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यूनाइटेड नेशंस की 2019 की रिपोर्ट के मुताबिक कपड़ों का उत्पादन वर्ष 2000 और 2014 के बीच दुगुना हो गया
राघवेन्द्र राठौड़। यूनाइटेड नेशंस की 2019 की रिपोर्ट के मुताबिक कपड़ों का उत्पादन वर्ष 2000 और 2014 के बीच दुगुना हो गया। यह उद्योग दुनिया भर में पानी की 20 फीसदी बर्बादी का जिम्मेदार भी है। इस बात का अंदाजा आप इससे लगा सकते हैं कि एक जीन्स बनाने में लगभग 7,500 लीटर पानी लगता है।
इसी रिपोर्ट के अनुसार कपड़ों और जूतों के उत्पादन में 8 प्रतिशत ग्रीनहाउज गैसों का उत्सर्जन होता है। हर सेकंड एक कचरे भरे ट्रक के बराबर कपड़े या तो जलाए जाते हैं या गाड़ दिए जाते हैं। चाहे इन कपड़ों को जलाया जाए, दफनाया जाए या यूं ही छोड़ दिया जाए, ये पर्यावरण को नुकसान पहुंचाते हैं। हवा और पानी को प्रदूषित करते हैं। सिंथेटिक या केमिकल से ट्रीटेड परिधानों के बायोडीग्रेडेशन में लगभग 200 साल लग जाते हैं।
कपड़ा उद्योग पर कंज्यूमरिज्म कितना हावी हो रहा है, इसका एक ताजा उदाहरण दक्षिण अमेरिका का सबसे संपन्न देश चिली है। चिली चीन और बांग्लादेश के सेकंड हैंड और न बिक सकने वाले कपड़ों का हब है, जो यूरोप, एशिया या अमेरिका के रास्ते से चिली पहुंचते हैं और फिर वहां से लेटिन अमेरिका में बेचे जाते हैं। हर साल 59,000 टन कपड़े चिली पहुंचते हैं।
इनमें से लगभग 39,000 टन कपड़े वहीं रह जाते हैं क्योंकि नॉन बायो-डीग्रेडेबल होने के कारण इन्हें म्यूनिसिपल लैंडफिल में दफनाने की अनुमति नहीं मिलती। सोचिए, जब चिली का यह हाल है तो दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी जनसंख्या के देश हिंदुस्तान का पर्यावरण किस दबाव से गुजर रहा होगा। मैं खुद फैशन उद्योग से हूं, लेकिन मैं यह कतई नहीं मानता कि बार-बार, मौके-बेमौके कपड़े खरीदना हर बार जरूरी होता है। न जाने कब हम फैशन को डिस्पोजेबल मानकर अंधाधुंध खरीदारी करने लगे। कपड़ों से अलमारियां भरने लगें।
मेरी नजर में फैशन केवल वह नहीं जो मौसम, दौर या मिजाज बदलते ही बदल जाए। न ही फैशन का मतलब वो पहनावा है, जो किसी की देखा-देखी अपनाया जाए। फैशन सही मायने में किसी व्यक्ति की शख्सियत, मौके और पसंद पर निर्भर करता है। वह व्यक्तित्व का कुदरती हिस्सा बन जाता है। फैशन आपके हस्ताक्षर जितना ही खास होता है और उसे सोच-समझकर ही तय किया जाना चाहिए। पर क्या आप जानते हैं कि फैशन में सस्टेनेबिलिटी यानी टिकाऊपन आज के दौर की सबसे बड़ी जरूरत है। एक बार पढ़ने पर आपको लगेगा कि यह कैसे मुमकिन है? चलिए मैं समझाता हूं।
पहले आप मेरे एक सवाल पर गौर कीजिए। कुदरती फेब्रिक कहां से आते हैं? कपड़े दरअसल कृषि उत्पाद ही हैं। मिट्टी में बोए कुछ खास किस्म के बीजों से कपड़े का कच्चा माल तैयार होता है। कपास के पौधे का जीवन चक्र ही देखिए। बीज जब धूप, पानी, खाद और मिट्टी की गोद में अपनी आंखें खोलता है, तो वो जल्दबाजी में नहीं होता। वो खुद को वक्त के आगे समर्पित कर देता है, धीरे-धीरे वक्त के साथ ही अपना जीवन चक्र शुरू करता है।
कोविड के बाद जब स्लो-मूवमेंट का खयाल फिर से पैर जमाने लगा है, तब फैशन का फास्ट फॉरवर्ड होना हैरान ही नहीं बेचैन करने वाला है। सोशल मीडिया को फास्ट फॉरवर्ड ट्रेंड पसंद है क्योंकि तेजी से बदलते सेल्फी जनरेशन के दौर ने इस ट्रेंड को और मजबूती दी है। तभी तो फैशन सस्टेनेबल की जगह डिस्पोजेबल बन गया है। कुछ मौकों और तस्वीरों के बाद कपड़ों को फेंक देना फैशन डिजाइनर्स ने नहीं सिखाया।
समाज ने यह व्यवस्था खुद अपने लिए बनाई है। एक-एक सेल्फी के लिए कपड़े बदलना दौड़ती-भागती और पल-पल बदलती सोशल मीडिया की दुनिया में जिंदा रहने के लिए जरूरी हो गया है। तमाम विवादों के बाद भी लोग, ऐसे कपड़े खरीदते हैं जिन्हें खरीदना सुविधाजनक हो और जिन्हें बदलने से उनका नुकसान न हो। रिटेलर्स भी उनकी इस नब्ज को पहचान गए हैं तभी तो सस्ते और आसानी से उपलब्ध फैशन में ज्यादा से ज्यादा निवेश कर रहे हैं।
फैशन के जब इतने सस्ते विकल्प आसानी से मिल रहे हों तो चाहे वो गैरजरूरी हों, लेकिन हमें उनकी लत लगने लगती है। नतीजा यह होता है कि संसाधनों की बर्बादी के कारणों में फैशन शामिल हो जाता है। पर्यावरण के साथ-साथ आपकी सेहत पर इसके दुष्प्रभाव को जागरुकता की कमी के कारण नजरअंदाज किया जा रहा है।
अगर आप बदलाव का उत्प्रेरक पूरे समाज में ढूंढ़ रहे हैं तो आपको वो उत्प्रेरक नहीं मिलेगा। बदलाव का उत्प्रेरक हमारे अलावा कोई हो ही नहीं सकता। अगर आप तय कर लेंगे कि पर्यावरण की सांसों को जकड़ने वाले रेक्सीन और पॉलिस्टर को हटाना है, तो यह फैसला आप ही ले सकेंगे, हम फैशन डिजाइनर्स नहीं। स्लो फैशन आज की जरूरत है।
फैशन उम्मीद का उद्योग है। इस पर पर्यावरण को जख्मी करने का इल्जाम नहीं लगना चाहिए, लेकिन यह आपसे ही मुमकिन होगा। तो चलिए, आप और हम खुद से यह वादा करें कि बेवजह खरीदारी की जगह सोच-समझकर अपनी जरूरत व शैली के अनुरूप ही परिधान खरीदेंगे, स्लो फैशन अपनाएंगे और फास्ट फैशन की परतों तले पर्यावरण की सांसें नहीं घुटने देंगे। शायद अगले तीन दशकों तक परिधान मेटावर्स पर खरीदे-बेचे जाएंगे। यह एक बिल्कुल नया ट्रेंड या यूं कहें कि ऑनलाइन कम्यूनिटी की एक नई दुनिया होगी, जिसके लिए हमें तैयार रहना होगा।

Rani Sahu
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