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कबीर का यह दोहा प्रमाण है कि समाज में मज़हब के नाम पर विभाजन 6-7 सौ साल पहले भी मौजूद तो था
14-15वीं शताब्दी में कबीर ने एक दोहा कहा था – 'हिन्दू कहे मोहि राम पियारा, तुरक कहे रहमाना, आपस में दोउ लरि लरि मुए, मरम न काहू जाना'
कबीर का यह दोहा प्रमाण है कि समाज में मज़हब के नाम पर विभाजन 6-7 सौ साल पहले भी मौजूद तो था. जिसे दूर करने की कोशिश कबीर, रूमी, रैदास सरीखे संत कर रहे थे. यह भी दिखता तो है ही कि सत्ता हमेशा समाज में यह विभाजन बनाए रखना चाहती थी. इसी विभाजन ने ब्रिटिश साम्राज्यवादियों को भारत को अपने अधीन करने में सबसे अधिक सहायता की. वास्तव में यही विभाजन ब्रिटिश शासन का आधारभूत ईंधन भी बना.
ब्रिटिश शासकों ने सत्ता पर अपनी पकड़ को मजबूत बनाये रखने के लिए भारतीयों के बीच फूट डाली और विभिन्न समुदायों के बीच हमेशा के लिए दूरियां पैदा कर दीं. हम बचपन से ही यह सुनते आये हैं कि अंग्रेजों ने 'फूट डालो और राज करो' की नीति अपनाई. लेकिन यह फूट भारत में पहले से मौजूद थी. दिक्कत यह है कि आज भी हम इस विभाजन की उस नीति को समझने की कोई ख़ास कोशिश नहीं करते हैं.
यदि हमने ऐसा किया होता तो धर्म की विविधता, देश के विभाजन का परिमाण उत्पन्न नहीं होता. अंग्रेजों की यह नीति इसलिए कारगर हुई क्योंकि भारत में सांप्रदायिकता और जातिवादी व्यवस्था ने समाज को पहले ही नैतिक रूप से कमज़ोर बना रखा था. जो भावनायें भारत के कोने-कोने में पहले से जमी थीं, अंग्रेजों ने केवल उनमें ईंधन डालने का काम किया. अगर भारत भीतर से असांप्रदायिक और जातिवादमुक्त होता, तो अंग्रेज भारत पर शासन नहीं कर पाते.
सामाजिक भेदभाव का गहरा असर
सामाजिक भेदभाव कितना गहरा नुकसान पहुंचा सकता है, इसका सबसे सटीक उदाहरण है अंग्रेजों द्वारा भारत को अपना उपनिवेश बनाने के लिए हिन्दुओं और मुस्लिम समुदाय के बीच साम्प्रादयिकता का बीज बोना. ब्रिटिश सरकार को लगा कि भारत पर शासन करने के लिए हिन्दू-मुस्लिम और दलित-गैर दलित विभाजन करना उचित होगा. यही कारण है कि ब्रिटिश शासन ने लगातार मुसलमानों के लिए अलग सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्थाएं बनाने की पहल की.
इसके परिणामस्वरूप मुस्लिम समुदाय में यह भावना प्रबल होती गई कि ब्रिटिश सरकार उनके हितों का संरक्षण कर रही है. जबकि कई प्रगतिशील मुस्लिम राजनीतिज्ञ ब्रिटिश सरकार की इस राजनीति को समझ रहे थे और इसमें फंसे बिना आज़ादी की लड़ाई में अग्रणी भूमिका निभा रहे थे.
हिन्दुओं और मुसलमानों को बांटने की रणनीति
1857 के आज़ादी के पहले संग्राम में हिन्दू और मुसलमान कन्धे से कन्धा मिलाकर ब्रिटिश शासन के खिलाफ लड़े थे. तत्कालीन गवर्नर जनरल लार्ड लॉरेंस (1864-69) ने रणनीति बनाई कि 'ब्रिटिश शासन के खिलाफ किसी भी विद्रोह की संभावना खत्म करने के लिये जरूरी है कि हिन्दू और मुसलमानों को बांट दिया जाए. जिस कमजोरी ने हमें (ब्रिटिश शासन को) सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया, वह थी बंगाल की सेना में भाईचारा और एकरूपता'.
इसके बाद ब्रिटिश रणनीतिकारों ने मुसलमानों को ज्यादा मज़बूत, आपसी एकता से जुड़े हुए और ब्रिटिश सरकार के सहयोगी के रूप में प्रस्तुत करना शुरू कर दिया. इसके बाद लार्ड क्रास और लार्ड हैमिल्टन ने भी बंटवारे की नीति को आगे बढ़ाया. 1857 के आंदोलन के बाद उत्तर भारत में उच्चवर्गीय मुस्लिमों के नेता सर सैय्यद अहमद खान का यह मानना था कि किसी भी तरह के स्वराज्य में मुस्लिमों का प्रतिनिधित्व कम ही रहेगा.
इसी स्थिति से बचने के लिए उन्होंने हिन्दू बहुल कांग्रेस से जूझने के ब्रिटिश शासन के प्रयासों में मुस्लिमों के सहयोग की प्रतिबद्धता दर्शायी. ब्रिटिश रणनीति ने मुस्लिम समुदाय में अल्पसंख्यक होने से जुड़ी असुरक्षा को आकार दिया. उधर, हिंदुओं के बहुसंख्यक होने के कारण सभाओं और व्यवस्था में हिन्दू प्रतिनिधि बहुमत में होने वाले थे. सन 1885 में कांग्रेस के गठन से यह संभावना और प्रबल हो गई कि जब भी भारत आज़ाद होगा, तब व्यवस्था पर कांग्रेस का नियंत्रण होगा.
सैयद तुफैल अहमद मंगलोरी की किताब 'मुसलमानों का रोशन मुस्तकबिल' में उल्लेख है कि अलीगढ़ महाविद्यालय के प्राचार्य थियोडोर बेक (मोहम्मडन एंग्लो-ओरिएंटल डिफेन्स एसोसियेशन आफ अपर इंडिया के संस्थापक सचिव) ने वर्ष 1893 में कहा था कि 'देश में हो रहे प्रतिरोधों (कांग्रेस और अन्य राष्ट्रवादी संगठन ब्रिटिश शासन का विरोध कर रहे थे) का सामना करने और लोकतांत्रिक सरकार के गठन को रोकने के लिए यह जरूरी है कि मुस्लिम समुदाय और ब्रिटिश एक हों.
लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था इस देश की जरूरतों और स्वभाव के अनुरूप नहीं है. अतः हम सरकार और एंग्लो-मुस्लिम गठबंधन की वकालत करते हैं'. दूसरी तरफ कांग्रेस शुरू से हिन्दू, मुस्लिम पारसी, सिख और ईसाई बुद्धिजीवियों को साथ लेकर धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवाद की रूपरेखा गढ़ने की कोशिश करती रही.
वैश्विक परिदृश्य और कांग्रेस-लीग की करीबी
वर्ष 1906 में आल इंडिया मुस्लिम लीग की स्थापना हुई. यह वर्ष 1930 तक मुस्लिम समुदाय की मुख्य प्रतिनिधि बन गई और वर्ष 1947 में भारत के विभाजन की मुख्य सूत्रधार बनी. इस दौरान एक महत्वपूर्ण घटना घटी. वर्ष 1912-13 में बाल्कन युद्ध में ब्रिटेन ने तुर्की को सहायता प्रदान नहीं की और युद्ध के कारण यूरोप में उसकी शक्ति कमज़ोर हुई. तुर्की के सुल्तान को दुनिया भर के मुस्लिम समुदाय में खलीफ़ा माना जाता था इसलिए भारतीय मुसलमानों के लिए भी यह एक संवेदनशील विषय था.
ब्रिटेन की भूमिका के चलते मुस्लिम लीग ने भारत में स्वतंत्रता आंदोलन की अगुवाई कर रही भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का साथ देने का निर्णय लिया. मुस्लिम लीग के कलकत्ता अधिवेशन में यह निर्णय लिया गया कि भारत में अनुकूल स्वशासन की स्थापना के लिए मुस्लिम लीग अन्य दलों के साथ सहयोग कर सकती है, लेकिन यह सुनिश्चित करना होगा कि भारतीय मुसलमानों की अस्मिता, हितों और सम्मान की सुरक्षा हो. यहां से कांग्रेस और मुस्लिम लीग के मत एक दूसरे के अनुकूल हुए.
उधर अली बंधुओं ने महात्मा गांधी से भारत में ब्रिटिश सरकार के खिलाफ जन आंदोलन शुरू करने का आग्रह किया क्योंकि ब्रिटिश सरकार ने तुर्की के सुल्तान को हटाने का प्रयास किया था. महात्मा गांधी ने इसे अवसर माना और खिलाफत आंदोलन की शुरुआत की. बहरहाल उस वक्त जिन्ना ने इसे मुस्लिम कट्टरता को संरक्षण देने की कोशिश माना था और जिन्ना ने गांधी जी चेताया था कि उन्हें मुस्लिम समाज के धार्मिक नेताओं और उनके अनुयाइयों में अन्धानुकरण और कट्टरता को प्रोत्साहित नहीं करना चाहिए.
भारत शासन अधिनियम 1919
वर्ष 1919 में ब्रिटिश सरकार ने भारतीय शासन व्यवस्था में बदलाव के नाम पर मोंट-फोर्ड सुधार के नाम से नया भारत शासन अधिनियम 1919 लागू किया. सरकार का तर्क था कि इस सुधार कार्यक्रम के माध्यम से वे भारत की शासन व्यवस्था में भारतीयों की सहभागिता बढ़ा रही है और ज्यादा प्रतिनिधित्व सुनिश्चित कर रही है. इसके पहले यानी वर्ष 1861 और 1909 के अधिनियम प्रतिनिधित्व आधारित शासन व्यवस्था के लिए प्रावधान प्रस्तुत करते थे.
उस व्यवस्था में कुछ विभाग चुने हुए मंत्रियों के हाथों में दिए गये, किन्तु क़ानून और व्यवस्था, भू राजस्व और वित्त सरीखे बेहद महत्वपूर्ण और संवेदनशील विभाग गवर्नर और उनकी कार्यकारी परिषद के अधीन रखे गये. परिषद में मुख्य रूप से दो ब्रिटिश और दो भारतीय सदस्य शामिल थे, लेकिन गवर्नर को अंतिम निर्णय लेने का पूरा अधिकार था. भारत में इसी व्यवस्था के खिलाफ प्रतिरोध था और इसी प्रतिरोध को देखते हुए ब्रिटिश सरकार ने मोंट-फोर्ड सुधार की प्रक्रिया शुरू की.
मोंट-फोर्ड सुधारों ने सम्प्रदाय के आधार पर प्रतिनिधित्व की व्यवस्था की. अगस्त 1920 में महात्मा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने इन सुधारों को नकार दिया.
पूर्ण प्रांतीय स्वायत्तता और गांधी का इनकार
वर्ष 1920-21 में असहयोग आंदोलन की भूमिका बन रही थी. ब्रिटिश सरकार के प्रति विरोध का वातावरण चरम पर था. उसी समय वेल्स के प्रिंस भारत की यात्रा पर आने वाले थे. महात्मा गांधी ने उनके यात्रा के बहिष्कार का आह्वान किया. इसी समय बम्बई में हिंसा की घटनाएं भी घटीं. गांधी जी ने हिंसा के लिए खेद व्यक्त किया लेकिन बहिष्कार का आह्वान वापस नहीं लिया. इससे तत्कालीन वायसराय लार्ड रीडिंग की स्थिति बहुत खराब हो गई.
उन्होंने भारतीय समुदाय का विश्वास जीतने के लिए प्रस्ताव रखा कि वे प्रिंस की यात्रा के एक सप्ताह पहले एक गोलमेज बैठक आयोजित करेंगे और जिसमें ब्रिटिश सरकार के प्रतिनिधि के रूप में वे स्वयं और भारत के राजनीतिज्ञों के प्रतिनिधि के रूप में गांधी जी और अन्य कांग्रेस नेता शामिल होंगे. इस बैठक में वे ब्रिटिश सरकार की तरफ से पूर्ण प्रांतीय स्वायत्तता स्वीकार कर लेंगे और केंद्र में द्वि-शासन व्यवस्था की संभावना पर चर्चा कर लेंगे.
इतना ही नहीं सभी राजनीतिक कैदियों को भी जेल से रिहा कर दिया जाएगा. गांधी जी यह प्रस्ताव स्वीकार करना चाहते थे, लेकिन के. एम. मुंशी लिखते हैं कि 'उन्होंने (गांधी जी ने) यह प्रस्ताव इसलिए स्वीकार नहीं किया क्योंकि कुछ मौलवियों ने उन्हें यह समझाया कि जिन कैदियों को रिहा किया जाएगा, उनमें अली बंधू शामिल नहीं होंगे क्योंकि उन्हें भारतीय दंड संहिता की ऐसी धाराओं में कैद किया गया है, जिनके कारण उन्हें राजनीतिक कैदी नहीं माना जाएगा'.
के. एम. मुंशी ने लिखा है कि 'गांधी जी का वह निर्णय दुर्भाग्यपूर्ण था. यदि वे लार्ड रीडिंग का प्रस्ताव स्वीकार कर लेते तो वास्तव में क्या भारत को स्वायत्तता मिलती, इसका केवल आकलन किया जा सकता है. लेकिन जब आज मैं 45 साल बाद उन घटनाओं को देखता हूं तो मुझे लगता है कि भारत को पूर्ण प्रभुत्व का दर्ज़ा वर्ष 1939 के पहले मिल गया होता, वह भी बिना विभाजन के'.
अप्रैल 1932 में ब्रिटिश प्रधान मंत्री रैम्से मैकडोनाल्ड ने सांप्रदायिक अधिनिर्णय (कम्युनल अवार्ड) घोषित किया. इसमें मुस्लिम, यूरोपीय, सिख, भारतीय ईसाइयों और मुसलमानों के लिए पृथक निर्वाचन की व्यवस्था की गई. इसी व्यवस्था में वंचित समूहों (अनुसूचित जाति/दलित समुदाय) के प्रतिनिधित्व को संरक्षित करने के लिए सदनों में स्थान निर्धारित किये गये, जहां दलितों को अपने प्रतिनिधि चुनने के लिए मतदान का विशेषाधिकार प्रदान देने का प्रस्ताव दिया गया.
इस मसले पर गांधी और डा. बी. आर. आंबेडकर के बीच असहमति थी, और महात्मा गांधी ने इसके खिलाफ अनशन शुरू कर दिया था. उधर, मोहम्मद अली जिन्ना ने कांग्रेस के नेताओं, के. एम. मुंशी, सरोजिनी नायडू, भूलाभाई देसाई, के. एफ, नारीमन. आदि से बात करके उन्हें यह समझाने की कोशिश की कि कांग्रेस को सांप्रदायिक अधिनिर्णय के प्रस्ताव को स्वीकार कर लेना चाहिए, इससे मुसलमान भी साथ आ जाएंगे.
महात्मा गांधी ने इस अधिनिर्णय को दलितों को हिन्दू समाज से अलग किये जाने की राजनीति के रूप में देखा था, लेकिन मुसलमानों के सांप्रदायिक अधिनिर्णय और पृथक निर्वाचन पर कांग्रेस में अस्पष्टता थी. राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के तूफ़ान का प्रभाव यह हुआ कि जिन्ना मुसलमानों को एक अलग राजनीतिक सांप्रदायिक समूह के रूप में देखने लगे थे. वर्ष 1937 के चुनावों से उभरी परिस्थितियों में कांग्रेस यह चाहती थी कि मुस्लिम लीग का कांग्रेस में विलय हो जाए.
इसके चलते मुस्लिम लीग और ख़ास तौर पर जिन्ना ने सांप्रदायिक राजनीति की धार को पैना करना शुरू कर दिया था. कई कांग्रेस नेता हिन्दू-मुस्लिम विभाजन से भी असहमत थे, लेकिन उन्हें इस मामले में गांधी की ओर से किसी निर्णायक पहल का इंतजार था. लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष भारत की अवधारणा को न तो हिन्दू महासभा स्वीकार कर रही थी और न ही आल इंडिया मुस्लिम लीग; लेकिन भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस इसी अवधारणा को चरितार्थ करना चाहती थी.
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
सचिन कुमार जैन निदेशक, विकास संवाद और सामाजिक शोधकर्ता
सचिन कुमार जैन ने पत्रकारिता और समाज विज्ञान में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त करने के बाद समाज के मुद्दों को मीडिया और नीति मंचों पर लाने के लिए विकास संवाद समूह की स्थापना की. अब तक 6000 मैदानी कार्यकर्ताओं के लिए 200 प्रशिक्षण कार्यक्रम संचालित कर चुके हैं, 65 पुस्तक-पुस्तिकाएं लिखीं है. भारतीय संविधान की विकास गाथा, संविधान और हम सरीखी पुस्तकों के लेखक हैं. वे अशोका फैलो भी हैं. दक्षिण एशिया लाडली मीडिया पुरस्कार और संस्कृति पुरस्कार से सम्मानित.
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