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कश्मीर में हुर्रियत कांफ्रैंस के दोनों धड़ों पर केन्द्र द्वारा प्रतिबन्ध लगाये जाने की संभावनाओं के बीच हमें अफगानिस्तान में आये परिवर्तन को भी संज्ञान लेते हुए समग्रता से विचार करना होगा और फिर किसी नतीजे पर पहुंचना होगा। हुर्रियत कांफ्रैंस जम्मू-कश्मीर के अलगाववादी विशेषकर ऐसे क्षेत्रीय राजनीतिक दलों का संगठन रही है जो कश्मीर की समस्या को त्रिपक्षीय बताते रहे हैं । उनका यह तर्क भारत की सरकारों के गले इस वजह से नहीं उतरा है क्योंकि ऐतिहासिक रूप से कश्मीर की समस्या भारत-पाकिस्तान के बीच का ऐसा मसला रही है, जिसमें पाकिस्तान की हैसियत एक हमलावर देश की रही है। अतः 5 अगस्त 2019 को भारत की संसद के माध्यम से वर्तमान मोदी सरकार ने जम्मू-कश्मीर की स्थिति में जो भी परिवर्तन किया वह भारत का अन्दरूनी मामला था और इससे पाकिस्तान का कोई लेना-देना नहीं था। इस दिन जम्मू-कश्मीर राज्य का 370 अनुच्छेद के तहत दिया गया विशेष दर्जा समाप्त करके उसे दो केन्द्र शासित प्रदेशों में विभक्त कर दिया गया। बेशक इस मुद्दे पर राज्य के अधिकतर राजनैतिक दलों और जनता की मांग पर विचार हो सकता है कि जम्मू-कश्मीर राज्य को लद्दाख से अलग एक पूर्ण राज्य का दर्जा दिये जाने पर गौर किया जाना चाहिए मगर इस बात पर नहीं कि इस मामले में किसी भी सूरत में पाकिस्तान से किसी तरह की बातचीत की जानी चाहिए। आखिरकार सम्पूर्ण जम्मू-कश्मीर भारतीय संघ का अभिन्न व अटूट हिस्सा उसी तरह है जिस तरह भारत का कोई अन्य राज्य। देश के संविधान के अनुसार केन्द्र की सरकार को भारत की एकता व अखंडता को लेकर परिस्थितियों के अनुसार आवश्यक फैसला करने का पूरा अधिकार है। इसी के तहत केन्द्र ने जम्मू-कश्मीर की हैसियत में बदलाव लाने का फैसला किया था। मगर राज्य की पूर्व मुख्यमंत्री व पीडीपी पार्टी की नेता श्रीमती महबूबा मुफ्ती को यह स्थिति नहीं भा रही है और वह हुर्रियत कांफ्रैंस के अधिकतर नेताओं के जेल में होने की वजह से अलगाववादी दलों का समर्थन हासिल करना चाहती है और इस राज्य में उपस्थित भारतीय सेना की भूमिका को विवादास्पद बना देना चाहती हैं। हाल ही में उन्होंने अफगानिस्तान के तालिबान द्वारा किये गये तख्ता पलट को लेकर कश्मीर के सन्दर्भ में जिस तरह की टिप्पणी की है वह देश विरोधी गतिविधियों के समानान्तर रखी जा सकती है। हकीकत यह है कि हुर्रियत कांफ्रैंस पिछले तीस सालों से इस राज्य की जनता के प्रतिनिधित्व के नाम पर भारत की संघीय। सत्ता को चुनौती देती रही है और भारत की जमीन पर खड़े होकर पाकिस्तानी रवैये की वकालत करने से पीछे नहीं रही है। हुर्रियत कांफ्रैंस ने हर संजीदा मौके पर भारतीय पक्ष में पलीता लगाने का प्रयास ही नहीं किया बल्कि पूरी दुनिया के सामने जम्मू-कश्मीर की ऐसे तस्वीर पेश करने की कोशिश की जिसमें कश्मीरी जनता जबरिया दबाव में फंसी नजर आये। पाकिस्तान द्वारा प्रायोजित दहशत गर्द तंजीमों के मानवता विरोधी कारनामों तक को इसने भारतीय सेना के विरुद्ध विद्रोह तक की संज्ञा दी। जबकि इस राज्य में बाकायदा लोगों द्वारा चुनी हुई सरकारें काबिज होती रहीं। यही वजह रही कि पाकिस्तान की तरफ से हमेशा हुर्रियत कांफ्रैंस को कश्मीरी अावाम के रहनुमा का दर्जा देने की नाकाम कोशिश की गई और भारत से हर बार द्विपक्षीय वार्ता करने से पूर्व हुर्रियत कांफ्रैंस के नेताओं से बातचीत करने की तजवीज रखी गई। यह स्थिति कोई भी स्वतन्त्र व खुद मुख्तार देश बर्दाश्त नहीं कर सकता अतः 2014 में केन्द्र में सरकार बदलने के साथ इस रवायत को छोड़ दिया गया और जब भी पाकिस्तान के राजदूत से लेकर इसके विदेशमन्त्री ने हुर्रियत नेताओं से बातचीत करने की कोशिश की तो केन्द्र सरकार ने पाकिस्तान के साथ अपनी वार्ता को ही रद्द कर दिया। कश्मीर को लेकर जो बुनियादी बदलाव हमें 2014 के बाद से देखने को मिला उसकी परिणिती 5 अगस्त 2019 को हुई। अतः अब सवाल यह है कि जम्मू-कश्मीर के लोगों की अपेक्षाओं औऱ आकांक्षाओं की आपूर्ति भारतीय संविधान के अन्तर्गत इस प्रकार हो कि इस राज्य के हर आदमी में अपने भारतीय होने का गौरव अधिक जोश के साथ जागृत हो। जाहिर है यह कार्य किसी तरह की जोर-जबर्दस्ती से नहीं बल्कि लोगों में अपने संवैधानिक अधिकारों के प्रति जागरूकता पैदा करके ही किया जा सकता है जिसके लिए केन्द्र सरकार प्रतिबद्ध लगती है, परन्तु कुछ लोग जम्मू-कश्मीर की समस्या को हिन्दू-मुस्लिम के चश्मे से देखने के आदी हो चुके हैं जबकि वास्तव में कश्मीरी संस्कृति पूरे भारतीय उपमहाद्वीप की ऐसी अद्वितीय संस्कृति है जिसमें मानवीयता को ही सर्वोपरि रख कर मनुष्य की मजहबी पहचान को महत्व नहीं दिया गया है। मगर हुर्रियत की जहरीली मानसिकता ने कश्मीरियों को धर्म के नाम पर भी बरगलाने की कोशिशों में भी कभी कोई कमी नहीं छोड़ी इसका प्रमाण यह है कि हुर्रियत ने कभी भी पाकिस्तान के कबजे में पड़े हुए कश्मीर को छुड़ाने की बात नहीं की जबकि यह राग कश्मीरियत का अलापती रही। जिस कश्मीरी अवाम ने 1947 में पाकिस्तान बनने का सख्त विरोध किया था हुर्रियत उसी पाकिस्तान का 'कलमा' पढ़ने में मशगूल रही।