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सम्पादकीय
Farm Laws Repeal : किसानों की दशा और गावों की अर्थव्यवस्था को सुधारना हैै तो सरकार करे यह काम
Gulabi Jagat
3 April 2022 2:25 PM GMT
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आज ग्रामीण अर्थव्यवस्था की कोई संकल्पना ही नहीं बन पा रही है, क्योंकि हमारे ग्राम अब अर्थव्यवस्था की आधारभूत इकाई नहीं रह गए हैैं
आर. विक्रम सिंह। रद किए जा चुके तीनों कृषि कानूनों की समीक्षा को लेकर गठित समिति के इस दावे के बाद भले ही सन्नाटा पसरा हो कि इन कानूनों से करीब 85 प्रतिशत किसान संगठन संतुष्ट थे, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि किसानों की समस्याओं का समाधान हो गया है। या फिर उनकी और खासकर आम किसानों की समस्याओं पर विचार करने की आवश्यकता नहीं। तीनों कृषि कानून किसानों और खेती को बंधनमुक्त कर कृषि क्षेत्र के व्यवसायीकरण और आधुनिकीकरण की राह बनाने वाले थे। मौजूदा माहौल में कृषि कानून पुन: वापस आने से तो रहे, लेकिन सुधारों के रास्ते तो बनाए ही जा सकते हैं। अब रास्ते क्या हैैं? इस पर समग्रता से विचार की आवश्यकता है। यह प्रश्न अभी अनुत्तरित है कि कृषि उत्पादों का मूल्य तंत्र किस प्रकार किसान या पशुपालक के नियंत्रण में लाया जा सकता है? 'उपज हमारी और कारोबार तुम्हारा' क्यों चलना चाहिए?
आज ग्रामीण अर्थव्यवस्था की कोई संकल्पना ही नहीं बन पा रही है, क्योंकि हमारे ग्राम अब अर्थव्यवस्था की आधारभूत इकाई नहीं रह गए हैैं। जीडीपी में कृषि-पशुपालन का भाग मात्र 16 प्रतिशत रह गया है। गांव श्रमिक सप्लाई के केंद्र बनकर रह गए हैं। विकास के जनपदीय अभिलेखों में गांव निर्जीव होकर मात्र संख्यात्मक डाटा कलेक्शन तक ही सीमित हैं। गांव विशेष की आर्थिक स्थिति क्या है? गांव घाटे में हैं या लाभ में? रोजगार का स्तर क्या है? कितने श्रमिक जीविका के लिए बाहर हैैं? मुख्य फसल कौनसी है, फसलों की उपज कितनी है, कितना सरप्लस गांव से निर्यात हुआ? ये किसी के न सवाल हैं न विषय।
कृषि मंडी का विचार मूलत: कृषि उत्पादों के भंडारण और विपणन के लिए ही लाया गया था, ताकि किसानों को बाजार मिले, लेकिन समय के साथ उस पर आढ़तियों, दलालों और क्षुद्र राजनीतिक सुविधाजीवियों का कब्जा हो गया। अंतत: यह क्रमश: कृषकों विशेषकर मध्यम एवं छोटे किसानों के शोषण की व्यवस्था में परिवर्तित होता गया। आज कृषकों के पास मंडी का कोई विकल्प ही नहीं है। वे अपने उत्पाद बाहर नहीं बेच सकते। जब मंडी कानून बने थे तब तक व्यावसायिक उदारीकरण का जमाना नहीं आया था। जब फिलहाल यही दिख रहा है कि मंडी कानून बने रहेंगे तब प्रश्न यह है कि इस कानून को किसान हित में उपयोग करने के रास्ते क्या बन सकते हैं? यह समस्या एक चुनौती की तरह है, जिसके समाधान का सवाल हमारे सामने है।
कृषि एक आर्थिक गतिविधि है। कृषि पूंजी सीमित ग्रामीण संसाधनों से ही आती है। इससे ग्रामीण अर्थव्यवस्था को क्या लाभ हो रहा है? मान लीजिए उत्तर प्रदेश या पंजाब अथवा राजस्थान का कोई गांव विक्रय योग्य 1,000 क्विंटल गेहूं मंडी भेजता है तो राज्य की तय दरों के अनुसार मंडी शुल्क राज्य के खाते में चला जाएगा। ये दरें उत्तर प्रदेश और राजस्थान में 1.5 एवं 2.5 प्रतिशत हैं तो पंजाब और हरियाणा में 6.5 से 8 प्रतिशत तक। बड़ी फसलों यथा गेहूं-धान खरीदने का कार्य आढ़ती के जिम्मे है, जिसे मंडी प्रशासन क्षेत्रवार कारोबारी लाइसेंस जारी करता है। सहकारी संस्थाओं को भी लाइसेंस निर्गत किए जाते हैं। कृषि उपज का कारोबारी लाभ मुख्यत: मंडी और आढ़तियों में वितरित हो जाता है। ग्रामसभा को इसका कोई लाभ नहीं मिलता। अब यदि ग्रामसभा को भी कृषि आढ़त का लाइसेंस दे दिया जाए तो क्या परिणाम होगा? पहली बाधा, ऐसा कभी सोचा ही नहीं गया है। फिर सवाल उठेगा कि यह कैसे हो सकता है। यह कहा जाएगा कि ग्रामसभा कोई व्यापारी तो है नहीं और फिर धन कहां है?
इनके जवाब आसान हैं। ग्रामसभा खुद सहकारी उत्पादक विक्रय समिति/संघ बना सकती है। गांव के मंडी प्लेटफार्म पर क्रेताओं को आमंत्रित कर सकती है। राष्ट्रीय एवं सहकारी बैंक ग्रामसभाओं को वित्तीय आवश्यकतानुसार क्रेडिट लिमिट स्वीकृत कर सकते हैं। मंडी परिसर में तो क्रेता आते ही हैं। ग्रामसभा बेची गई उपज पर मंडी शुल्क वसूल कर अपना कलेक्शन चार्ज वसूलकर शेष मंडी के खाते में जमा कर देगी। मंडी स्तर पर शुल्क आधा ही जमा हो पाता है, लेकिन ग्रामसभा स्तर पर शुल्क की चोरी संभव नहीं होगी। क्रेता ग्रामसभा में आएगा तो इस प्रकार किसान को लाभ, ग्रामसभा को लाभ, राज्य मंडी को लाभ होगा। भ्रष्टाचार पर नियंत्रण होगा। गांवों की अर्थव्यवस्था विकसित होनी प्रारंभ होगी। ग्राम सहकारी समिति और लाइसेंस प्राप्त ग्राम व्यापारियों का वर्ग विकसित होना प्रारंभ होगा। इस व्यवस्था में न तो मंडियां समाप्त होंगी, न मंडी कानून समाप्त होगा, बल्कि ग्रामसभाएं भी सहयोगी भूमिका में आकर खड़ी हो जाएंगी। इस व्यवस्था में हम पाएंगे कि ग्राम मंडियों के प्रभाव से शीघ्र ही गांवों में गेहूं-धान की मिलें, गुड़-खांडसारी उद्योग, तेल मिलें, दूध आधारित उद्यम, फल-सब्जी आदि की प्रोसेसिंग से संबंधित कारोबार आने प्रारंभ हो जाएंगे। रोजगार का नया ढांचा बनने लगेगा। हमारी ग्रामसभाएं ग्राम्य विकास और रोजगार का माध्यम बनती दिखेंगी।
यह कोई सब्जबाग नहीं है, बल्कि आने वाले कल की संभावनाओं से भरी, आशाएं जगाती तस्वीरें हैं, जो देश-प्रदेश के नेतृत्व द्वारा लिए गए सकारात्मक निर्णयों पर निर्भर हैं। लोग यह भी पाएंगे कि आगे चलकर न तो इन ग्रामसभाओं को और न ही हमारे ग्रामीण समाज को भविष्य में किसी सरकारी सब्सिडी की आवश्यकता ही पड़ेगी। ये वे आत्मनिर्भर गांव होंगे, जहां सरकारें मुख्यत: शिक्षा और स्वास्थ्य संबंधी कार्यों के दायित्वों का ही निर्वहन करेंगी। इस दिशा में सरकारों को इसलिए भी आगे बढऩा चाहिए, क्योंकि पांच राज्यों और खासकर उत्तर प्रदेश, पंजाब के हाल के चुनाव परिणामों ने यही दिखाया है कि औसत किसान कृषि कानूनों के खिलाफ नहीं था।
(लेखक पूर्व प्रशासक हैं)
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