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By: divyahimachal
स्वतंत्र भारत की मुद्रा 'रुपया' अभी तक के सबसे निचले स्तर पर है। एक डॉलर 81.23 रुपए का हो गया था, जो 80 रुपए के आसपास स्थिर हुआ। यह तुलना भी चिंताजनक है, क्योंकि पूरा अंतरराष्ट्रीय कारोबार, लेन-देन डॉलर में ही होता है। यह अमरीका की आर्थिक ताकत और कारोबारी दादागीरी है, क्योंकि वह विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। भारत को सिर्फ कच्चा तेल ही नहीं, बल्कि दालें, तिलहन, खाद्य तेल, उर्वरक, ऊर्जा आदि कई चीजों का आयात करना पड़ता है। सेमीकंडक्टर जैसे मशीनी उपकरण और सैन्य कल-पुर्जों के लिए भी हम आयात पर आश्रित हैं। बेशक रूस, ईरान सरीखे देश कच्चे तेल की आपूर्ति हमारी मुद्रा 'रुपए' में ही करने को तैयार हैं। रूस से हम किफायती मूल्य पर कच्चा तेल खरीद भी रहे हैं, हालांकि पश्चिमी देश इसके खिलाफ हैं, लेकिन अपनी जरूरतों की पूर्ति के लिए हमें डॉलर में कच्चा तेल खरीदना ही पड़ता है। ऐसे हमारे अंतरराष्ट्रीय करार भी हैं, लेकिन सवाल ये हैं कि विदेशी मुद्राओं की तुलना में 'रुपया' लगातार कमज़ोर क्यों होता जा रहा है? सत्ता पक्ष का एक तबका इसे चिंतित स्थिति क्यों नहीं मानता? उसकी दलीलें क्या हैं? प्रधानमंत्री मोदी इस मुद्दे पर हमेशा खामोश क्यों रहे हैं, जबकि सत्ता में आने से पहले यह उनके लिए बेहद महत्त्वपूर्ण और संवेदनशील मुद्दा था?
यदि 'रुपया' लगातार गिरता रहेगा, तो क्या उसका असर अर्थव्यवस्था, महंगाई, बेरोजग़ारी पर नहीं पड़ेगा? रुपए के अवमूल्यन से हमारा चालू खाता घाटा जीडीपी का 5.6 फीसदी तक पहुंच गया है। यह अनियंत्रित स्थिति है और 2-3 फीसदी से ज्यादा नहीं होनी चाहिए। भारत का बड़े देशों के साथ व्यापार घाटा भी बढऩे लगा है। विदेशी निवेश कम हो रहा है, लिहाजा विदेशी मुद्रा का भंडार, बीते कुछ ही महीनों में, करीब 95 अरब डॉलर घट चुका है। निवेशक अपना धन भारत से निकाल कर अमरीकी बाज़ार की ओर आकर्षित हो रहे हैं। इन सबसे हमारी अर्थव्यवस्था लगातार प्रभावित हो रही है। दरअसल 1947 में जब भारत स्वतंत्र देश बना, तो एक रुपया एक डॉलर के समान था। केंद्र में 1998-मई, 2004 तक वाजपेयी सरकार के दौरान एक डॉलर की कीमत 42 रुपए के बराबर थी। कांग्रेस नेतृत्व की यूपीए सरकार के दौरान 2013 तक 61 रुपए में एक डॉलर मिल सकता था। तब 2014 में प्रधानमंत्री बनने से पूर्व, चुनाव प्रचार के दौरान, नरेंद्र मोदी ने रुपए के अवमूल्यन को देश की साख और सरकार की नाकामी से जोड़ते हुए आरोप चस्पा किए थे कि अर्थव्यवस्था गर्त में जा रही है। क्या मोदी ने देश को भ्रमित किया था, रुपए की स्थिति में सुधार को गुमराह किया था? इसी साल फरवरी में एक डॉलर का मूल्य 74.39 रुपए था, लेकिन अब 80 रुपए को पार करना, यकीनन, पराकाष्ठा की स्थिति है।
देश की वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण तो 'हनुमान' बनने का आह्वान करती रही हैं या रुपए की गिरावट पर गोलमोल दलीलें देती रही हैं, लिहाजा प्रधानमंत्री मोदी को इस स्थिति पर देश को खुलासा करना चाहिए। भारत आज विश्व की 5वीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है और 140 करोड़ से ज्यादा की आबादी होने के कारण 2029 में हम तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था भी बन सकते हैं, लेकिन देश डॉलर की तुलना में हमारे रुपए की स्थिति और ताकत जानना चाहता है। भारत के लघु, सूक्ष्म उद्योगों वाले क्षेत्र को सबसिडी के प्रोत्साहन देकर उत्पादन बढ़ाना होगा, ताकि रोजग़ार की स्थितियां भी बनें। नवरात्र के साथ हमारा त्योहारी मौसम भी शुरू हो गया है। इस दौर में मांग और खपत बढ़ सकती है, लिहाजा उत्पादन भी ज्यादा होना चाहिए, लेकिन हमारी औद्योगिक उत्पादन की विकास दर 2.5 फीसदी से भी कम है। कोशिश की जानी चाहिए कि 'मेक इन इंडिया' पर पूरा जोर लगा देना चाहिए, ताकि घरेलू और स्वदेशी उत्पादन बढ़ सके। हमें निर्यात भी बढ़ाना है, ताकि आयात पर आश्रय कम हो सके। आज कच्चा तेल 80 डॉलर प्रति बैरल के करीब आ गया है, लेकिन आम उपभोक्ता को पुराने, बढ़े हुए दामों पर ही मिल रहा है। कारण स्पष्ट है कि डॉलर में तेल का आयात महंगा पड़ता है, लिहाजा सस्ता होने पर भी राहत आम आदमी के हिस्से नहीं आती। सारांश यह है कि रुपए के अवमूल्यन के असर चौतरफा पड़ रहे हैं। यह दीगर है कि सरकारी पक्ष की दलीलें अलग हैं, लेकिन देश का आम आदमी सब कुछ समझ रहा है। महंगाई के कारण आम आदमी की कमर टूट गई है। दो वक्त की रोटी जुटाना मुश्किल हो गया है। सब्जी, फल और खाद्य पदार्थों के दाम आसमान को छू रहे हैं। सरकार को महंगाई रोकने के लिए ठोस कदम उठाने होंगे।
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Rani Sahu
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