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अंततः सरकार को प्रदर्शनकारी किसानों के सामने घुटने टेकने ही पड़े
दिव्याहिमाचल.
अंततः सरकार को प्रदर्शनकारी किसानों के सामने घुटने टेकने ही पड़े। धान की सरकारी खरीद 11 अक्तूबर के बजाय 3 अक्तूबर से ही शुरू कर दी गई है। पहले ही सरकार ने तारीख बढ़ाने का फैसला क्यों लिया था? क्या वह आंदोलित किसानों की आक्रामकता को नापना चाहती थी? तारीख बढ़ाने के विरोध में किसानों ने आक्रामक, कुछ हिंसक भी, प्रदर्शन किए। अवरोधक तोड़ दिए गए। मुख्यमंत्री, मंत्रियों, विधायकों और सांसदों के आवासों पर बवाल मचाया गया। पुलिस को लाठी भांजनी पड़ी और पानी की बौछार भी मारनी पड़ी। पुलिस के हाथों में खुजली तो नहीं हो रही थी कि उसने तपे-तपाये किसानों पर पलटवार किया! क्या सभी संवैधानिक अधिकार और लोकतंत्र किसानों के लिए ही हैं? क्या उनके कोई दायित्व नहीं हैं? वे जो भी मांग करें, उन्हें झुक कर स्वीकार कर लिया जाए, नहीं तो आक्रमण और अराजकता के दंश झेलिए। कृषि भी एक पेशा और व्यापार है। किसी को 'अन्नदाता' या 'भगवान' के विशेषण देना बेमानी है, क्योंकि सभी प्रकार का दाता तो 'ईश्वर' है, 'परमब्रह्म' है। किसानों के प्रति आभारी होना ठीक है, क्योंकि वे हमारे भोजन का बंदोबस्त करते हैं, लेकिन भोजन के साथ-साथ असंख्य सेवाएं और उत्पाद हैं, जो आम जि़ंदगी के लिए बेहद अनिवार्य हैं। हमें उनके लिए भुगतान करना पड़ता है और किसानों के खाद्यान्न भी हम खरीदते हैं। क्या कृषि के अलावा अन्य सेवाओं और उत्पादों के लिए सरकार किसी भी प्रकार की गारंटी देती है? उन पर भी कुदरती आपदा बरसती है।
वे नष्ट हो जाती हैं। उनमें भी अरबों का निवेश होता है। उनके साथ भी पेट और परिवार लगे होते हैं। किसानों के ही नखरे क्यों झेले जाएं कि वे तमाम हदें पार करने लगें? कल्पना करें कि किसान की तरह डॉक्टर, इंजीनियर, सफाईकर्मी, शिल्पकार, बुनकर, दफ्तरी कर्मचारी, दूध-फल वाले, घरेलू गैस वाले, बड़े उत्पादक और सबसे बढ़कर श्रमजीवी जमात के मज़दूर भी, अपनी-अपनी मांगों को लेकर, आंदोलन पर उतर आएं और सड़कों पर बिछ जाएं, तो समूचे देश के हालात और दृश्य क्या होंगे? लोकतंत्र और अधिकारों की व्याख्या तो सभी नागरिक समुदायों के लिए समान है। सभी वर्गों और पेशेवरों के संवैधानिक अधिकार भी बराबर हैं। फिर किसानों के कारण उपजी अराजकता को क्यों बर्दाश्त किया जा रहा है? क्या किसान एक मजबूत वोट बैंक हैं? किसानों के लिए ही समूची व्यवस्था असहाय क्यों लगती है? सर्वोच्च न्यायालय ने राजधानी दिल्ली के बाहर तीन बॉर्डरों पर धरना-प्रदर्शन कर रहे किसानों के संदर्भ में तल्ख टिप्पणियां की थीं कि आप दिल्ली शहर का गला घोंट रहे हैं। आप राजमार्ग, रेलवे और सड़कें जाम नहीं कर सकते। प्रदर्शन का अधिकार किसानों को है, तो आराम से जि़ंदगी जीने, काम करने और आवाजाही का अधिकार आम नागरिक को भी है।
सरकारी संपत्ति को नष्ट करने का अधिकार किसी को भी नहीं है। अब किसान शहर के भीतर जाकर उसे भी बंद करना चाहते हैं। विरोध-प्रदर्शन और अदालत में याचिका साथ-साथ नहीं चल सकते। आप सुरक्षाकर्मियों और सैनिकों की आवाजाही को भी बाधित नहीं कर सकते। शायद किसानों को जानकारी नहीं है कि अनुच्छेद 19 (1) के तहत अभिव्यक्ति के संवैधानिक अधिकार असीमित नहीं, सीमित हैं। यह देश किसानों का ही बंधक नहीं है। किसान नेता कभी बयान देते हैं-संसद में गेहूं भर देंगे। कभी प्रधानमंत्री मोदी और मुख्यमंत्री योगी के खिलाफ अनाप-शनाप बोलते हैं। जवाब में तर्क दिए जाते हैं कि सरकारी लोगों ने भी उन्हें खालिस्तानी कहा, नक्सलवादी कहा। क्या किसी भी आंदोलन की भाषा ऐसी होती है? क्या बदले की भावना से आंदोलन चलाए जा सकते हैं? बहरहाल सर्वोच्च अदालत ने बहुत कुछ कह दिया, लेकिन किसान धरने पर यथावत बैठे हैं। क्या टिप्पणियों से ही देश की व्यवस्था चला करती है? यह दायित्व केंद्र सरकार का है, क्योंकि राजधानी की कानून-व्यवस्था उसी के अधीन है। क्या अराजकता और गतिरोध दूर करने के लिए अदालत और सरकार को साझा कारगर कार्रवाई करनी होगी? अब सोमवार को हो रही सुनवाई पर नजरें हैं।
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