सम्पादकीय

किसान आंदोलन : ऐसे निरस्त होंगे कृषि कानून

Neha Dani
29 Nov 2021 1:51 AM GMT
किसान आंदोलन : ऐसे निरस्त होंगे कृषि कानून
x
लोकप्रिय समर्थन के बिना कोई शक्ति हासिल नहीं की जा सकती।

किसानों के लंबे आंदोलन और संभावित नतीजों को भांपते हुए केंद्र सरकार ने तीनों विवादास्पद कृषि कानूनों को अंततः निरस्त करने की घोषणा की है। कानूनों का रद्द होना अभूतपूर्व या नया नहीं है। दुनिया भर में संसदें कानूनों को निरस्त करती हैं, जब ऐसे कानून पुराने हो जाते हैं, या उनकी आवश्यकता नहीं रहती। हालांकि तीनों कृषि कानून उपरोक्त किसी भी श्रेणी में नहीं आते हैं, क्योंकि वे अभी तक लागू नहीं हुए थे। वैसे भी माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने इन कानूनों को अस्थायी रूप से निलंबित कर दिया था।

संविधान के अनुच्छेद 73 के अनुसार संघ की कार्यकारी शक्ति संसद की विधायी शक्ति के साथ जुड़ी है। संसद, अनुच्छेद 245 के प्रावधान के अनुसार, सांविधानिक ढांचे के भीतर भारत के पूरे या किसी भी हिस्से के लिए कानून बना सकती है। केंद्र सरकार उसी सीमा तक अपनी कार्यकारी शक्ति का प्रयोग कर सकती है तथा किसी भी अधिनियम को निलंबित, संशोधित या निरस्त कर सकती है, जब तक कि उसके पास संसदीय बहुमत है।
जनरल क्लॉजेज अधिनियम,1897 के खंड 6 में प्रावधान है कि किसी भी अधिनियम या विनियम को विधायिका द्वारा निरस्त किया जा सकता है। यदि कोई कानून त्रुटिपूर्ण है या अपने उद्देश्य में विफल रहता है या उसके खिलाफ व्यापक जन रोष उभरता है, तो जनता द्वारा चुनी गई सरकार का दायित्व है कि वह उन कानूनों को निरस्त करे या उनमें वांछित संशोधन करे। पहले भी कई गैर-जरूरी कानून निरस्त किए गए हैं।
सरकार इस सत्र के दौरान तीनों कृषि कानूनों को निरस्त करने के लिए एक विधेयक लाएगी। निरसन विधेयक किसी भी सदन में पेश किया जा सकता है, क्योंकि यह धन विधेयक नहीं है। निरसन विधेयक को पेश करने से पहले प्रभारी मंत्री इसकी सूचना संबंधित सदन के पीठाधीश अधिकारी को देते हैं। कार्य सूची में शामिल होने के बाद नियत तिथि और समय पर मंत्री सदन की अनुमति मांगता है, और अनुमति मिलने पर विधेयक को पेश किया जाता है।
किसी अन्य सामान्य विधेयक की तरह निरसन विधेयक भी उसी विधायी प्रक्रिया के तीन वाचन से गुजरेगा। जाहिर है, निरसन विधेयक पर संसद में तीखी बहस होगी। विपक्ष यह दिखाने में कोई कसर नहीं छोड़ेगा कि वे मूल विधेयकों के विरोध में सही थे और सरकार स्पष्ट रूप से गलत या अनावश्यक जल्दी में थी। सरकार का तर्क होगा कि वह नए कानूनों के जरिये किसानों की आय को दोगुना करना चाहती थी और कृषि अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ और समृद्ध बनाना चाहती थी।
संसद के दोनों सदनों द्वारा पारित होने और राष्ट्रपति से सहमति मिलने पर तीनों कानून निरस्त हो जाएंगे। सवाल यह है कि अगर इन कानूनों को लागू किए बिना ही निरस्त करना था, तो कानून बनाए ही क्यों गए? एक मजबूत, सशक्त लोकतंत्र में जनमत मायने रखता है। कोई भी सरकार व्यापक जन आंदोलन के प्रति लंबे समय तक असंवेदनशील नहीं रह सकती, खासकर जब प्रभावित राज्यों में चुनाव नजदीक हों। लेकिन एक सच्चाई यह भी है कि प्रस्तावित निरसन को लेकर कृषि-अर्थशास्त्री बंटे हुए हैं।
कई विशेषज्ञ इसे कृषि सुधारों के लिए एक जबर्दस्त झटका मानते हैं। यदि इन विवादास्पद कानूनों को संसदीय समिति को भेजा जाता, जैसी कि संसदीय परंपरा है, तो निस्संदेह आम सहमति और एकता बनाने में मदद मिलती। जल्दबाजी में कानून बनाने का यह नतीजा है। कोरोना संकट के समय में जिस गति और तरीके से, संसद की स्थायी समिति को भेजे बिना, विशेषकर राज्यसभा द्वारा कृषि कानूनों को पारित किया गया, उससे और संदेह, अविश्वास और किसानों में आक्रोश ही फैला।
स्पष्ट है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में रचनात्मक संवाद, सहमति और विश्वसनीय संसदीय विवेचना के बिना कानून थोपना लोकतंत्र का ह्रास है। लोकतंत्र में सत्ता के बिना कोई भी विधायी सुधार नहीं किया जा सकता है और लोकप्रिय समर्थन के बिना कोई शक्ति हासिल नहीं की जा सकती।
Next Story