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बड़ी समस्या बना गिरता हुआ रुपया
सोर्स- Jagran
धर्मकीर्ति जोशी : लगातार कमजोर हो रहा रुपया (Rupee) इन दिनों चर्चा में है। चालू वित्त वर्ष में डालर (Dollor) के मुकाबले रुपया पांच प्रतिशत से अधिक तक गिर चुका है। यह निश्चित रूप से चिंता का सबब है। वैसे मुद्रा में ऐसी कमजोरी कोई नई बात नहीं, लेकिन जब एकाएक उसमें तेजी से गिरावट या सुधार आने लगता है तो यह चिंता खासी बढ़ जाती है। इस समय यही स्थिति है। रुपया डालर के मुकाबले 80 के दायरे में झूल रहा है और आने वाले समय में यह और फिसलन का शिकार हो सकता है। हालात कुछ ऐसे बन गए हैं कि भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) भी अपने हस्तक्षेप से रुपये को गिरने से नहीं रोक सकता। हालांकि वह इस गिरावट की रफ्तार को कुछ धीमा जरूर कर सकता है।
रुपये की सेहत सुधारने के उपाय तलाशने से पहले उसकी बीमारी यानी कमजोरी के कारणों की थाह लेना आवश्यक है। किसी भी देश की मुद्रा में गिरावट के पीछे मुख्य रूप से दो कारक प्रभावी होते हैं। पहला यह कि देश की अर्थव्यवस्था कितनी नाजुक है। इससे यह तय होता है कि बाहरी झटकों से निपटने में वह कितनी सक्षम होती है। दूसरा पहलू यह है कि बाहरी झटके कितने जोरदार हैं? जोरदार झटकों से कितनी भी मजबूत स्थिति अभेद्य नहीं रह जाती। इस दूसरी वाली स्थिति कायम है। बाहरी झटकों ने ही रुपये की हालत पस्त की हुई है
वैसे रुपया पहले भी ऐसी स्थितियों से दो-चार होता आया है। 2008 के विश्वव्यापी वित्तीय संकट में भी यही हुआ था, जब रुपये पर भारी गिरावट की मार पड़ी थी। फिर 2013 में जब भारत को 'फ्रेजाइल फाइव' यानी दुनिया की पांच नाजुक अर्थव्यवस्थाओं में गिना जाने लगा तो उस समय भी रुपये में गिरावट का रुख देखा गया था। कमोबेश इसी तरह के अंतरराष्ट्रीय कारक इस समय प्रभावी बने हुए हैं। इसमें सबसे बड़ी भूमिका यूक्रेन पर रूस (Russia-Ukraine War) के हमले की है। यह युद्ध छह महीने से ज्यादा लंबा खिंच गया और अभी भी कुछ नहीं कहा जा सकता कि यह कब तक चलेगा? इसके कारण दुनिया भर में ऊर्जा एवं खाद्य उत्पाद जैसी तमाम आवश्यक वस्तुओं के दाम आसमान पर पहुंच गए हैं। इसने न केवल अंतरराष्ट्रीय स्तर पर महंगाई को भड़का दिया है, बल्कि कई देशों के व्यापार संतुलन को भी असंतुलित कर दिया है। भारत इसका बड़ा भुक्तभोगी है। वैश्विक स्तर पर अनिश्चितता ने देश के विदेशी व्यापार के गणित को बिगाड़ दिया है
प्राय: यह दलील दी जाती है कि मुद्रा (Currency) में गिरावट की स्थिति निर्यात के लिए लाभदायक होती है, लेकिन फिलहाल ऐसा नहीं है। एक तो तमाम देशों की आर्थिकी डांवाडोल होने से अंतरराष्ट्रीय बाजार में मांग सुस्त है और दूसरा यह कि भारत के कई प्रतिस्पर्धी निर्यातक देशों की मुद्रा में रुपये की तुलना में और ज्यादा गिरावट आई है तो उनके निर्यात विश्व बाजार में कहीं ज्यादा आकर्षक हो गए हैं। वर्तमान स्थिति में भारत और भारतीय रुपये के लिए स्थितियां इसलिए प्रतिकूल हो गई हैं, क्योंकि एक तो भारत निर्यात के मुकाबले आयात अधिक करता है और आयात भी कच्चे तेल (Crude Oil), प्राकृतिक गैस और उन तकनीकी उपकरणों का करता है, जिनका न तो देश में कोई विकल्प है और न ही उनके आयात को टाला जा सकता है। इससे चालू खाते का घाटा यानी सीएडी (CAD) बढ़ता है। इसे साधने के लिए रिजर्व बैंक डालर झोंकता है। इससे विदेशी मुद्रा भंडार घटता है।
वैसे डालर का कोप केवल रुपये पर ही नहीं बरस रहा है। दुनिया के तमाम देशों की मुद्रा इस समय डालर के समक्ष बेबस नजर आ रही हैं। यूरो करीब-करीब डालर के बराबर हो गया है। ब्रिटिश पाउंड से लेकर चीनी मुद्रा रेनमिनबी में भी डालर के मुकाबले गिरावट आई है। जापानी येन तो डालर के मुकाबले 30 प्रतिशत तक गिर चुका है। डालर के दबदबे के पीछे भी अंतरराष्ट्रीय घटनाक्रम की भूमिका है। एक तो कोविड से निपटने के लिए अमेरिका ने भीमकाय प्रोत्साहन पैकेज दिया, जिससे बाजार में व्यापक स्तर पर मुद्रा प्रसार हुआ। उसके बाद रूस-यूक्रेन युद्ध से आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति में आए गतिरोध ने उनकी किल्लत पैदा कर महंगाई को आसमान पर पहुंचा दिया।
महंगाई की तात्कालिक चुनौती से निपटने में अमेरिकी केंद्रीय बैंक फेडरल रिजर्व (Federal Reserve) ने ब्याज दरें बढ़ाने का सिलसिला शुरू किया, जिसमें अभी और बढ़ोतरी होने के पूरे आसार हैं। जब भी अमेरिका में ब्याज दरें बढ़ती हैं तो निवेशक दुनिया भर के बाजारों से पैसा निकालकर अमेरिका में निवेश का दांव लगाते हैं, क्योंकि एक तो यह अपेक्षाकृत सुरक्षित होता है और दूसरा ब्याज दरें बढ़ने से जोखिम सुरक्षा के साथ बेहतर प्रतिफल भी मिलता है। यही कारण है कि भारत सहित तमाम बाजारों से बीते दिनों बड़े पैमाने पर पूंजी का पलायन हुआ है। इसने भी डालर को मजबूत किया है। परिणामस्वरूप अन्य सभी मुद्रा उसके आगे उसी अनुपात में कमजोर पड़ रही हैं। इससे पहले 2013 में जब फेडरल रिजर्व ने नरम मौद्रिक नीति को अलविदा कहने के संकेत दिए थे, तब भी रुपये सहित तमाम मुद्राओं में भारी गिरावट देखी गई थी।
स्पष्ट है कि रुपये में जिन तमाम कारणों से गिरावट आ रही है वे न तो भारत सरकार के नियंत्रण में हैं और न ही रिजर्व बैंक का उन पर कोई वश है। फिर भी राजकोषीय-मौद्रिक दोनों स्तरों पर इस स्थिति से निपटने के प्रयास किए जा रहे हैं। देश में विदेशी निवेशकों के लिए निवेश करने के नियम आसान बनाना इन्हीं प्रयासों का हिस्सा है। रेमिटेंस के मामले में भी कुछ रियायतें दी गई हैं। केंद्रीय बैंक ने अपने भंडार से कुछ डालर भी बाजार में लगाकर रुपये को सहारा देने का प्रयास किया है, लेकिन इस रणनीति की एक सीमा है।
अब सभी नजरें अंतरराष्ट्रीय घटनाक्रम पर ही टिकी हैं, क्योंकि कच्चे तेल और अन्य आवश्यक वस्तुओं के दाम घटने से ही आयात की स्थिति सुगम होगी और रुपये को सहारा मिलेगा। साथ ही साथ महंगाई (Inflation) से भी राहत मिलेगी, क्योंकि भारत आयातित महंगाई का ही बड़ा शिकार है। इसमें कोई संदेह नहीं कि गिरता रुपया भारत के लिए एक बड़ी सिरदर्दी है, लेकिन फिलहाल अपने नियंत्रण में बहुत कुछ नहीं है। ऐसे में कोई हैरानी नहीं कि रुपये में गिरावट का स्तर और बढ़े। यदि सब कुछ बेहतर रहता है तो अगले साल मार्च तक रुपया संभलकर अपने तार्किक स्तर पर वापसी कर सकता है।
Rani Sahu
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