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देश में अजब $फक़ीरी का आलम है बॉस। कबीर साहिब ने तो सिर्फ कहा था, हमने कर दिखाया। उन्होंने कहा था, ‘कबीरा खड़ा बाजार में, लिए लुकाठी हाथ। जो घर फूंके आपनौ, चले हमारे साथ।’ शायद यही लोकतंत्र की ख़ूबी है कि लोग जानते-बूझते हुए भी कुछ अच्छा पाने की आस में ऐसे $फक़ीर के साथ चलते हुए अपना घर स्वयं फूंक देते हैं जो उनके पास आने से पहले सैंकड़ों लोगों के घरों को फूंककर आपको अपने साथ चलने के लिए आमंत्रित कर रहा हो। आप भी उसके साथ चलते हुए यह बोलने में गर्व महसूस करते हैं कि ‘आई मौज फक़़ीर की दिया झोंपड़ा फूंक।’ लेकिन मज़े की बात है कि यह $फक़ीर सालों पहले महलों में रहने के ख़वाब लिए अपना झोंपड़ा छोड़ कर भाग आया था। फि़तूर उसका था, फुज़़ूल में लोग अपना घर फूंकने के बाद ख़ुद का ही $फालतू तमाशा देखने में एक दशक से मशग़ूल हैं। बक़ौल एक शायर लोग केक की $िफक्र में अपने हाथ से रोटी गँवा बैठते हैं। ऐसे लोग ही पाँच किलो राशन के लिए लम्बी क़तारों में लगते हैं। पर डर है कि मुफ़्त की आदत के लत में बदलने के बाद जल्द ही लोगों की ये क़तारें छीना-झपटी पर उतर आएंगी। बस! पैंट-कोट की चाह में अब लंगोट उतरना बाक़ी है। उसके बाद हम सभी सच्चे $फक़ीर हो जाएंगे। वैसे भी $फक़ीर का चाह कितनी, एक अँगुल की गाँठ जितनी। ऐसी चाह रखने से किसी और पोटली में गाँठ लगाने की ज़रूरत नहीं रहती।
इसलिए आपने देखा होगा कि $फक़ीर के पास अपना कुछ नहीं होता। पर चालीस लाख की घड़ी और दस लाख का सूट पहनने वाला $फक़ीर अपने साथ जिस झोले को ले जाने की बात करता है, उसमें उन बैंकों के एटीएम और चैक बुक होंगी, जिसमें पीएम केयर फंड, राफेल डील और बैंक के माफ किए गए अरबों रुपये जमा होंगे। उनकी $फक़ीरी भले ओढ़ी हुई थी। लेकिन हमारी $फक़ीरी कोई आम $फक़ीरी नहीं। हम जन्मज़ात $फक़ीर हैं, थे और रहेंगे। अगली बार कोई और मसीहा गाते हुए हमारे सामने से निकलेगा और हम उसके साथ गाते हुए चल पड़ेंगे, ‘एक मसीहा आया है, एक मसीहा आया है।’ लेकिन यह $फक़ीर वास्तव में महान है। अगर नहीं होता तो चाय की टपरिया छोडक़र सेंट्रल विस्टा में रहने के लिए पैदा नहीं होता। वह सेंट्रल विस्टा में रहेगा जबकि आम लोग अपना सेंटर खो चुके हैं। अगर नहीं खोया होता तो शायद आज उसके मन की बात नहीं सुन रहे होते। दूसरों की बात सुनते हुए दीन-हीन स्वर में गाना शुरू कर देते हैं- तारो हे प्रभु अब की बार। प्रभु कभी धरा पर नहीं उतरते किन्तु कोई $फक़ीर आकर फिर हमारा लंगोट खींच कर ले जाता है। कभी मन के भीतर उतरे होते तो शायद लंगोट में नहीं घूम रहे होते। जब भी किसी राम राज्य में धोबी लोकतंत्र के पहरुए हो जाते हैं, न किसी सीता की लाज बचती है और न किसी लव-कुश को रहने को घर मिलता है। लेकिन राजनीति की यही विशेषता है कि लोकतंत्र के नाम पर स्वार्थ की किरचों से राम राज्य को सजाया जा सकता है।
राजनीति के टुच्चेपन को लोकतंत्र की आड़ में छिपाया जाता है, जिनका टुच्चापन छिप जाता है, वे देश की सेवा करते हुए दस सालों में कभी छुट्टी नहीं लेते। उनका सोना-जागना, खाना-पीना, कपड़े बदलना, चुनाव और पार्टी का प्रचार करना, जंगल सफ़ारी में फ़ोटो खींचना, किसी अपने की अंत्येष्टि में शामिल होना वग़ैरह, सब देश सेवा में शामिल होता है। कई बार खय़ाल आता है कि क्या संतों की छाप-तिलक और चिलम खींच भी प्रभु भजन का ही हिस्सा हैं। शायद लोग इसीलिए भोले शंकर को बूटी के साथ जोड़ते हैं। लेकिन महिलाओं और मजदूरों के बारे में कभी नहीं कहा जाता कि वे कभी छुट्टी नहीं लेते। कहते हैं कि आदमी अपना पहला पेशा और आखिरी प्यार कभी नहीं भूलता। इसलिए $फक़ीर नहीं भूल पाए हैं कि वे आज भी प्रचार सेवक हैं, प्रधान सेवक नहीं।
पीए सिद्धार्थ
स्वतंत्र लेखक
By: divyahimachal
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