सम्पादकीय

विवादों के समाधान का अनुकरणीय उदाहरण, वर्तमान राजनीति के लिए भी बड़ा सबक

Rani Sahu
6 July 2022 2:20 PM GMT
विवादों के समाधान का अनुकरणीय उदाहरण, वर्तमान राजनीति के लिए भी बड़ा सबक
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पिछले कुछ सप्ताह से घटनाचक्र बहुत तेजी से घूमा है। इस घटनाचक्र के केंद्र में मोटे तौर पर ज्ञानवापी प्रकरण ही रहा है

विकास सारस्वत

सोर्स- जागरण

पिछले कुछ सप्ताह से घटनाचक्र बहुत तेजी से घूमा है। इस घटनाचक्र के केंद्र में मोटे तौर पर ज्ञानवापी प्रकरण ही रहा है। चाहे इस प्रकरण पर छिड़ी जोरदार बहस हो या फिर इसी बहस के दौरान नुपुर शर्मा की टिप्पणी के विरोध में सड़कों पर उतरकर किया जाने वाला उत्पात हो या उस पर इस्लामी देशों की अनावश्यक प्रतिक्रिया या फिर अमरावती और उदयपुर की दिल दहलाने वाली घटनाएं- इन सब घटनाओं के मूल में कहीं न कहीं ज्ञानवापी प्रकरण ही है। इस संवेदनशील मामले में वाराणसी की जिला अदालत में अगली सुनवाई 12 जुलाई को होगी। उस दिन कोई फैसला भी आ सकता है। इस फैसले की प्रतीक्षा करते हुए हमें इसकी अनदेखी नहीं करनी चाहिए कि इस बीच कुछ ऐसा भी घटा, जो सनसनीखेज तो नहीं, परंतु भारतीय सभ्यता की दृष्टि से दीर्घकालिक महत्व का है।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 18 जून को गुजरात के पावागढ़ में कालिका मंदिर पर ध्वजारोहण किया। हिंदू आस्था के केंद्रों में प्रमुख स्थान रखने वाले 52 शक्तिपीठों में से एक कालिका माता मंदिर में यह ध्वजारोहण 540 वर्ष के उपरांत संभव हो सका। पावागढ़ का यह काली मंदिर मध्यकालीन मुस्लिम शासकों द्वारा तोड़े गए उन हजारों मंदिरों में से एक है, जो असहिष्णुता और कट्टरता के इस्लामी रिकार्ड की याद दिलाता है। सन 1484 में जब चंपानेर पर जयसिंह रावल का शासन था तब गुजरात सल्तनत के तत्कालीन सुल्तान महमूद बेगड़ा ने ग्यारहवीं सदी के कालिका मंदिर को तोड़ कर शिखर के ठीक ऊपर अदनशाह पीर की दरगाह बनवा दी थी। कालांतर में कनकाकृति महाराज दिगंबर भद्रक ने अठारहवीं शताब्दी में मंदिर का पुनर्निर्माण तो कराया, परंतु दरगाह बने होने की वजह से शिखर न बन सका। इस तरह मंदिर में पूजा-अर्चना तो जारी रही, परंतु चूंकि शिखर खंडित था, इसीलिए उस पर कभी ध्वजारोहण न हो सका।
सन 2017 में गुजरात सरकार द्वारा गुजरात पवित्र यात्रा धाम विकास बोर्ड के तत्वावधान में जब इस मंदिर के भव्य पुनर्निर्माण के लिए 140 करोड़ रुपये की कार्ययोजना को मंजूरी दी तो यह मामला गुजरात उच्च न्यायालय तक पहुंच गया। वादी पक्ष ने मंदिर निर्माण रोकने के लिए अल्पसंख्यक समुदाय की भावनाएं आहत होने से लेकर उपासना स्थल (विशेष उपबंध) अधिनियम, 1991 का सहारा लिया, परंतु न्यायालय द्वारा कोई राहत न मिलने पर समझौते के माध्यम से इस विवाद का समाधान निकाला गया।
समझौते के तहत अदनशाह पीर की दरगाह को मंदिर के ही प्रांगण में दूसरी जगह स्थानांतरित करने का फैसला हुआ। इस तरह भव्य मंदिर का पुनर्निर्माण संपन्न हुआ। यह एक ऐसा काम है, जिसकी न केवल सराहना की जानी चाहिए, बल्कि उसे एक नजीर की तरह देखा जाना चाहिए। पावागढ़ मंदिर का पुनर्निर्माण धार्मिक महत्व तो रखता ही है, साथ ही भारतीय संस्कृति के लिए भी यह एक गौरवशाली क्षण है। यह पुनर्निर्माण, राम मंदिर, काशी कारिडोर और केदारनाथ मंदिर में हुए निर्माण कार्यों की उस शृंखला का हिस्सा है, जो भारतीय सभ्यता की आहत हुई अस्मिता और क्षय हो रहे वैभव को वापस पाने का सुदीर्घ और धैर्यशाली प्रयास है। सांस्कृतिक पुनरुत्थान के जिस प्रयोजन की अपेक्षा स्वतंत्रता प्राप्ति के तुरंत बाद की गई थी और जिसकी एक झलक सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण में देखने को मिली, वह आज 75 वर्ष बाद प्रधानमंत्री मोदी के कार्यकाल में फलीभूत होती दिख रही है।
देखा जाए तो एक तरह से अहिल्याबाई होल्कर के शासनकाल के 250 वर्ष बाद भारत अपनी लुटी-पिटी सांस्कृतिक विरासत को फिर से सहेजने का प्रयास कर रहा है। यह प्रयत्न इसलिए भी अनोखा है कि आईबेरिया प्रायद्वीप, वर्तमान में स्पेन, के बाद भारत विश्व का पहला ऐसा राष्ट्र है जो इस्लामी आक्रमण द्वारा थोपे गए अपमान के प्रतीकों से मुक्ति पाते हुए धीरे-धीरे ही सही, पर सांस्कृतिक धारा को पलटता दिख रहा है।
पावागढ़ मंदिर के नवनिर्माण ने वर्तमान राजनीति को भी एक बड़ा सबक दिया है। यद्यपि पावागढ़ की तुलना अयोध्या, काशी या मथुरा विवादों से करना इसलिए ठीक नहीं होगा, क्योंकि सुन्नी बहुल भारतीय मुस्लिम समाज में बहुत बड़े वर्ग में मजारों के प्रति उदासीनता रहती है। फिर भी यह मानना होगा कि मंदिर-मस्जिद या मंदिर-मजारों के विवाद यदि 'पंथनिरपेक्ष' नेताओं और वामपंथी बुद्धिजीवियों के दखल से परे रहें तो उनके सौहार्दपूर्ण समाधान की गुंजाइश बनती है। पावागढ़ विवाद सुर्खियों से भी दूर रहा और बुद्धिजीवी एवं इतिहासकारों की मक्कारी से भी। वरना वह कुख्यात महमूद बेगड़ा जिसने सोमनाथ, द्वारकाधीश, रुद्र महालय और पावागढ़ सहित अनेकों मंदिरों का विध्वंस किया, वह मतांध सुल्तान जिसने जूनागढ़ के अपने ही जागीरदार राव मंडलिका को यह बताकर उस पर हमला किया कि वह अपने हिंदू होने की सजा पा रहा है और गुजरात सल्तनत का वह क्रूर शासक जिसने जूनागढ़ के राजा भीमा का एक-एक अंग काटकर अहमदाबाद के 12 द्वारों पर टांग दिया, उसे भारतीय इतिहासकारों ने कला प्रेमी और हिंदू-मुस्लिम एकता का प्रतीक ठहराने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
यह अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है कि यदि पावागढ़ सेक्युलर नेताओं की लड़ाई का अखाड़ा बनता और वामपंथी इतिहासकार तथ्यों का गला घोंटकर इस विवाद में मुस्लिम समुदाय को बरगलाने के बहाने ढूंढ़ते तो यह पुनर्निर्माण कितना मुश्किल था। भारत में ऐसे अनेक विवाद हैं जो इस प्रकार की सूझबूझ और समझदारी से सुलझाए जा सकते हैं। बशर्ते प्रयास ईमानदार हों और विध्वंस के प्रतीकों में कोई समुदाय अपना सामाजिक अभिमान न ढूंढ़े। जैसा कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने ध्वजारोहण के समय कहा, 'सदियां बदलती हैं, युग बदलते हैं परंतु आस्था का शिखर शाश्वत रहता है।' करोड़ों लोगों की आस्था को उसका उचित सम्मान दिलाना किसी भी न्यायप्रिय राष्ट्र की जिम्मेदारी है। पावागढ़ की तर्ज पर यदि अन्य प्रमुख मंदिरों को स्वेच्छा से वापस दे दिया जाए तो आज का मुस्लिम समुदाय ऐतिहासिक गलतियों का सुधार कर सकता है। आवश्यकता यह भी है कि समाधान ऐसे निकलें जिसमें भविष्य के संघर्ष के बीज न हों। स्पष्ट है कि इसके लिए विस्थापित मस्जिद या मजारों को उचित दूरी पर स्थानांतरित करना होगा।
Rani Sahu

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