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दुनिया में सैंकड़ों सालों से लोग इधर से उधर और उधर से इधर आते जाते रहे हैं. व्यापार, विस्तारवाद, एडवेंचर, इस आने जाने के पीछे के मुख्य कारण रहे हैं
दुनिया में सैंकड़ों सालों से लोग इधर से उधर और उधर से इधर आते जाते रहे हैं. व्यापार, विस्तारवाद, एडवेंचर, इस आने जाने के पीछे के मुख्य कारण रहे हैं. दुनिया की प्राचीनतम सभ्यताओं में ग्लोबलाइजेशन के जो निशान मिले हैं, साबित करते हैं कि ये आना जाना 5000 साल पुराना प्रचलन है. भारत की ही बात करें तो आर्यों का आगमन, मूलनिवासी पहचान, दोनों ही आम बातचीत और ऐतिहासिक गहन अध्यन का विषय हैं. लेकिन फोर्स्ड विस्थापन या कहें तो पलायन, एक दुखदाई प्रक्रिया होती है.
अनातेवका
2021 के अफ़ग़ानिस्तान से फोर्स्ड विस्थापन/पलायन के दृश्य दिल को द्रवित करते हों तो महसूस कीजिए 1905 वाले इस दृश्य को. ये दृश्य है अनातेवका का. उस समय के रूस के प्रांत यूक्रेन का छोटा सा पिछड़ा क़स्बा… अनातेवका.
अनातेवका नाम के इस गांव में रहने वाले यहूदी समुदाय के लिए रूसी शासक, ज़ार का फरमान आया है. उन्हें देश छोड़ने का आदेश हुआ है. अनातेवका में अफरातफरी का सा माहौल है. किसी को अपनी मुर्गियों की चिंता है, किसी को अपने बीमार घोड़े को छोड़ के जाने का ग़म है. समुदाय के लोग एक दूसरे को सांत्वना, दिलासा दे रहे हैं. घर छोड़ना, वो भी सदा के लिए, कहां आसान होता है.
ये है 1971 में रिलीज़ हुई एक ऑल टाइम क्लासिक फ़िल्म, "फिडलर ऑन द रूफ़" का आखरी सीन. आखरी कुछ क्षण हैं. इन आखरी पलों में अनातेवका के ये निवासी, अनातेवका से ही मानो अपनी गर्भनाल काटने के लिए, शब्दों और भावनाओं से जूझ रहे हैं. फिल्म चूंकि एक म्यूजिकल है. इसलिए ये बातचीत काफी सुर ताल और लय में बंधी है…
गीत के रूप में बातचीत…
अनातेवका की मैच मेकर : अनातेवका में आखिर रखा ही क्या है? ये कोई "गार्डन ऑफ ईडन" (स्वर्ग की तरह) थोड़े ही है!
रबाई/पुजारी का बेटा : सच कहा, आखिर क्या रखा है यहां?
गोल्डा, तेव्ये की पत्नी : आखिर यहां हमारे पास है ही क्या? वही पुराने बर्तन, पैन, झाड़ू, टोपी… और क्या?
तेव्ये, दूधवाला : किसी ने सालों पहले ही इस जगह को आग क्यों नहीं लगा दी! इस बेंच, इस पेड़, इस घर, इस चूल्हे को…
मोर्चा : यहां से गुज़रने वालों को तो ये भी नहीं पता कि वो अनातेवका से गुजरें हैं, ये भी कोई जगह है. लकड़ी, कपड़े, आखिर यहां हमारा क्या ही छूट जाएगा/क्या ही रह जाएगा यहां.
कोरस में सब बोलते हैं : बस अनातेवका छूट जाएगा. यहां भूखे प्यासे, काम से थके हारे लोग हैं! लेकिन फिर भी यहां की "सेब्बथ" बड़ी प्यारी है. हम जहां भी जाएंगे, यहां की प्यारी सेब्बथ की यादें साथ ले जायेंगे.
कोरस : अनातेवका… इतनी आत्मीयता, घनिष्ठता यहां के अलावा और कहां? ये हमारा अनातेवका है, यहां हम सब एक दूसरे को जानते हैं.
जाने अब हम किस नए देश को जाएंगे…
एक नए शहर में अजनबी की तरह एक नई जिंदगी शुरू करेंगे. पर जहां भी होंगे, जहां भी जाएंगे, ये अनातेवका के पुराने साथियों के चेहरे ज़रूर याद आयेंगे. हमारी आंखें, उस अजनबी नए शहर में भी इन पुराने अपनों के चेहरे ढूंढेंगी.
हम अनातेवका के हैं.
हम अनातेवका वाले ही रहेंगे.
हमारा प्यारा छोटा सा गांव, छोटा सा कस्बा, अनातेवका
डायलॉग
गोल्डा : बस ये सिर्फ़ एक जगह ही तो है.
मोर्चा : हमारे पुरखों को तो न जाने कितनी बार, मिनटों के नोटिस पर गांव छोड़ने के आदेश मिलते रहे हैं.
तेव्ये : (हंसते हुए) शायद इसीलिए हम सब, हमेशा अपनी हैट्स पहन के रखते हैं.
यहूदियों में हर समय हैट पहनने का प्रचलन है. यानि, हर वक्त निकलने को, सफ़र को तैयार. वैसे, यहूदियों के लिए चलते चले जाना "Book of Exodus" से ही पक्का हो गया था. और इसीलिए "The Promised Land" उनका हमेशा से ख़्वाब रहा है.
सेब्बथजिस रिवाज़ का ऊपर सीन में ज़िक्र होता है, ये वो साप्ताहिक विश्राम और ईश्वर-प्रार्थना का एक दिन है जो कुछ धर्मों में रेस्ट डे के हिसाब से मुकर्रर होता है. (ईसाईयों के लिए रविवार, यहूदियों के लिए शनिवार). सेब्बथ से ही अंग्रेज़ी का शब्द, sabbatical बना है.
"फिडलर ऑन द रूफ" फिल्म में दर्ज ये ऐतिहासिक घटना 1905 के रूस की है. इसी तरह के पल शर्तिया 1947 वाले भारत ने भी जिए होंगे. आज काबुल में भी कुछ यही चल रहा है.
1947 के विस्थापित बुज़ुर्ग
मुझे अपने अस्सी के दशक वाले बचपन के वो दिन याद हैं जब 1947 की विस्थापना देखे हुए पारिवारिक बुज़ुर्ग घर में अभी जीवित थे. वो बुज़ुर्ग विस्थापन की कहानियां सुनाया करते थे. अनातेवका के यहूदी समुदाय के लोगों की तरह आपस में बात करते हुए वो भी एक दूसरे को दिलासा देते थे. रावलपिंडी वाले अपने कस्बे, गुजरखान के लिए कहते थे, "वहां क्या रखा था? बस कांश थी, गाड़ां थीं, बनी थी."
मज़े की बात ये है कि विस्थापन के वो किस्से दर्दनाक ज़रूर हुआ करते थे पर उन बुजुर्गों के दिलों में कड़वाहट रत्ती भर भी नहीं थी. शायद उन बुजुर्गों को दुख झेलना भी आता था और आगे बढ़ना भी आता था.
"मई कानून" और "पोग्रोम"
दरअसल बात 1882 की है. पूरे रूस में यहूदियों के खिलाफ़ काले कानून पारित किए गए थे. उनकी आवाजाही पे रोक लगा दी गई थी. उनके व्यापार पर प्रतिबंध लगा दिया गया था. उन्हें हर बुराई के लिए ज़िम्मेदार माना जाता था. ज़ार के मंत्री कांस्टेंटीन पेट्रोविच खुल के कहते थे कि उनकी सरकार चाहती है कि यहूदी अल्पसंख्यकों में से "एक तिहाई मर जाएं, एक तिहाई देश छोड़ जाएं और जो बाकी के बचें, वो बहुसंख्यक ऑर्थोडॉक्स क्रिस्टियंस में तब्दील/घुलमिल जाएं".
अंग्रेज़ी में इसी को "पोग्रोम" कहते हैं. इस शब्द का अर्थ होता है, सामूहिक विनाश और हत्या. लोग इस शब्द को यूं तो नाज़ी जर्मनी और हिटलर से जोड़ते हैं, परंतु ये पोग्रोम सदियों से क्रूर शासकों और फौजों का साधन रहे हैं. 1905 तक आते आते "पोग्रोम" ने ज़ार की स्थापित निति की शक्ल इख्तियार कर ली थी. ज़ार का ज़ुल्म, अपनी पराकाष्ठा पे था. इसी पोग्रोम के कारण करीब 2.5 मिलियन यहूदी को रूस से पलायन करना पड़ा था. उन्हें यूरोप के अन्य देशों और अमरीका में शरण लेनी पड़ी थी. तब तक के इतिहास में इसे, सबसे बड़ा सामूहिक विस्थापन माना गया है.
फिडलर ऑन द रूफ
फिल्म बनने से पहले और उसके बाद भी, ये कहानी ब्रॉडवे पर हजारों हज़ारों बार देखी गई है. इसका कल्ट, बिल्कुल "साउंड ऑफ म्यूजिक" के माफिक है. यानि ये कहानी, स्टेज और बड़े परदे दोनों पर ही अपना जलवा दिखा चुकी है. फिल्म के नायक तेव्ये के रूप में इसराइली एक्टर "टोपोल" ने अभूतपूर्व सफलता पाई. खुद टोपोल, ब्रॉडवे में 3500 बार तेव्ये के रोल में दिखाई दिए हैं. इसराइली सिनेमा के वो एक बड़े स्तंभ हैं.
1971 में बनी ये क्लासिक फिल्म "फिडलर ऑन द रुफ़" बिल्कुल एक दस्तावेज़ की तरह है. उस कालखंड में घटित ऐतिहासिक घटनाओं का दस्तावेज़, यहूदी रीति रिवाज़ों का दस्तावेज़ और सबसे महत्वपूर्ण…मानवीय संवेदनाओं का एक मार्मिक चित्रण. फिल्म आइकॉनिक है. एक एक डायलॉग और इसका एक एक सीन, अदभुत है, शिक्षाप्रद है. सिनेमा के स्टूडेंट्स के लिए देखने लायक फिल्म है.
आठ श्रेणियों में ऑस्कर के लिए नामित हुई इस फिल्म को तीन ऑस्कर मिले थे. यूट्यूब पर कुछ साल पहले तक फ्री थी, अब शायद न हो. कोशिश कीजिएगा, मिल जाए तो ज़रूर देखिएगा. आसान अंग्रेज़ी में है. वैसे विस्थापन ही इस फिल्म का एक पक्ष नहीं है. इस फिल्म का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष है, "आगे बढ़ते रहने" की सीख. बदलावों को अपनाने की सीख. दरअसल, इस फिल्म की शुरुआत ही "Tradition" नाम के गाने से होती है. और फिर फिल्म सिखाती है कि कैसे वक्त के साथ, लोग बदलते हैं, रिवाज़ बदलते हैं और हम, आगे बढ़ते हैं. जीवन चलने का ही नाम है.
सदियों पुराने अपने इतिहास को भी अगर हम सही से पढ़ें तो उस से भी बस यही सीख हासिल करेंगे… "तुझको चलना होगा, तुझको चलना होगा."
बावरे मन को आज 1905 के रूस और "अनातेवका" से इजाज़त दीजिए. फिर मिलेंगे चलते चलते…अगले हफ़्ते.
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए News18Hindi किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
ज्योत्स्ना तिवारी
Rani Sahu
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