सम्पादकीय

नींद से जागने की झूठी कहानी

Rani Sahu
1 Dec 2021 6:49 PM GMT
नींद से जागने की झूठी कहानी
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किस-किस को रोइए, क्यों न मुंह ढक के सोइए

किस-किस को रोइए, क्यों न मुंह ढक के सोइए। लेकिन आप कहां सोना चाहते हैं जनाब? जिनके प्रासाद भव्य और अट्टालिकायें ऊंची हैं, उन्हें तो राजसी पलंगों पर दस-दस गद्दे बिछा कर भी नींद नहीं आती। एक शहजादी की कहानी कभी हमने सुनी थी। ज्यों-ज्यों उसके पलंग के गद्दे बढ़ते जा रहे थे, उसकी नींद और काफूर हो रही थी। बड़े-बड़े वैद्य बुलाए गए कि हमारी बिटिया की नींद लाओ। सब असफल, बिटिया का रतजगा खत्म होने में नहीं न आए। फिर एक गरीब-सी बुढि़या जो कभी इस राजकुमारी की आया थी, लाठी टेकती हुई आई। महाराज से गुज़ारिश की कि अलीजाह अगर हुक्म हो तो हम कोशिश करके देखें। महाराजा ने हिकारत से बुढि़या की ओर देखा। वह अंधेर नगरी के चौपट राजा थे। उन्होंने बूढ़ी की ओर हिकारत से ही नहीं देखा, गनीमत थी कि पहचान लिया। नहीं तो आजकल बूढ़ों को कौन भाव देता है? इंतजार अच्छे दिनों का था, तोहफा मिल गया मंदी का।

यहां तो काम के लिए जवान हो गए लोगों को काम नहीं मिलता। बरसों रोज़गार दफ्तरों के बाहर एडि़यां रगड़ते हुए कभी न मिलने वाले नियुक्ति पत्रों का इंतजार करते रहते हैं। डाकिया उनकी गली का रास्ता भूल जाता है। सरकार दरबार में काम के लिए गुहार लगाओ तो अपने पैरों पर खुद खड़े होने का परामर्श है और पकौड़े तलने का रास्ता दिखाया जाता है। हर हाथ को काम मिलने का सपना भी ध्वस्त नहीं हुआ, मंदी में बाज़ारों से लेकर खेत खलिहान तक कुछ ऐसी मंदी छाई कि चलते काम रुक गए, खेतीबाड़ी दम तोड़ते हुए परती परिकथा लिखने लगी। नगरी में रोज़गार मेले लगते थे, वहां बेकारी दूर करने की ज़रूरत पर भाषण होने लगे, लेकिन सरकार अपनी दुकान बढ़ा कर निजी धनपतियों की बंधक बनती नज़र आती रही। ऐसे में रोज़गार तो क्या, उसका वायदा भी कहीं नहीं मिलता। हां, काम देने की आस जैसी एक पुचकार अवश्य मिल जाती है। अभी बूढ़ी नानी की पोटली में उनके नाती-नातिन यह पुचकार जमा करवा रहे हैं कि मंदी फिर जलवाफरोश हो गई। देशी-विदेशी आंकड़ा शास्त्री उसकी दयनीय हालत का बखान करने लगे, लेकिन ऐसे आंकड़ों को स्वीकार करके मंदी के मकड़जाल से निकलने की कोशिश करने वालों को देशद्रोही कह दिया गया।
बाद में उन पर दर्ज एफआईआर को वापस लेते हुए मंत्री महोदय ने फरमाया, 'अजी कैसी मंदी, किसकी मंदी। अभी इस सप्ताह तीन-तीन फिल्मों ने कमाई का सौ करोड़ पार कर लिया। आप बताइए लोग भूखे हैं तो फिल्में देख सकते हैं, उन्हें इतनी कमाई करवा सकते हैं।' लेकिन लोग भूखे ही नहीं, बेकार भी हैं। ये वह करोड़ों लोग हैं जो दिन भर हाड़ तोड़ने के बाद सड़कों के टूटे फुटपाथों पर भी सो जाते हैं, लेकिन उधर राजा की राजकुमारी को पलंग के मखमली गद्दों पर भी नींद नहीं आती। इधर बुढि़या को राजकुमारी सुलाने का इशारा मिल गया कि जैसे मंदीग्रस्त देश में मरते काम-धंधों में करोड़ों छंटनी में आ गए कामगार बेकारों के हज़ूम को बढ़ कर उसे समावेशी विकास की जगह समावेशी रसालत का नाम देने लगे। उधर बुढि़या ने राजकुमारी के उनींदेपन का इलाज बता दिया, कि इसके पलंग से सब गद्दे हटा दो। आखिरी गद्दे पर पड़ा एक मटर का दाना राजकुमारी की नींद हराम कर रहा था, उससे भी निजात पा लो। राजकुमारी आराम की नींद सो जाएगी। जी हां, राजकुमारी तो सो गई, लेकिन यह अंधेर नगरी, यह होश की जगह बेहोश होता देश कैसे जागेगा। सदियों से इसके कंधों पर लदे हैं पलंग पर पड़े गद्दों की तरह एक नहीं, कई बैताल। जो खासकर निकला वह बूढ़ा वंशवाद जो अपनी गद्दी पर अपना नाती बिठा दिया। न जाने कितने गद्दे यहां चाटुकारों और सत्ता के दलालों ने बिछा रखे हैं, उन्हें भी उठा कर दूर फेंकना है। अभी तो मखमली घराने के राजसी गद्दों ने इसे ढक लिया।.
सुरेश सेठ
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