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देश की राजधानी के दिल्ली कैंट इलाके में नौ साल की एक बच्ची से बलात्कार और उसे जला देने की जैसी घटना सामने आई है, वह किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को दहला देने के लिए काफी है। इससे यही साबित होता है कि महिलाओं को सुरक्षित माहौल देने के तमाम दावे महज भाषणों, वक्तव्यों और कागजों तक सिमटे हुए हैं। खबरों के मुताबिक दिल्ली कैंट इलाके के पुराना नांगल गांव में परिवार के साथ रहने वाली एक दलित बच्ची पास ही स्थित श्मशान से पीने का पानी लाने गई थी, लेकिन घर नहीं लौटी। कुछ देर बाद वहां के पुजारी ने उसकी मां को बुलवा कर कहा कि करंट लगने से लड़की की मौत हो गई है। मामले को दबाने के लिए उसने यह समझाने की कोशिश की कि पुलिस में शिकायत करने पर पोस्टमार्टम होगा और लड़की के सभी अंग निकाल लिए जाएंगे, इसलिए इसका अंतिम संस्कार तुरंत कर दिया जाए। फिर बिना परिवार की सहमति लिए लड़की के शव को आनन-फानन में जलाया जाने लगा। इस पर लड़की की मां और वहां पहुंचे स्थानीय लोगों ने तीखा विरोध किया।
कहने को सभी स्तरों पर पुलिस की चौकसी का दावा किया जा रहा है, मगर यह घटना बताने के लिए काफी है कि अपराधों की रोकथाम को लेकर वास्तव में कितनी सजगता है। विडंबना यह है कि पुलिस को जहां आरोपियों के खिलाफ तुरंत कार्रवाई करनी चाहिए थी, वहीं मार डाली गई बच्ची के परिवार ने शिकायत की कि पुलिस ने उन पर मामले को हल्का बनाने के लिए बयान देने का दबाव बनाया, जबकि उनकी बच्ची से बलात्कार के बाद उसकी हत्या कर दी गई। बाद में जब मामले ने तूल पकड़ना शुरू किया, तब पुलिस ने चार आरोपियों को पकड़ा। सवाल है कि घटना से पहले अपराधी के भीतर वह कौन-सी निश्चिंतता थी, जिसकी वजह से उसने ऐसे जघन्य वारदात को अंजाम दिया! फिर घटना के बाद ड्यूटी से लेकर जिम्मेदारी के स्तर पर पुलिस ने जैसा रवैया दिखाया, क्या वह पीड़ितों को इंसाफ दिलाने के लिहाज से उचित कहा जा सकता है? इस वाकये ने करीब दस महीने पहले उत्तर प्रदेश के हाथरस में हुई उस घटना की तस्वीर को सामने रख दिया है, जिसमें सामूहिक बलात्कार की शिकार उन्नीस साल की एक दलित लड़की की मौत के बाद पुलिस के संरक्षण में आधी रात को आनन-फानन में उसका शव जला दिया गया। तब भी ये आरोप लगे थे कि पुलिस ने खुद सबूतों को कमजोर करने या मिटाने में सक्रिय भूमिका निभाई।
दरअसल, दिल्ली की घटना ने फिर यह बताया है कि समाज में दलित-वंचित जातियों या कमजोर तबकों के खिलाफ अपराधों के मामले में सत्ता और पुलिस का तंत्र जरूरी संवेदनशीलता नहीं बरत पाता है। सवाल है कि सामाजिक-आर्थिक वर्ग के लिहाज से अपराधों के मामले में पुलिस का रवैया इस कदर संवेदनहीन और अपनी जिम्मेदारियों के विरुद्ध कैसे और क्यों हो जाता है! क्या यही पुलिस सक्षम तबकों के साथ होने वाली किसी भी आपराधिक घटना के वक्त ऐसा रुख अख्तियार कर पाती है? एक तरफ दिल्ली सरकार और दूसरी तरफ केंद्रीय गृह मंत्रालय के तहत काम करने वाली यहां की पुलिस अक्सर दावा करती है कि वह समूचे राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में महिलाओं को पूरी तरह सुरक्षित माहौल देगी। लेकिन निर्भया कांड के आठ साल से ज्यादा बीत जाने के बावजूद उस सिलसिले में कोई बदलाव नहीं दिखता है। दिल्ली में लड़कियां और महिलाएं सुरक्षित नहीं हैं। सरकार और पुलिस को अगर अपने ऊपर जनता का भरोसा कायम रखना है तो उसे यह सुनिश्चित करना होगा कि अपराधियों को सख्त सजा और पीड़ित परिवार को समय पर इंसाफ दिलाया जा सके।