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अब हाथरस की घटना पर उत्तर प्रदेश सरकार की किरकिरी को देखें तो इसके मूल में एक बात नजर आती है। इस मूल बात को अगर भाजपा समझ सके तो शायद इस तरह के संवेदनशील, सामाजिक मुद्दों पर जनता के आक्रोश से भविष्य में बच सकती है। इस मामले की सीबीआइ जांच घोषित हो चुकी है। हाथरस की बेटी इस दुनिया में नहीं रही और उसकी हत्या सहित बाद में जोड़ी गई दुष्कर्म की धाराओं में चार आरोपी जेल में भी हैं। अब गांव के दूसरे लोगों की बातें सामने आने से इस पूरे घटनाक्रम का शीर्षासन होता दिख रहा है, लेकिन यह विषयांतर हो जाएगा। असली बात यही है कि घटना में आरोपियों और घोषित अपराधियों के खिलाफ समय से कार्रवाई के बावजूद उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार ऐसे सामाजिक, संवेदनशील मुद्दों पर गलत तरीके से काम करती क्यों दिखी। विपक्ष की तरफ से इस घटना पर राजनीति हो रही है, इसे कहकर भाजपा पल्ला झाड़ लेना चाह रही है, तो लंबे समय में यह भाजपा के खिलाफ जनमत बनने का आधार बन सकता है।
विपक्ष के पास प्रशासन या पुलिस नहीं होता तो जाहिर है कि विपक्ष की तरफ से उनके नेता ही ऐसे मुद्दों पर आगे होते हैं, लेकिन किसी राजनीतिक दल के सत्ता में आने के बाद पुलिस-प्रशासन के जरिये ही जनता से जुड़े मुद्दों के समाधान की कोशिश लोकतंत्र में खतरनाक परिणाम तक पहुंचा सकती है, जो हाथरस के मामले में भी स्पष्ट दिख रहा है। राज्य में जनमत से आए प्रचंड बहुमत और हाथरस की लोकसभा और सभी विधानसभा सीटों से भाजपा के ही प्रतिनिधि चुने जाने के बावजूद क्या पूरी घटना में भाजपा के किसी जनप्रतिनिधि की भूमिका आपने देखी या सुनी। जनप्रतिनिधि के तौर पर उमा भारती का दर्द ट्विटर के जरिये लोगों ने सुना या फिर बलिया से एक भाजपा विधायक का लड़कियों को संस्कारी बनाने से ऐसी घटनाएं रुक सकती हैं, बताने वाला कुतर्क सुना।
इसे ऐसे देखें कि जिस जनता ने नरेंद्र मोदी के नाम पर 2017 और 2019 में भाजपा के सांसद व विधायक चुनकर भेजे, उन जनप्रतिनिधियों ने उन्हें मत देकर भेजने वाली जनता के बीच जाने की कोशिश ही नहीं की। इसको एक तरह से और देखा जा सकता है कि उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ की छवि इतनी बड़ी हो गई है कि किसी भी जनप्रतिनिधि या भाजपा नेता की छवि शून्य सी हो गई है। इसका फायदा भाजपा को इस तरह मिलता है कि विपक्ष के सभी नेताओं की छवि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के सामने बहुत छोटी नजर आती है, लेकिन इसका दूसरा पहलू यह है कि योगी राज में विधायक और सांसद का कोई महत्व ही नहीं रह गया है।
भाजपा वैचारिक तौर पर प्रतिबद्ध कार्यकर्ताओं की पार्टी है और इस तरह से जनप्रतिनिधियों का महत्वहीन होना उनके बीच चर्चा का विषय बनता है। विकास कार्यो और अपराध के मामलों की समीक्षा वाली लगभग हर बैठक से मीडिया में यह खबर जरूर आती है कि मुख्यमंत्री ने अधिकारियों को बिना डरे, सीधे उन्हें रिपोर्ट करने को कहा है और किसी भी मामले में किसी भी नेता का दबाव बर्दाश्त नहीं होगा, चाहे वह भाजपा का ही क्यों न हो। मीडिया में तो यह खबर योगी आदित्यनाथ की अपराध, भ्रष्टाचार के प्रति जीरो टॉलरेंस वाली छवि के तौर पर पेश की जाती है, लेकिन इसका दूसरा पहलू यह होता है कि स्थानीय से लेकर राज्य मीडिया तक योगी के अलावा किसी भी मंत्री, सांसद, विधायक का महत्व खत्म होता दिखता है। स्थानीय सांसद और विधायक अधिकारियों की कृपा पर आश्रित होने लगते हैं और धीरे धीरे जनता के बीच निष्क्रिय होने लगते हैं।
यही वजह है कि हाथरस मामले में एसडीएम, एडीएम, एसपी, डीएम से लेकर पीड़ित के परिवार से मिलकर आए डीजीपी हितेश अवस्थी और अतिरिक्त प्रमुख सचिव-गृह अवनीश अवस्थी के मिलने की खबरें सबके सामने आईं और मुख्यमंत्री कार्यालय से वीडियो कांफ्रेंसिंग करते मुख्यमंत्री की तस्वीरें भी, लेकिन हाथरस के स्थानीय विधायक, सांसद किसी चित्र में सहायक भूमिका में भी नहीं दिखे। ऐसे संवेदनशील, सामाजिक मामलों में स्थानीय जनप्रतिनिधियों का गायब रहना लोकतंत्र में एक खालीपन पैदा करता है और उसी खालीपन को भरने की कोशिश विपक्ष कर रहा है। हर घटना में साजिश और फंडिंग की बात करके उत्तर प्रदेश सरकार जनप्रतिनिधियों की भूमिका के साथ ही 2017 और 2019 में भाजपा को मिले प्रचंड जनसमर्थन को भी कमतर साबित करने की कोशिश करती दिख रही है। लोकतांत्रिक शासन पद्धति में जनप्रतिनिधियों का अपना महत्व है, जिसे हमें समग्रता में समझना होगा। इस समझ में आई कमी और शीर्ष नेतृत्व की छवि गढ़ने की कवायद में बहुत कुछ गड़बड़ होने लगता है, जो दीर्घकाल के लिए सही नहीं होता।