सम्पादकीय

तकदीर का खेल

Subhi
22 May 2022 3:46 AM GMT
तकदीर का खेल
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शाम को जब मैं प्रेस क्लब के मयखाने में पंहुचा तो देखा, वह पहले से वहां बैठी हुई थी। अरे तुम, और यहां! हां, मैं और यहां। इसमें ताज्जुब की क्या बात है? उसने हंस कर कंधे उचका दिए।

अश्विनी भटनागर; शाम को जब मैं प्रेस क्लब के मयखाने में पंहुचा तो देखा, वह पहले से वहां बैठी हुई थी। अरे तुम, और यहां! हां, मैं और यहां। इसमें ताज्जुब की क्या बात है? उसने हंस कर कंधे उचका दिए। एक पल के लिए ताज्जुब जरूर हुआ था, मैंने कहा, पर अब मैं उसके पार आ गया हूं। पिछली बार तुम एकाएक प्रकट हो गई थी। अच्छा नाम बताया था तुमने अपना… उसने मुझे बीच में काट दिया। मैं तकदीर हूं, आपसे पहले यहां पहुंच गई थी। आइए, बैठिए। उसने एक कुर्सी अपनी तरफ खींच ली और इशारे से मुझे बैठने का न्योता दिया।

मैं कुछ असमंजस में आ गया था, कुर्सी की तरफ बढ़ते हुए मेरा पैर मेज के पाए में फंस गया और मैं लड़खड़ा गया। तकदीर को सामने देख सभी लोग लड़खड़ा जाते हैं, आप परेशान मत होइए। आराम से बैठिए। मैंने अपने को संभाला और बड़ी सावधानी से कुर्सी में उतार दिया। वह पूरी प्रक्रिया को उत्सुकता से देख रही थी। मुझे लगा कि बैठते ही वह मुझे मेरी एतिहात पर जरूर छेड़ेगी, इसलिए मैंने पहले बोलना शुरू कर दिया।

मैंने तो सुना था कि हमारी शोहरत हमारे पहुंचने से पहले पहुंच जाती है, पर आज तुम बता रही हो कि तकदीर ने बाजी मार ली है। वह खिलखिला कर हंसी। खूब कहा आपने और ठीक भी कहा। आपकी शोहरत इस मयखाने में काफी है। उसको आने-जाने की जरूरत नहीं है, क्योंकि वह यहां जम कर बैठी है। हां, तकदीर आती-जाती रहती है। देखिए, मैं आ गई न?

मैंने उसको स्नेह भरी नजरों से देखा। उसने मुस्करा कर मेरा स्नेह स्वीकार कर लिया। और बताओ तकदीर, तुम कैसी हो? एक पल तोला, एक पल माशा। मेरा क्या है मैं तो बदलती रहती हूं। और लोगों को परेशान करती हो! क्या मिलता है तुम्हें इससे? कभी तो तुम एकदम दमकती हो और कभी पलक झपकते मुरझा कर गायब हो जाती हो। तुमको हम कितना संवारने की कोशिश करते हैं, पर तुम अपने रूखे उलझे बाल लिए इधर-उधर डोलती फिरती हो। आज मिली हो, चलो कंघी कर के तकदीर के पेंच सुलझा देते हैं।

उसने जोर से ठहाका लगाया। आप भी खूब हैं जनाब, बड़े-बड़े अरमान पाल रखे हैं आपने। तकदीर मिली नहीं कि उसकी जुल्फो-खम सुलझाने पर आमादा हो गए! आपकी हैसियत को मैं दाद देती हूं। हैसियत का उलाहना सुन कर मैं थोड़ा नाराज हो गया। तुम हमको कुछ नहीं समझती हो क्या? हम सुलझा भी सकते है और उलझा भी सकते है, मैंने तपाक से कहा।

आपको पूरा भरोसा है अपनी बात पर? हां क्यों नहीं। तकदीर, तुम आज मुझसे पहले यहां जरूर पहुंच गई थी, पर इसका मतलब यह नहीं है कि तुम हमेशा मेरे आगे-आगे चलती हो। वह गंभीर हो गई। तकदीर आगे नहीं, साथ चलती है और मैं यहां पहले नहीं आ गई थी, आपकी निगाह मुझ पर देर से गई, क्योंकि आप और चीजों पर गौर करने में मसरूफ थे।

चलो, जो भी है, मैंने बात काटते हुए कहा, असलियत यह है कि हम दोनों अलग-अलग हैं। तुम तुम हो और मैं मैं हूं। हां, कभी-कभी हमारी मुलाकात हो जाती है, पर उसके बाद मेरा अपना किया मेरे साथ रहता है।

मतलब, मैं आपकी जिंदगी में शामिल नहीं हूं? उसने मुस्करा कर कहा। ज्यादा नहीं, बस थोड़ी-सी शमिल हो, मैंने उसकी तरफ शरारत भरी नजरों से देखा और कहा, तकदीर जिंदगी नहीं है। हां, जिंदगी जीने से तकदीर की शक्ल जरूर पैदा हो जाती है। मतलब?

मेरी हैसियत इतनी है कि मैं अपनी जिंदगी बदल सकता हूं। खुद-ब-खुद राजा से रंक और रंक से राजा बन सकता हूं। इसमें किस्मत जैसी अलहदा चीज की कोई जगह नहीं है, मैंने जोर देते हुए कहा, तकदीर, तुम जिंदगी में होने वाले तमाम इत्तेफाकों में से एक हो। इत्तेफाक का दूसरा नाम हो।

आपका कहना है कि आपका काम साथ चलता है। ऊपर से अचानक कुछ टपक नहीं पड़ता है? मैंने सिर हिलाया। बिल्कुल। काम से काम जुड़ता है और कड़ी बनती जाती है, जिसे हम जिंदगी कहते हैं। काम बीज है, कुछ बीज अंकुरित नहीं होते हैं, कुछ हो जाते हैं और फिर फल देते हैं। बीज फूटना कुदरत का खेल है, इसमें तकदीर कहां है?

कुदरत क्या है? उसने धीरे से पूछा। अर्श और फर्श का माहौल। नियम का चलना। जैसे गर्मी की फसल गर्मी में लहलहाएगी और जाड़ों की जाड़ों में। कायदे से चलेंगे तो सही फायदा मिलेगा। कुछ लोग कायदे से बिदके रहते हैं और नाकामी को किस्मत जैसी काल्पनिक खूंटी पर टांग कर अपने को तसल्ली देते हैं।

अगर ऐसा है तो लोग किस्मत चमकाने के लिए तरह-तरह की कोशिश क्यों करते हैं? उसने सवाल उठाया। क्योंकि वे अदृश्य पर विश्वास करते हैं, अपने पर नहीं। अपनी कमियों को पहचानने के बजाय वे भूतों को अपने में उतारने पर उतारू हैं। असल में हमें किस्मत के भूत को भागने का ताबीज चाहिए।

मैं भूत हूं, तकदीर ने आखें मटकाई। भूत का सबूत हो। मेरी हाजिरजवाबी पर वह हंस पड़ी। अगर मैं सबूत हूं तो फिर आपको मुझे सलाम करना ही पड़ेगा, उसने अपने बाल संवारते हुए अपने को पेश किया। मेरा सलाम हर सबूत को है, जो ठोस है। हवा को मैं सलाम नहीं करता हूं।

मेरी बात पर वह जोर से फिर हंसने लगी। ठीक भी है, हवा में लाठी भांजने से क्या फायदा है? उसने कहा, पर मैं तो आपके सामने हूं, एकदम ठोस हूं। तो फिर सलाम है आपको, मैंने झुक कर सलाम पेश किया। पर अब हवा मत हो जाना, ठोस ही रहना।

हम अपने खिलवाड़ पर हंस ही रहे थे कि घंटी बज गई। क्लब का मयखाना बंद हो गया था। अरे, यह क्या हुआ! मेरे मुंह से निकला, बातों बातों में मैं आर्डर देना तो भूल ही गया। आज प्यासे घर लौटना होगा। सब तकदीर का खेल है, वह फट से बोली, आप इतनी दूर पीने की मंशा लेकर आए थे, पर तकदीर हावी हो गई। पूरा मयखाना आपके सामने है, पर नसीब में दो घूंट भी नहीं है। अब क्या कहेंगे?

वही जो मैंने पहले कहा था- कायदा। क्लब के कायदे से चलता, तो हर चीज मुहैया हो जाती। मैं तकदीर के भरोसे बैठा रहा और इसलिए खाली हाथ उठ कर जा रहा हूं। वह मुझे बहुत देर तक घूरती रही और फिर झटके से उठ कर चली गई।


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