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- खतरे में अस्तित्व
Written by जनसत्ता: विश्व जितनी तीव्र गति से मशीनीकरण के दौर में आगे बढ़ता जा रहा है, हम आधुनिक हथियारों की होड़ में लगे हुए हैं, लेकिन पर्यावरण संरक्षण को लेकर लापरवाह हो गए हैं। वृक्षों को तीव्र गति से काटा जा रहा है कभी ऊंची इमारतें बनाने के लिए तो कभी निजी हित की पूर्ति के लिए। इस वर्ष मार्च के महीने में हर वर्ष की अपेक्षा अधिक गर्मी हुई, जिसका कारण आर्दता में हुई 20 से 25 फीसदी बढ़ोतरी रही।
मौसम विभाग के अनुसार मार्च महीने में उत्तर भारत में शून्य फीसद वर्षा दर्ज हुई। दिन-प्रतिदिन मनुष्य अपने हितों को पूरा करने के लिए प्रकृति से खिलवाड़ कर रहा है। भू-जल का स्तर गिरता चला जा रहा है, कुओं तालाबों को जमीन की अत्यधिक भूख में समाप्त किया जा रहा है, जिससे भू-जल रिचार्ज के प्राकृतिक संसाधनों की संख्या समाप्त हो रही है। नदियों का जल दूषित हो गया है। यह हमारी नैतिक जिम्मेदारी बनती है कि हम अपने भविष्य को लेकर सचेत हों, अन्यथा वह दिन दूर नहीं होगा जब मानव अस्तित्व को बचाने के लिए किसी विशेष योजना पर काम करना पड़े।
कुछ बोलियां ऐसी हैं, जिनके बोलने वाले कुछ लोग अक्सर बोली में अपशब्दों का प्रयोग तकिया कलाम के रूप मे करते हैं। चाहे वे जानवरों के लिए या इंसान के लिए बोली गई हो। ये बोली में समाए अपशब्द गुस्से के समय या बराबरी के लोगों या आपसी बैरभाव निकालते समय जाहिर करते हैं। इस पर जरा भी गौर नहीं किया जाता कि बच्चों पर इसका असर कितना होगा। बोली में विकृति को दूर नहीं किया जाएगा तो उस विकृति से लैस बोली अपने आप विलुप्त होने के रास्ते पर चली जाएगी।
विडंबना यह है कि कुछ ही लोग हैं, जो बोली के सम्मान के लिए आगे आए हैं। वे इस दिशा में गीत, कहानी, लघु कथा, हायकू, दोहा, कविता आदि के माध्यम से कार्यक्रम आयोजित कर और उनके द्वारा लिखित कृतियों का विमोचन कर प्रचार-प्रसार मे लगे हुए हैं। ऐसे लोगों की संख्या बहुत कम है। जब तक बोली में सम्मान का समावेश नहीं होगा, तब तक भाषाओं का सही आधार भी नहीं मजबूत बनेगा, क्योंकि कड़ियां एक दूसरे से जुड़ी हुई हैं। शुद्ध भाषा के अस्तित्व को अंग्रेजी के मिश्रण से हम भुगत ही रहे हैं।
हमें बड़ा गर्व महसूस होता है कि हम अंग्रेजी भाषा का समावेश अपनी मातृभाषा में करने लगे हैं। लेकिन यह एक भटकाव है। शुद्ध बोली और भाषा लिखने, बोलने, पढ़ने के प्रयोग का संकल्प लें, ताकि भावी पीढ़ियों को भी बोली और भाषा कोयल की कूक-सी मीठी लगे। साथ ही बच्चों, बड़ों को भी साहित्य के सही आधार की बेहतर समझ हो सके।