- Home
- /
- अन्य खबरें
- /
- सम्पादकीय
- /
- चेहरों के बदलते
बदलते हुए समाज विज्ञान की शोध में नए आंगन खुलते रहते हैं। नई शोध का विषय पिछले दिनों एक यह भी रहा है कि कार्टून बनाने वाले क्यों यह सच बांचते नज़र आते हैं, जब वे देश के महाभ्रष्ट लोगों और सब कुछ समेट कर अपनी जेब में डाल लेने वाले लोगों को भारी भरकम और तोंदियल बताते हैं तो जंचता है। महामारी के इस प्रकोप में मुफ्त लंगर और राशन बांटने वाले की कतारों में जो लोग अंतहीन नुक्कड़ तक खड़े नज़र आते हैं, वे तो लगता है अभी गिरे कि गिरे क्योंकि सब सींकिया बदन और फटेहाल हैं। होने भी चाहिएं। आजकल बेकारी, बीमारी और निकम्मेपन के दिनों में भिक्षा पात्र लेकर भिक्षा देहि के नारों के साथ द्वार-द्वार भटकना एक ऐसा आमफहम सत्य हो जाता है कि लगता है कि अगर इसे देश का नया घरेलू उद्योग घोषित कर दिया जाए तो अतिकथन न होगा। सरकारी स्तर पर आम जनता के इन कठिन दिनों में मुफ्तखोरी को दया धर्म कह कर दुरूह समस्याओं का एक सरल समाधान मान लिया गया है।
सोर्स- divyahimachal