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पत्रकारिता और बॉलीवुड दोनों हाल-फिलहाल भारत की बुद्धि और सृजनात्मकता के मंच या बानगी हैं
By हरिशंकर व्यास।
बुनियादी हिंदू सत्य है कि हिंदुओं का अनुभव बादशाह, राजा, प्रधानमंत्रियों और सत्ता से गुलामी-लूट-बरबादी का होते हुए भी यह नहीं समझना है कि बुद्धि-ज्ञान-विज्ञान-सत्यशोधकों, इंटेलिजेंसिया, थिंक टैंकों के बिना मंजिल नहीं है। सत्ता और राजा कि सिरमौरता वाले सोवियत मॉडल से हिंदुओं का न कुछ बनना संभव है और न इस्लाम से खुन्नस में इस्लाम जैसे बनने से भला होना है। दोनों रास्ते भयजनित या भयाकुलता से हैं।
मोटे सवाल से बात शुरू करें। पत्रकारिता और बॉलीवुड दोनों हाल-फिलहाल भारत की बुद्धि और सृजनात्मकता के मंच या बानगी हैं। इन दोनों पर भय का जब साया बना तो दोनों में बुद्धि व सृजनात्मकता का कैसा सूखा बना, इसका सत्य क्या इंदिरा गांधी की इमरजेंसी और नरेंद्र मोदी के राज के अनुभव से जाहिर नहीं हैं? दोनों का अनुभव माहौल में भयाकुलता और बुद्धिहीनता-जड़ता लिए हुए। अब आगे सोचें कि भय से दिमाग पर ताला लगता है या बंद बुद्धि से साहस पर ताला? सो, पहेली कि भय की मुर्गी पहले या अज्ञानता का अंडा पहले? हिंदुओं के जीने में भयाकुलता अधिक या अज्ञानता? यदि गुलामी के हजार साला अनुभव में हम इस पहेली को कसें और सोचें कि हिंदुओं में गुलामी आई कैसे तो बहुत उलझेंगे। क्यों हममें वह स्वतंत्रचेता बुद्धि नहीं थी, जिससे मरो-मारो के साहस से गुलामी का हम प्रतिरोध लगातार करते हुए होते। वजह पहले से बना भय था या बुद्धिहीनता और दर्शन-विचार का कोई विकार? भयाकुलता पहले या नासमझी, भ्रम के अहिंसा परमो धर्म जैसा बुद्धि मंथन व आचरण पहले? इन सवालों का कोई सर्वमान्य जवाब संभव नहीं है। तभी दोनों को एक सिक्के के दो पहलू मान सकते हैं। यों भी मुर्गी और अंडे में पहले कौन का फैसला करना अंसभव है।
हम हिंदुओं के लिए गुलामी की वजह और उससे अपने व्यवहार-स्वभाव को समझना इसलिए भी मुश्किल है कि घटनाओं-परिस्थितियों के लिए प्रत्यक्षदर्शी हिंदू इतिहासकार हैं ही नहीं। हमें गुलामी और उसके पहले के विवरण चाइनीज या मुस्लिम विजेताओं के इतिहासकारों से प्राप्त है। और वे विपदा-हमलों-गुलामी के वक्त में हिंदू आचरण और स्वभाव के संकेत देते हुए नहीं हैं। तभी असाधारण स्थितियों में फंसे हिंदू के चरित्र-व्यक्तित्व का अनुमान परिस्थितियों व घटनाओं के क्रम में बूझना अकेला रास्ता है। मैं उसी में अनुमान लगाते हुए हूं।
पहला अनुमान है कि हम हिंदू सम्राट अशोक की कलिंग लड़ाई के बाद अहिंसा परमो धर्म से राजनीतिक दुविधाओं में और हिंदू-बौद्ध शास्त्रार्थों से बिखराव, भ्रम, नासमझी, रूढ़िगत अज्ञानताओं में जीते हुए थे। सातवीं सदी में चीनी यात्री ह्वेनत्सांग ने उजबेकिस्तान के रास्ते अमु दरिया पार करके हिंदुस्तान में कुण्डूज, बलख, बामियान, स्वात घाटी, जलालाबाद, पेशावर, तक्षशिला, सिंध, कश्मीर, जालंधर कुल्लू घाटी में हिनायन, बैरत, मेरठ और मथुरा घूमते हुए बताया कि ये इलाके देश के उत्तर भारत क्षेत्र में हैं। ह्वेनत्सांग ने तब भारत में पांच क्षेत्र बताए थे। इसमें 'उत्तरी भारत' में थे मौजूदा अफगानिस्तान, पाकिस्तान और पंजाब, मथुरा के हिस्से। इस 'उत्तर भारत' में हिंदुओं के साथ बौद्ध अनुयायी भी बड़ी संख्या में।
जाहिर है ह्वेनत्सांग के बतलाए सन् 630 के भारत में अस्सी साल बाद सन् 711 में मोहम्मद बिन कासिम की कमान में सिंध पर जब पहला संगठित मुस्लिम हमला हुआ तब 'उत्तर भारत' में हिंदू और बौद्ध दोनों धर्म के मतभेदों की सच्चाई थी। अपनी जगह यह पहेली है कि सिंध के राजाओं, दरबारियों, हिंदू प्रभु वर्ग, बुद्धिमानों में यह खटका, यह चिंता क्यों नहीं थी कि उनसे सटे फारस याकि पुराने ईरान को अरब के मुस्लिम हमलावरों ने रौंदा है और उसकी पुरानी सभ्यता-संस्कृति को क्रूरता में जड़ से खत्म कर दे रहे हैं, लोग वहां से भाग शरण ले रहे हैं तो हमें कमर कस सावधान होना चाहिए। तथ्य है बिन कासिम से पहले भी समुद्र और जमीनी रास्ते 'उत्तरी भारत' की पश्चिमी सीमाओं में अरब बेड़े घुसपैठ व हमले की कोशिश सन् 643 से कर रहे थे। मतलब हिंदू पांच सौ साल खतरे की अनदेखी करते रहे। क्यों? उसके पीछे तब क्या मनोविज्ञान था?
वह बुद्धिहीनताजन्य लापरवाही थी। सन् 711 में मोहम्मद बिन कासिम का सिंध पर हमला हुआ तो उसका मुकाबला हिंदू राजा दाहिर सेन ने बहुत बहादुरी से किया लेकिन वह और उसकी सेना घर के भीतर हिंदू-बौद्ध (पूर्ववर्ती राजा और भाई चंद्रसेन बौद्ध धर्म समर्थक था) मतभेद और दरबार के भितरघात से मारे गए। कहते है निरोनकोट और सिवस्तान में बौद्ध भिक्षु 'अहिंसा परमो धर्म' के भाव में मोहम्मद बिन कासिम का स्वागत करते हुए थे।
वह पहली लड़ाई हर मायने में धर्मयुद्ध थी। फतह के बाद मोहम्मद बिन कासिम ने अपने अरब बादशाह अल हाजाज को ब्योरा भेज बताया- काफिरों का इस्लाम में धर्मांतरण हुआ, मंदिरों का ध्वंस कर मस्जिदें बनाई गईं और खुतबा पढ़ा गया…। जाहिर है हिंदुओं में वह पहला अनुभव दहशत बनवाने वाला था। दुर्भाग्य जो परिस्थितियों-घटनाओं में एक के बाद एक पहले मोहम्मद गजनी, फिर मोहम्मद गोरी, फिर चंगेज खान और उसके बाद तैमूर (सन् 1001 से लेकर 1221) के दौ सौ सालों में उत्तर भारत याकि गंगा-जमुना के हिंदू संस्कृति केंद्रों (खासकर वैदिक आस्था के बलशाली पंजाब) और सिंध-गुजरात के रास्ते के हिंदू वैभव को इतनी बर्बरता से लूटा, बार-बार लूटा कि उन दो सौ सालों के अनुभव ने ही हिंदुओं को हमेशा के लिए न केवल भयाकुल बनाया, बल्कि उस भयाकुलता से दिमाग में निराशा, कुंठा, हताशा ऐसी पैठी कि बुद्धि सर्वस्व भगवान भरोसे हो पलायन और भक्ति की खोल में दुबक गई!
तभी मैं हजार साला गुलामी में भय व भयाकुलता को हिंदू के स्वभाव और व्यवहार में ढालने का निर्णायक और पहला जिम्मेवार कारण मानता हूं। उसके बाद फिर अज्ञान और सतयुग की सच्चाइयों-प्राप्तियों को भुलाते हुए बुद्धि का कुंद-मंद रहना जिम्मेवार कारण। हां, सन् 712 के बाद बुजदिली से जीते हुए ही हम लोगों ने वह सब भुला दिया जो अच्छे वक्त याकि सतयुग में प्राप्त था।
तभी ज्ञान और ज्ञान के संस्कार नहीं लौटे और स्वतंत्रचेता बुद्धि को खाद-पानी मिला ही नहीं।
इतिहास में कई तरह के कारण लिखे हुए है। घटनाओं की कई तरह की व्याख्याएं हैं। पर गुलाम हुई कौम, नस्ल, धर्म की मनोदशा के विश्लेषण के बिना। दुर्भाग्य है जो हमारे पास इतिहास का ऐसा कोई शोध नहीं है, रिकार्ड नहीं है, जिससे बूझें कि तब के हिंदू राजे-रजवाड़े या हिंदू आभिजात्य वर्ग विदेशी हमलों व पराधीनता पर सोचते हुए था भी या नहीं? जो लिखा गया उससे मोटा- मोटी लगता है हिंदू पूरी तरह राजनीति से निरपेक्ष हो चाकरी व प्रभु शरण में अपने भय, अपनी चिंताओं का निदान सोचता था। खेती, धन-धान्य, व्यापार, व्यापारी काफिलों की आवाजाही से वक्त की खबरें और दक्खन और पूर्व में हिंदू रियासतों की मौजूदगी जैसे तथ्यों के बावजूद क्यों मध्यकाल में हिंदु पुनर्जागरण, स्वाभिमान, एकजुटता के बुद्धिजन्य अनुष्ठान की लौ नहीं बनी, यह भी बिना जवाब की पहेली है। तभी अपना फिर तर्क है कि खैबर पार के आतातायियों ने प्रारंभिक सदियों में ऐसा मारा, ऐसा विध्वंस किया, ऐसे गुलाम बना कर रखा कि भयाकुलता ने दिल-दिमाग में सोचने के बीज ही नहीं फूटने दिए। हिंदुओं का जो संभ्रांत, कुलीन वर्ग दासता की मनसबदारी से पैदा था वह भी राणा प्रताप से कन्नी काटता हुआ! उसे भूखे मरने देता हुआ!
हम भय में जीये हैं और भयाकुलता में ही जीते हुए हैं। इसलिए बुद्धि, ज्ञान-विज्ञान-सत्य के लिए निश्चिंतता, निडरता, बेधड़की बनाना हिंदू के बूते की बात नहीं! यह सत्य आम और खास (एलिट-प्रभु वर्ग) दोनों तरह के हिंदुओं पर समान रूप से लागू है। आम हिंदू ने गुलामी काल में भयमुक्ति के लिए भक्ति पाठ को अपनाया। कलियुगी भय में तुलसी कृत हनुमान चालीस भयमुक्ति का लोकप्रिय पाठ बना। उस नाते कलियुग में हनुमानजी, काल भैरव या शनि, राहु, केतु की शरण में हिंदुओं का चालीस पाठ, नए कर्मकांड, नए मंत्र यदि धर्मनिष्ठ-आम हिंदुओं की आज अनिवार्यता है तो वह भी स्वभाव व मनोदशा का खुलासा है। गुलामी-भय ने हिंदुओं को नए इष्ट-संत-महात्मा, नए पाठ, नए कर्मकांड और मंत्र दिए हैं तो चेहरों, मूर्तियों और अवतार के भरोसे रक्षा होने की आस्था भी पाली है।
भय की विकट परिस्थिति से खास हिंदुओं याकि एलिट-बौद्धिक वर्ग का जमावड़ा और निर्माण भी संभव नहीं था। किसी देश, कौम, नस्ल का बनना-बिगड़ना बुद्धि और इंटेलिजेंसिया से हुआ करता है। राजा से नहीं बल्कि चाणक्य से। तभी सतयुग का हिंदू विचार-दर्शन में राजा-मंत्रियों-कारिंदों से अलग ऋषियों, राजगुरूओं, दार्शनिकों, सत्य-साधना के तपस्वियों का खास महत्व और उनकी उपस्थिति जरूरी बताता था। इसकी जरूरत आज के विकसित-सभ्य लोकतांत्रिक देशों के अनुभव से भी जाहिर है। अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस याकि यूरोप की पांच सौ सालों की प्राप्तियों का आधार ही थिंक टैंक, बुद्धि, इंटेलिजेंसिया था और है। मगर भयाकुल भारत में वह संभव नहीं तो यही हमारी असफलताओं के पीछे की मूल वजह है। ज्ञान-बुद्धि-इंटेलिजेंसिया का जब महत्व ही नहीं है, उसके निर्माण की परिस्थितियां ही नहीं और केवल राजा, सत्ता व कारिंदों से देश का चलना है तो देश जड़ता से वक्त काटते, घसीटता हुआ होगा। यह सत्य 1947 में आजादी के बाद लगातार अनुभवों से प्रमाणित है। भारत में सबने मान रखा है कि सत्ता ही सब कुछ और सत्ता से ही सब कुछ। सत्ता प्रमुख यदि पंडित नेहरू प्रधानमंत्री हैं या नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री है तो इनसे सब कुछ हो जाएगा।
ऐसे सोचना और मानना नस्ल, धर्म, देश का न केवल मानसिक विकार है, बल्कि राष्ट्र की वह अपगंता है, जिससे इतिहास में हिंदू ने कई बार मार खाई है। एक व्यक्ति के भरोसे याकि हाथी पर बैठा राजा दाहिर मारा गया तो सेना और देश खत्म। अनंगपाल का हाथी बिगड़ा तो सदियों पराधीन। एक पृथ्वीराज की खामोख्याली में बार-बार दुश्मन को माफी और सब खत्म।
विषयांतर हो रहा है। बुनियादी हिंदू सत्य है कि हिंदुओं का अनुभव बादशाह, राजा, प्रधानमंत्रियों और सत्ता से गुलामी-लूट-बरबादी का होते हुए भी यह नहीं समझ पाना है कि बुद्धि-ज्ञान-विज्ञान-सत्यशोधकों, इंटेलिजेंसिया, थिंक टैंकों के बिना मंजिल नहीं है। सत्ता और राजा कि सिरमौरता वाले सोवियत मॉडल से हिंदुओं का न कुछ बनना संभव है और न इस्लाम से खुन्नस में इस्लाम जैसे बनने से भला होना है।
दोनों रास्ते भयजनित या भयाकुलता से हैं। इसलिए कई बार लगता है कि हिंदू के अस्तित्व के इतिहास, वर्तमान और भविष्य तीनों में भयाकुलता का फैक्टर असंख्य घेरों का वह चक्रव्यूह है, जिससे बार-बार फुलस्टॉप। ढाक के तीन पात। भयाकुलता सबका सब कुछ निगलती हुई। सब कुछ रूकता हुआ। यही अनुभव 1947 के बाद की सत्ता में भी है! इसलिए भय और सत्ता पर अभी और विचार जरूरी! (जारी)
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