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By: divyahimachal
प्रतीक ढूंढती सियासत के लिए कुछ चेहरे, कुछ मोहरे चाहिए। कुछ जाति, कुछ धर्म चाहिए। कुछ आरक्षण, कुछ आवरण चाहिए और यही है समाज को बिसात बनाकर चुनाव को परिस्थितियों की हरारत से बचाने का प्रयत्न। हिमाचल के बाद कर्नाटक की जीत ने कांग्रेस के नैन-नक्श बदल दिए हैं और इसी से शुरू होता है एक ऐसा सफर जो आगे चलकर हर तिलक को तौल कर चलेगा। चारों तरफ फिर सामाजिक न्याय की बस्तियों में नेताओं के पांवों के निशान घूमेंगे और चुना जाएगा कोई न कोई समीकरण। हिमाचल में सरकार के आने के बाद कांग्रेस ने शिमला नगर निगम क्या जीता चुनाव के चबूतरे ऊंचे हो गए। ये चबूतरे आगामी लोकसभा चुनाव के लिए छांव का काम करेंगे या इस पड़ाव के आगे फिर आंधियों का खतरा है। तब तक सुक्खू सरकार का प्रदर्शन, गारंटियों का मोहत्सव और क्षेत्रीय संतुलन का मंचन सामने आ चुका होगा। ऐसे में किसी भी सरकार के लिए पांच साल के सफर में हर कदम पर चुनाव की फांस है, तो पार्टी के लिए सत्ता की स्तुति में अपना मचान सजाना पड़ता है। बहरहाल इस समय मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू का प्रशासनिक इतिहास राजधानी शिमला से निकलकर कांगड़ा में अपना दिल आजमाना चाह रहा है। सरकार अपने ही अंकगणित से बाहर निकलकर कांगड़ा को अपने तरीके से परिभाषित करती आई है। पहले मंत्रिमंडल के गठन और उसके बाद पर्यटन राजधानी के रूप में ‘सैलानी संस्कृति’ के पंखों पर सवार होकर सरकार ने अपने लिए विश्वास का मैदान चुना है।
राजनीतिक तौर पर जब सरकार निचले क्षेत्रों में आती है तो संपर्क के क्षितिज व सत्ता के पैमाने भी लबालब होने के लिए अरदास करते हैं। ये तमाम परंपराएं छह बार के मुख्यमंत्री रहे वीरभद्र सिंह को डालनी पड़ीं, तो इन्हीं राहों पर प्रेम कुमार धूमल को उतरना पड़ा। जयराम ठाकुर कुछ कतराए, तो उनकी सरकार की प्राथमिकताएं भी निचले क्षेत्रों में अपनी रंगत नहीं दिखा पाईं। हिमाचल का सबसे बड़ा राजनीतिक पिछड़ापन कांगड़ा के वजूद में ही घर नहीं कर गया, बल्कि संसदीय क्षेत्र में चंबा का होना वहां भी उदासीनता को भर रहा है। हमारे पास चंडीगढ़ में रह रहे एक वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी दिनेश डोगरा का पत्र आया है, जो कांगड़ा के पिछडऩे पर सरकार से अरदास कर रहे हैं। दिनेश डोगरा कुल्लू से चंडीगढ़ की यात्रा में आ रहे गुणवत्ता पूर्ण बदलाव की तारीफ करते हुए पूछते हैं कि इसी तरह कब चंडीगढ़ से धर्मशाला का सफर तीन घंटे का होगा। यह उन त्रासदियों का जिक्र है जो भौगोलिक अपेक्षाओं का सत्यनाश कर देता है। इसी प्रदेश में निजी विश्वविद्यालय खुलते-खुलते केवल सोलन जिला में संपत्तियां बनकर बिखर गए। आज तक की तमाम औद्योगिक क्रांतियां सोलन, सिरमौर और ऊना तक ही सिमट गईं और कांगड़ा का मैदानी इलाका चिट्टे की शरण में गुम होता गया। रेलवे विस्तार के सपने कांगड़ा से छिटक कर कहीं दूर चले गए। आखिर कांगड़ा पिछड़ा इसलिए क्योंकि नेता पिछड़ते गए या पीछे हटा दिए गए, कमोबेश हर सरकार में।
दो बार शांता कुमार जरूर मुख्यमंत्री बने, अंतत: वह भी पालमपुर नगर निगम के दायरे या प्रेस विज्ञप्तियों के किनारे तक ही सिमट गए। मुख्यमंत्री आगमन से पूर्व एक जयंती समारोह में स्वागत कक्ष अगर इंतजार करते रह गए, तो कलह के बादलों के नीचे गर्मी का सबूत ढूंढ रहा कांगड़ा पसीना-पसीना है। यही पसीना सरकार में मंत्रियों के पद ढूंढ रहा है, लेकिन न कांगड़ा का कद और न ही पद बाहर आ रहा है। बहरहाल पहली बार शीतकालीन प्रवास से कहीं अधिक गर्मी व ऊर्जा लेकर आया मुख्यमंत्री का यह लंबा दौरा अपने साथ कई संभावनाओं के अक्स लिए नब्ज टटोल रहा है। अगर सरकार को अपनी जीत का एहसास कांगड़ा को कराना है तो भी ग्यारह विधानसभा क्षेत्रों की उत्साहित जनता को मुख्यमंत्री के दीदार चाहिए और ये बार-बार चाहिए। कांगड़ा प्रवास या दौरा कहीं न कहीं ज्ञात या प्रत्याशित राजनीति से आगे निकलकर मुख्यमंत्री की ओर देख रहा है, ताकि पता चले कि कांगड़ा में सरकार का होना अब किस करवट बैठेगा। राष्ट्रीय स्तर पर पिछड़ा वर्ग की राजनीिित पर कुशलता से खेल रही कांग्रेस के लिए कांगड़ा भी ऐसी प्रयोगशाला है जहां हिमाचल के जातीय समीकरण हर विधानसभा क्षेत्र में रंग बदलते हैं। देखना यह होगा कि इस क्षेत्र के सियासी पिछड़ेपन को मुख्यमंत्री के दौरे से कितनी राहत, कितना आश्वासन मिलता है।
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