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- किसानों की मांगें
आंदोलित किसान भारत सरकार का हाथ थामने के बाद बाजू भी जकड़ लेना चाहते हैं, ताकि उसे धक्का दिया जा सके। किसानों की बुनियादी मांग थी कि विवादास्पद कृषि कानून वापस लिए जाएं। प्रधानमंत्री उसकी घोषणा कर चुके हैं। उसे सरकार की कमजोरी न समझा जाए और न ही ब्लैकमेल करने की कोशिश की जाए। संभावना हैै कि बुधवार की कैबिनेट बैठक के दौरान कानूनों को रद्द करने पर फैसला भी ले लिया जाए! उसके बाद की औपचारिक प्रक्रिया संसद में ही पूरी होगी, जो बहुत दूर नहीं है, लेकिन रविवार को संयुक्त किसान मोर्चा ने तय किया है कि जब तक अन्य मांगें भी नहीं मान ली जातीं, तब तक आंदोलन जारी रहेगा। किसान राजधानी दिल्ली के बाहर बॉर्डर पर डटे रहेंगे। सोमवार को लखनऊ में किसान महापंचायत का आयोजन किया गया। आंदोलन की सालगिरह, 26 नवंबर, को देश भर में प्रदर्शनों के कार्यक्रम तय किए गए हैं। संसद के शीतकालीन सत्र के आगाज़ से ही हर रोज़ 500 आंदोलनकारी संसद तक टै्रक्टर मार्च निकालेंगे। हालांकि पुलिस ने अभी अनुमति नहीं दी है, लेकिन अराजकता पैदा करने के मंसूबे स्पष्ट हैं। अब किसानों की प्राथमिक मांग न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) का गारंटी कानून बनाने के इर्द-गिर्द है। किसानों के कुछ अन्य धड़े किसान आयोग के गठन की मांग कर रहे हैं। यह आयोग ही फसलों के लाभकारी दाम और दूसरे मुद्दे तय करे। एमएसपी का मुद्दा करीब 50 साल पुराना है। बुनियादी रूप से गेहूं और धान की फसलें ही एमएसपी पर सरकार खरीदती है। कुल 19 फसलें एमएसपी पर मात्र 5 फीसदी किसानों से ही खरीदी जा रही हैं। शेष 95 फीसदी किसान खाली हाथ हैं या बाज़ार के भरोसे हैं। अब प्रधानमंत्री की घोषणा और कानून खारिज होने के बाद ऐसे किसानों को एक बार फिर मंडियों और बिचौलियों की शरण में जाना पड़ेगा। ये दोनों ही किसान को निचोड़ते रहे हैं और किसान का शोषण करते रहे हैं। विशेषज्ञ मान रहे हैं कि एमएसपी को कानूनी दर्जा देने की मांग तर्कसंगत नहीं है, क्योंकि बाज़ार एक निश्चित दाम पर ही कारोबार नहीं करता।
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