सम्पादकीय

विस्तारवादी नीतियां और युद्ध

Subhi
28 Feb 2022 3:45 AM GMT
विस्तारवादी नीतियां और युद्ध
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रूस पूर्वी यूरोप की तरफ बढ़ रहा है। उसकी नजर पूर्वी यूरोप के उन देशों पर है जो कभी सोवियत रूस का हिस्सा हुआ करते थे। इसी विस्तारवाद के खिलाफ यूरोपीय संघ और नाटो जैसे देश बोल तो रहे हैं

संजीव पांडेय: रूस पूर्वी यूरोप की तरफ बढ़ रहा है। उसकी नजर पूर्वी यूरोप के उन देशों पर है जो कभी सोवियत रूस का हिस्सा हुआ करते थे। इसी विस्तारवाद के खिलाफ यूरोपीय संघ और नाटो जैसे देश बोल तो रहे हैं, लेकिन उसे रोकने में विफल हैं।आखिरकार जिसकी आशंका थी, वही हुआ। रूस ने यूक्रेन पर हमला कर दिया। यूक्रेन की राजधानी कीव और दूसरे शहरों में जंग जारी है। सैन्य और रिहायशी इलाकों में मिसाइलों और लड़ाकू विमानों से हमले हो रहे हैं और सड़कों पर दौड़ते टैंक गोले बरसा रहे हैं। सैनिकों के साथ नागरिक भी मारे जा रहे हैं। जाहिर है, हालात बेहद गंभीर हैं।

रूस की आक्रमकता ने पश्चिमी देशों को भी भारी चिंता में डाल दिया है। इसीलिए अमेरिका सहित पश्चिमी देश यूक्रेन को सैन्य मदद देने से बच रहे हैं। यूक्रेन को उम्मीद थी कि इस संकट में यूरोपीय देश और अमेरिका सैन्य हस्तक्षेप करते हुए उसके साथ खड़े हो जाएंगे। लेकिन रूसी सैनिकों के हमले के बाद भी अभी तक अमेरिका और उसके सहयोगी देश रूस के खिलाफ आर्थिक प्रतिबंधों से आगे नहीं बढ़ पाए हैं। इस युद्ध से रूस की विस्तारवादी नीतियों का नया युग शुरू हो सकता है। रूस के इस हमले के बाद चीन का भी मनोबल बढ़ना स्वाभाविक है।

यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमीर जेलेंस्की ने अपना दर्द बयां किया है। उन्हें पक्की उम्मीद थी कि रूस के हमले की स्थिति में अमेरिका खुल कर सामने आएगा और उनके साथ खड़ा होगा। लेकिन अभी तक यूक्रेन को अमेरिका, यूरोपीय संघ और ब्रिटेन से सैन्य मदद के मामले में निराशा ही हाथ लगी है। रूस पर आर्थिक प्रतिबंधों को लेकर भी यूरोपीय संघ के देशों में मतभेद हैं, क्योंकि ज्यादा सख्त आर्थिक प्रतिबंधों से यूरोपीय देशों और अमेरिका के हितों पर असर पड़ेगा। अंतिम समय तक फ्रांस और जर्मनी रूस से बातचीत के माध्यम से समस्या का हल निकालने की कोशिश करते रहे।

लेकिन सवाल यह है कि नाटो और अमेरिका यूक्रेन को सैन्य मदद देने में हिचकिचा क्यों रहे हैं? देखा जाए तो इसके कुछ कारण साफ नजर आते हैं। एक बड़ा कारण यह है कि यूरोप के दो बड़े देश फ्रांस और जर्मनी रूस से सैन्य टकराव नहीं चाहते। उधर, अमेरिका भी यूक्रेन में सैन्य हस्तक्षेप से बच रहा है, क्योंकि उसके अपने राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े हित यूक्रेन में सीधे तौर पर नहीं है। यूक्रेन में अमेरिका का कोई सैन्य अड्डा नहीं है।

इसलिए अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन सीधे तौर पर रूस से टकराव लेने को तैयार नहीं है। हालांकि कई पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपतियों ने उन देशों में भी हस्तक्षेप किया ही, जहां सीधे तौर पर अमेरिका के राष्ट्रीय सुरक्षा हित प्रभावित नहीं हो रहे थे। 1995 में बिल क्लिंटन ने यूगोस्लाविया में सैन्य हस्तक्षेप किया था। 2011 में बराक ओबामा ने लीबिया के गृह युद्ध में सीधा दखल दिया था। तब इन राष्ट्रपतियों ने अपनी कार्रवाई का आधार मानवीय मूल्यों की सुरक्षा और मानवाधिकारों को बताया था।

यह सच्चाई है कि यूक्रेन और अमेरिका के बीच सालाना व्यापारिक कारोबार पांच अरब डालर के करीब है, जो बहुत ज्यादा नहीं है। उधर, बाइडेन पर अमेरिकी जनता का भी दबाव है। अमेरिकी जनता रूस से सीधा सैन्य टकराव नहीं चाहती। फिर, अमेरिका इस समय महंगाई, बेरोजगारी, अर्थव्यवस्था के संकट जैसी समस्याओं से जूझ रहा है। इस कारण बाइडेन के सामने घरेलू मोर्चे पर भी चुनौतियां कम नहीं हैं।

बाइडेन ने अपनी विदेश नीति में आंशिक बदलाव भी किया है। एक वक्त में बाइडेन इराक और बाल्कन में सैन्य हस्तक्षेप के समर्थक थे। लेकिन अब वे खुद यूक्रेन में सैन्य हस्तक्षेप से बच रहे हैं। इसकी वजह यह भी है कि अमेरिका ने अफगानिस्तान में जिस तरह अपने हाथ जलाए हैं, उससे बाइडेन ने सबक लिया है। पर यूक्रेन ये सब नहीं समझ पाया और अमेरिका के भरोसे रूस से टकराव ले बैठा।

रूस-यूक्रेन विवाद में अमेरिका के रवैये से ताइवान जैसे देश हैरान हैं। ताइवान को लग रहा है कि यूक्रेन पर हमले से चीन का भी मनोबल बढ़ेगा। चीन भी ताइवान पर सैन्य कार्रवाई कर सकता है और उसे चीन में शामिल कर सकता है। चीन भी रूस की विस्तारवादी नीतियों को मौन समर्थन दे रहा है, ताकि ताइवान पर कल अगर चीन हमला कर दे तो कोई खुल कर सामने नहीं आए।

इसमें कोई संदेह नहीं कि यूक्रेन पर रूस के हमले से अमेरिकी कूटनीति को चुनौती मिली है। अमेरिका के साथ संधियों के माध्यम से जुड़ रहे कई देश परेशान हैं। भारत को भी सोचना पड़ेगा कि हिंद-प्रशांत जैसे क्षेत्र में क्वाड के भरोसे कितना आगे बढ़ा जाए? भारत की परेशानी यह भी है कि रूस भारत का लंबे समय से भरोसेमंद सहयोगी रहा है। लेकिन पिछले कुछ दशकों में भारत अमेरिका के करीब चला गया। रूस और चीन के मजबूत होते रिश्तों भी भारत की चिंता बढ़ा रहे हैं। वहीं रूस ने पाकिस्तान से नजदीकी बढ़ा भारत की परेशानी और बढ़ा दी है। हाल ही में इमरान खान रूस के दौरे पर गए। तभी यूक्रेन को लेकर भारत तटस्थता की नीति पर चल रहा है। भारत को पता है कि चीन से विवाद की स्थिति में रूस ही मजबूत मध्यस्थ हो सकता है।

दुनिया में एक बार फिर परमाणु शक्तिसे संपन्न देश विस्तारवादी नीतियों का अंजाम दे रहे हैं। एशिया में चीन लगातार अपने पड़ोसियों को धमका रहा है। इतिहास के पन्नों का उदाहरण देकर वह पड़ोसी मुल्कों की सीमा में घुसपैठ कर रहा है। उधर, रूस पूर्वी यूरोप की तरफ बढ़ रहा है। उसकी नजर पूर्वी यूरोप के उन देशों पर है जो कभी सोवियत रूस का हिस्सा हुआ करते थे। इसी विस्तारवाद के खिलाफ यूरोपीय संघ और नाटो जैसे देश बोल तो रहे हैं, लेकिन उसे रोकने में विफल हैं।

यूक्रेन को लेकर रूस का आक्रामक रवैया ऐसे ही नहीं है। वह किसी भी सूरत में यूक्रेन को नाटो में शामिल नहीं होने देना चाहता। अगर अमेरिका तथा पश्चिमी देश यूक्रेन को नाटो कर लेने में कामयाब हो गए तो यूक्रेन में नाटो सैनिकों की तैनाती का रास्ता साफ हो जाएगा। रूस के लिए यही सबसे बड़ा खतरा है। हालांकि यूरोपीय देशों ने रूस को भरोसा दिलाया है कि यूक्रेन नाटो का सदस्य नहीं बनेगा।

लेकिन रूस को इस पर जरा भरोसा नहीं है। पुतिन का तर्क है कि 1990 में अमेरिका ने भरोसा दिलाया था कि नाटों का विस्तार पूर्वी यूरोप में नहीं होगा, लेकिन अमेरिका ने वादा तोड़ा। 1997 में पूर्वी यूरोप के कई देश नाटो के सदस्य बन गए। इस समय पांच हजार नाटो सैनिक बाल्टिक देशों और पोलैंड में तैनात हैं। इसलिए रूस अब यूक्रेन पर हमला करके ही चुप नहीं बैठेगा बल्कि वह यूक्रेन में अपनी कठपुतली सरकार बनाने का प्रयास करेगा।

इसके बाद पुतिन के निशाने पर वे देश होंगे जो 1997 में नाटो के सदस्य बने। रूस नाटो से यह भी मांग करेगा कि इनकी सदस्यता समाप्त की जाए और 1990 से पहले की स्थिति बहाल की जाए। अगर नाटो इस पर सहमत नहीं होगा तो रूस कहेगा कि नाटो इन देशों से अपनी सैन्य तैनाती को खत्म करे। लेकिन नाटो इस पर आसानी से कहां सहमत होने वाला है। जाहिर है, पूर्वी यूरोप वैश्विक तनाव का नया अड्डा बन जाएगा।

हालांकि परिस्थितियां रूस के भी अनुकूल नहीं है। घरेलू मोर्चे पर राष्ट्रपति पुतिन के विरोधियों ने मोर्चा खोल रखा है। यूक्रेन के खिलाफ छेड़े गए युद्ध से रूसी नागरिक भी नाराज हैं। रूस की अर्थव्यवस्था भी इतनी मजबूत नहीं है कि यूरोपीय संघ, अमेरिका और कनाडा जैसे देशों के आर्थिक प्रतिबंधों को लंबे समय तक झेल सके।

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