सम्पादकीय

खेती : बेहाल किसान और बदहाल बीमा योजना, सरकार से तबाह होती फसलों के मुआवजे की आस

Neha Dani
20 Oct 2022 1:38 AM GMT
खेती : बेहाल किसान और बदहाल बीमा योजना, सरकार से तबाह होती फसलों के मुआवजे की आस
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कंपनियों पर सख्ती बरतने की भी आवश्यकता है।
वर्ष 1978 में हरियाणा में अति ओलावृष्टि और तेज हवाओं के चलते गेहूं की फसल लगभग बर्बाद हो चुकी थी। तब चौ. देवीलाल हरियाणा के मुख्यमंत्री थे। संबंधित अधिकारियों के साथ उन्होंने कुछ जिलों में खेतों पर जाकर फसल नुकसान का आकलन करवाया और नकद मुआवजा देकर पीड़ित किसानों को राहत पहुंचाई। हरियाणा सरकार का वह कार्यक्रम पूरे देश के लिए नजीर बन गया। हालांकि इससे पहले 1972 में फसल बीमा योजना चलाई गई थी, पर उसका कोई सदुपयोग नहीं हो पाया।
वर्ष 1985 में शुरू की गई फसल बीमा योजना निस्संदेह पहली राष्ट्रव्यापी योजना थी, लेकिन वह मुख्यतः कर्जदार किसानों के लिए थी। 1999 में भी कृषि बीमा योजना चलाई गई, लेकिन किसानों के बड़े समूह ने कोई दिलचस्पी नहीं ली। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, 2012-13 में देश के मात्र सात फीसदी किसानों ने अपनी एक फसल का बीमा कराया था। बेमौसम बरसात, बाढ़, तूफान, ओलावृष्टि जैसी प्राकृतिक आपदाओं से फसल बर्बाद होने पर किसानों को आर्थिक सुरक्षा देने के लिए वर्ष 2016 में प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना लागू करने की घोषणा की गई।
इससे शुरुआती दिनों में किसानों में भारी उत्साह का संचार हुआ था, लेकिन यह योजना दम तोड़ती दिख रही है। हालांकि केंद्र सरकार ने रक्षामंत्री राजनाथ सिंह की अध्यक्षता में सात सदस्यीय मंत्रियों का एक समूह गठित किया है, जो योजना की समीक्षा करके इसे और बेहतर बनाने की दिशा में सुझाव देगा। पिछले तीन वर्षों से बीमित किसानों की संख्या और खेती का दायरा घटा है। सरकारी-गैर सरकारी बीमा कंपनियों के मुनाफे में तेज वृद्धि भी इसकी सफलता पर सवाल खड़े करती है।
इसके अलावा, कई राज्यों ने अपने हिस्से का प्रीमियम अदा नहीं किया, तो कई राज्यों ने इससे खुद को अलग रखा और अपनी ही स्थानीय राज्य बीमा योजना शुरू कर दी। इन योजनाओं के मुताबिक, फसल दर में 20 फीसदी तक की कमी होने पर 7,500 रुपये प्रति हेक्टेयर और 20 फीसदी से अधिक क्षति होने पर 10 हजार रुपये प्रति हेक्टेयर की दर से अधिकतम 20 हजार रुपये मुआवजा दिए जाने का प्रावधान है। काफी समय से यह मांग हो रही है कि किसानों के लिए बीमा योजना स्वैच्छिक हो।
कुछ किसान संगठनों की मांग है कि पूरा प्रीमियम सरकार अदा करे। यह योजना खेती को लाभप्रद बनाने और ग्रामीण अर्थव्यवस्था में निवेश के लिए बनाई गई थी, इसलिए इसे निजी कंपनियों के मकड़जाल से बचाने की भी जरूरत है। तमाम प्राकृतिक आपदाएं किसानों की परेशानियां बढ़ा ही रही हैं। विगत अक्तूबर की वर्षा ने खेतों में खड़ी लगभग सभी फसलों को बर्बाद कर दिया। नुकसान का आकलन अभी बाकी है, लेकिन धान, सोयाबीन, उड़द, मक्का, ज्वार, कपास की फसलें चौपट हो गईं।
यद्यपि कृषिमंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने घोषणा की है कि सभी क्षतिग्रस्त फसलों को बीमा योजना के तहत लाकर उचित मुआवजा दिया जाएगा। सरकारी नियमों के मुताबिक, बीमा करवाने वाले किसानों को फसल खराब होने की सूचना 72 घंटे के अंदर संबंधित कंपनी को टोल फ्री नंबर या एप के माध्यम से दर्ज करानी होगी, अन्यथा उन्हें भुगतान नहीं किया जाएगा। समय-समय पर उपज के नुकसान के आकलन के लिए आवश्यक क्रॉप कटिंग एक्सपेरिमेंट (सीसीई) इस योजना की सबसे कमजोर कड़ी है।
बीमा योजना के तहत राज्य को प्रत्येक फसल के लिए प्रत्येक ग्राम पंचायत में सीसीई करके फसल कटाई के एक महीने के भीतर बीमा कंपनियों को उपज का आंकड़ा देना होता है। भारत में लगभग 2.5 लाख ग्राम पंचायतें हैं, यानी एक सीजन में 10 लाख सीसीई का आयोजन किया जाएगा। जाहिर है, कम समय में इतनी संख्या में सीसीई का आयोजन करना चुनौतीपूर्ण है।
अतः इस योजना के उद्देश्य की पूर्ति हेतु सरकार को योजना के समक्ष आने वाली सभी चुनौतियों के संबंध में जल्द से जल्द समाधान का मार्ग तलाशना चाहिए, ताकि किसानों की भरपाई करने के साथ एक विश्वसनीय माहौल तैयार किया जा सके। इसके लिए राज्यों को प्रबंधित करने के साथ-साथ बीमा कंपनियों पर सख्ती बरतने की भी आवश्यकता है।

सोर्स: अमर उजाला

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