत की रचना कर देव के 'ज़ुनून' को सही मुकाम तक पहुंचाया.
गाने की बात चल रही है तो जि़क्र जरूरी है 'कांटों से खींच के ये आंचल' देव फिल्म में रखना नहीं चाहते थे. लेकिन, विजय आनंद के आग्रह पर इसे फिल्माया गया. गीत का फिल्मांकन देख देव को अपना विचार बदलना पड़ा. 'गाइड' के गीत सिर्फ मनभावन नहीं थे, बल्कि फिल्म के कथानक में गुंथे हुए नज़र आते हैं. 'कांटों' गीत को ही लें, गीत शुरू होने के पहले राजू गाइड का एक संवाद है 'मेरी समझ में नहीं आया.
कल तक आप लगती थीं चालीस साल की औरत जो जि़ंदगी की हर खुशी, हर उमंग, हर उम्मीद पीछे कहीं रास्ते में छोड़ आई है और आज लगती हैं सोलह साल की बच्ची भोली, नादान, बचपन की शरारत से भरपूर' जवाब में सवाल मिलता है 'जानते हो क्यूं,' और गीत शुरू हो जाता है…' कांटों से खींच के आंचल…आज फिर जीने की तमन्ना है.
आज फिर मरने का इरादा है..'. तेज भागते ट्रक से मटका फेंक कर तोड़ना बताता है कि इसके फिल्मांकन के लिए विजय आनंद ने कितनी क्रिएटिव मेहनत की थी. इस गाने के माध्यम से निर्देशक विवाहिता के पति के छोड़ने की पृष्ठभूमि को चतुराई के साथ दर्शक के दिमाग में बिठा देता है और उसके लिव इन में रहने के फैसले के बाद भी उससे दर्शकों की सहानुभूति जोड़ देता है.
फिल्म ने सर्वश्रेष्ठ फिल्म के अलावा निर्देशक, अभिनेता, अभिनेत्री, कहानी, संवाद और सिनेमेटोग्राफी में सर्वश्रेष्ठ फिल्म फेयर अवार्ड मिला था. कुल सात अवार्ड. ये अलग बात है कि खूबसूरत गीत संगीत होने के बावजदू यहां एसडी बर्मन शंकर जयकिशन (सूरज फिल्म) से हार गए. 'सूरज' के 'बहारों फूल बरसाओ मेरा मेहबूब आया है' (रफी) ने खिताब जीता था. अब आप कहेंगे कि फिल्म उस साल की सबसे बड़ी हिट तो होगी ही. पर नहीं कमाई के मामले में यह साल की पांचवे पायदान पर आने वाली फिल्म थी. पहले नंबर पर थी वक्त, दो पर जब जब फूल खिले, तीन पर हिमालय की गोद में और चार पर आरज़ू के बाद कलेक्शन में गाइड का नाम आता है.
फिल्म की कमी की बात करें तो कह सकते हैं फिल्म में एडिटिंग की भरपूर गुंजाइश थी. क्लाइमेक्स वाला सीन तो कुछ ज्यादा ही लंबा खींचा गया है.यह पुरातत्वविद बूढ़े और अमीर मार्को, उसकी खूबसूरत जवान पत्नी रोज़ी और राजू गाइड की कहानी है. परिस्थितियां रोज़ी को राजू के साथ लिव इन में रहने के फैसला लेने पर मजबूर करती हैं. रोज़ी की डांस प्रतिभा को उभारकर राजू उसे मशहूर और धनवान नृत्यांगना नलिनी के रूप में रूपांतरित करता है.
बाद में, उसके जाली हस्ताक्षर के कारण जैल चला जाता है. नलिनी उसे बचाती नहीं है. जैल से छूटने पर राजू गांव नहीं लौटता और अनजान यात्रा पर चला जाता है. जहां उसे पहुंचे हुए महाराज का दर्जा दे दिया जाता है. गांव में अकाल आता है और राजू मजबूरी में वर्षा आने तक का उपास रखने की घोषणा करता है. अंत में बारिश होती है लेकिन इस चमत्कार को देखने राजू जिंदा नहीं बचता.
फिल्म में राजू की मौत एक प्रसिद्ध और सिद्ध महाराज के रूप में होती है लेकिन उपन्यास में राजू की मौत गुमनामी में होती है और गांव में अकाल खत्म होने या बारिश होने का कोई जि़क्र भी उपन्यास में नहीं है. निर्देशक ने यहां बारिश करवा कर फिल्मी मजबूरी का इज़हार किया तो राजू को मारकर एक साहसिक प्रयास भी. क्योंकि उन दिनों फिल्म के हीरो-हीरोइन का मरना दर्शक पसंद नहीं करते थे और इससे फिल्म के फ्लॉप होने का खतरा बना रहता था. तो ये थी कहानी बोल्ड, क्लासिक और सुपरहिट फिल्म 'गाइड' की जो शायद इन दिनों रिलीज़ होती तो, माहौल देखकर कहना पड़ रहा है कि पता नहीं उसे कैसा और कितना विरोध करना पड़ता ? वैसे क्लासिक 'गाइड' देवानंद से ज्यादा गोल्डी की फिल्म थी.
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
शकील खान फिल्म और कला समीक्षक
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