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वेधशाला आदि की स्थापना कर उन्होंने आधुनिकीकरण की शुरुआत की।
केरल उत्तर भारत से सुदूर दक्षिण में स्थित एक छोटा प्रांत है। सह्याद्री की सुदृढ़ दीवार से सुरक्षित इस केरल का संबंध अपने ही देश के भिन्न-भिन्न प्रांतों के लोगों की अपेक्षा समुद्र पार कर आए हुए रोम, चीन, अरब देशों की जनता से अधिक था, लेकिन 19वीं सदी के आरंभ में एक और चित्र उभर कर सामने आया। भारत के लगभग सभी नगरों से भाषा, संगीत, नृत्य और अन्य विविध कलाएं केरल के दक्षिणांचल के छोटे नगर तिरुवनंतपुरम की ओर बहने लगी।
इस प्रकार भारत का एक विद्वतमंडल कुछ वर्षों के लिए ही सही तिरुवनंतपुरम को भारत के सांस्कृतिक केंद्र के रूप में पनपने में सहायक बना। उस मंडल का नेतृत्व जिस संगीतज्ञ, विज्ञान, पोषक एवं स्वतंत्रता प्रेमी स्वातितिरुनाल ने किया, उनका जन्म हुए अब दो सौ वर्ष हो रहे हैं। वर्ष 1846 में तैंतालीस वर्ष की उम्र में इस बहुमुखी प्रतिभा की मृत्यु हुई, तब उनकी मृत्य का समाचार इंग्लैंड, ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों तक फैल गया था। उनकी मृत्यु से संबंधित खबर में एक अविश्वसनीय टिप्पणी हम देख सकते हैं।
21 जुलाई, 1833 को लिखी गई टिप्पणी इस तरह थी ः तिरुवनंतपुरम के राजमहल में जिस पत्मनाभदास बालरामवर्मा स्वाति रामराजा की मृत्यु हुई है, वह पंडित, कवि और अंग्रेजी के सिवा कानरीस, मराठी, फारसी, संस्कृत, उडिया आदि कई भाषाओं के पारंगत थे। इस वार्ता में बताया गया कि हिंदुस्तानी पांडित्य हिंदुस्तानी भजनों के रूप में, जो संख्या में तैंतीस हैं, आज भी प्रतिध्वनित होते हैं। ब्रजभाषा, खड़ी बोली, दक्खिनी आदि भाषाओं के मिश्रित रूप में ही उन्होंने हिंदी का प्रयोग किया।
सबसे बड़ी खासियत यह थी कि संस्कृत पदों का अधिक प्रयोग उनके पदों का केरल में प्रचार पाने में सहायक बन सका। उन्होंने हिंदी गीत ऐसी सरल शैली में लिखे, जिन्हें केरलवासी आसानी से समझ सकते हैं। दरबारी कन्नड़ में लिखा उनका एक भजन इस प्रकार हैः देवनु के पति इंद्र/ तारा के पति चंद्र। इसी तरह से आए गिरिधर से शुरू होने वाले भजन में सुख के कारण, दुख के निवारण जैसी पंक्तियों में अनुप्रास की सुंदरता के साथ-साथ भाषा का लालित्य भी हम देख सकते हैं।
एक देशीय भाषा के प्रचार के लिए स्वीकार करने योग्य श्रेष्ठ और सरल मार्ग का उदाहरण यही है। बाजत मुरली मुरारी सुंदर जमुना किनारे रास-रास से शुरू होने वाले राधा-कृष्ण प्रेम का बयान करने वाले भजन ने पुण्य नदी जमुना की तरह हिंदी भाषा को केरलीय मन में लब्धप्रतिष्ठ स्थान प्रदान किया। जिस स्वातितिरुनाल ने केरल की सीमा पार नहीं की थी, वह मन से उत्तर भारत पहुंचे। केरलवासियों को अपना मार्ग स्वीकार करने का आह्वान करते हुए उन्होंने गाया : विश्वेसर दर्शन कर/ चल मन तुम काशी।
यह भजन सिंधुभैरवी में गाया जाता है और संयुक्त राष्ट्र की आमसभा में गाकर सुब्बालक्ष्मी जी ने इसे अनश्वर भी बनाया। काशी की मानस यात्रा का एक और प्राधान्य है। स्वाति की चिताभस्म काशी में ही अर्पित की गई थी। काशी जैसे पुण्यस्थल की जानकारी स्वाति को कहां से मिली होगी? काशी के रजत सिंह जब प्रसिद्ध ज्योतिषी शंकरनाथ से मिले तो प्रभावित हुए। शंकरनाथ केरल के पय्यन्नूर के थे। बाद में वह रजत सिंह के ज्योतिषी एवं विदेश कार्य मंत्री बने।
स्वाति को जब उनके बारे में पता चला तब उन्होंने विलियम बेंटिक से पत्र व्यवहार किया और उनकी सेवा तिरुवनंतपुरम में भी प्राप्त होने का अवसर दिया। शंकरनाथ ज्योतिषी द्वारा लाहौर से पुरस्कार के रूप में लाए गए देवी भागवत आदि के ताड़पत्रों को इकट्ठा कर स्वातितिरुनाल ने जिस ग्रंथालय की स्थापना की, वह आज सत्तर हजार से अधिक ताड़पत्रों को समाहित केरल विश्वविद्यालय के हस्तलेख ग्रंथालय के रूप में विकसित हुआ है।
उनका गीतू धुनक से आरंभ होने वाला नृत्यगीत (तिल्लाना) हिंदुस्तानी कृतियों से बिलकुल अलग है। इसी तरह बाजे पायल कहें झनन झनन झनन झनन तों, से आरंभ होने वाला सुंदर नुपूर ध्वनियों से पिरोया गया यह गीत कर्नाटक संगीत सभाओं में बहुत ही प्रसिद्ध है, अनिवार्य भी है। लगभग अपने सभी भजनों में अपने इष्टदेव श्री पद्मनाभप्रभु की स्तुति एवं स्मृति में लिखी हुई पद्मनाभप्रभु फणी पर शायि, ही अंतिम पंक्ति है। 1838 न्यूटन के विशिष्ट चिह्न वाले कागज में लिखे हुए स्वातितिरुनाल के हिंदी गीत केरल विश्वविद्यालय के हस्तलेख ग्रंथालय में मौजूद हैं।
ख्याल, द्रुपद, टप्पा आदि शैलियों में ही रचना हुई है, तो भी ठीक तरह से इसकी शैली संबंधी जानकारी हमें नहीं के बराबर है। आज कर्नाटक संगीत की या गजल की शैली में इसे गाया जा रहा है। केरल के दक्षिणी छोर के स्वातितिरुनाल ने ललित मधुर हिंदी गीतों की रचना की थी, जो कि कई दृष्टियों से खुशी एवं आश्चर्य पैदा करने वाली बात है। स्वातितिरुनाल सिर्फ संगीतज्ञ और कवि ही नहीं थे, बल्कि अंग्रेजी शिक्षा का आरंभ भी उन्होंने किया था। मुद्रणालय, अस्पताल, वेधशाला आदि की स्थापना कर उन्होंने आधुनिकीकरण की शुरुआत की।
सोर्स: अमर उजाला
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