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- द्रौपदी मुर्मू से...
नवभारत टाइम्स: उम्मीदों के अनुरूप ही एनडीए की ओर से राष्ट्रपति पद की प्रत्याशी द्रौपदी मुर्मू गुरुवार को विशाल मतों के अंतर से विजयी घोषित की गईं। इस प्रकार देश को 15वां राष्ट्रपति मिला। वह देश की दूसरी महिला राष्ट्रपति और पहली आदिवासी राष्ट्रपति होंगी। इस मौके पर देश को अब तक मिले राष्ट्रपतियों की सूची पर नजर डालें तो इसमें एक से एक गौरवान्वित महसूस कराने वाले नाम मिलते हैं। डॉ. राजेंद्र प्रसाद और सर्वपल्ली राधाकृष्णन से लेकर रामनाथ कोविंद तक सभी ने राष्ट्रपति पद पर रहते हुए किसी न किसी रूप में अपने व्यक्तित्व की छाप छोड़ी है। मगर कुछ छापें ऐसी गहरी पड़ी हैं, जो याद दिलाती हैं कि यह संवैधानिक पद पद भले ही शासन से जुड़े रोजमर्रा के फैसलों से ऊपर और राजनीतिक सत्ता से अलग हो, इसमें निहित प्रभाव इसे विशिष्ट बनाए रखता है। यह प्रभाव ही इसे असाधारण परिस्थितियों में राष्ट्र का मार्गदर्शन करने और सामान्य परिस्थितियों में उसे प्रेरित करने की क्षमता से लैस करता है। कुछ राष्ट्रपतियों के कार्यकाल में विवाद भी बेशक हुए हैं, लेकिन ये विवाद राष्ट्रपति पद की शोभा नहीं बढ़ा सके। पद की शोभा बढ़ी उन राष्ट्रपतियों के कार्यकाल में, जिन्होंने इसकी मर्यादा और संवैधानिक सीमाओं का ख्याल रखते हुए अपनी जिम्मेदारियों का निर्वाह किया।
इस लिहाज से देखें तो राष्ट्रपति पद की गरिमा सुरक्षित रखते हुए सरकार पर विवेक का अंकुश बनाए रखने की जो मिसाल दसवें राष्ट्रपति के आर नारायणन ने पेश की, वह आगे के राष्ट्रपतियों के लिए प्रेरणा बनी। यही नहीं, 11वें राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने जिस तरह अपने व्यक्तित्व की सादगी से असंख्य देशवासियों और खास तौर पर बच्चों, विद्यार्थियों को प्रभावित किया, वह भी अद्वितीय है। इन उदाहरणों की रोशनी में द्रौपदी मुर्मू के शुरू होने वाले कार्यकाल को देखें तो उनसे अपेक्षाएं ढेर सारी हैं। वह ऐसे समय राष्ट्रपति पद की जिम्मेदारी संभाल रही हैं, जब देश में तीखा राजनीतिक विभाजन है। विपक्ष और सत्ता पक्ष के मतभेद सामान्य राजनीतिक मतभेदों की सीमा से आगे जा चुके हैं। दोनों अक्सर एक-दूसरे को देश के लिए खतरनाक करार देने की हद तक चले जाते हैं। ऐसे में द्रौपदी मुर्मू का व्यक्तित्व एक ऐसे सर्वसमावेशी रूप में सामने आया, जहां राजनीतिक विरोध क्षीण पड़ते दिखाई देने लगे। जो पार्टियां विपक्षी प्रत्याशी का चयन करने में बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रही थीं, वे भी द्रौपदी के नाम पर अपना विरोध शिथिल करने को मजबूर हुईं और कुछेक दलों ने तो बाकायदा उनके पक्ष में वोट तक किया। दलीय राजनीति के गुणा-भाग में इसे चाहे जिसका भी फायदा या घाटा बताया जाए, राष्ट्र और लोकतंत्र के लिए सर्वोच्च पद पर ऐसे उदात्त व्यक्तित्व का आना एक अच्छी खबर है।