सम्पादकीय

बाज़ारू लोगों की खुदाई

Rani Sahu
14 Sep 2022 6:40 PM GMT
बाज़ारू लोगों की खुदाई
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लोग बाज़ारू हो गए हैं, इसकी खबर तो हमें थी। आपसे काम पडऩे पर आपको अपना खुदा बनाने में उन्हें देरी नहीं लगती। काम निकल जाने के बाद आपकी छवि को एक बदरंग सनसनी बना बेचने में भी इन्हें देर नहीं लगती। तब जैसे उनका रोम-रोम कहता है, देखो हम भी कभी इनके नज़दीक रहे हैं। अब तो हमने उनकी छतरी की खिल्ली-खिल्ली उड़ा दी, माशा अल्लाह, अब तो हमें कुछ पहचान दे दो। देखो इधर-उधर बाजार सजे हैं। इन बाजारू लोगों को क्या कहोगे? अपनी मेहरबानों की छवि पर जासूसी अंदाज़ से काला रंग फेंक कर उसे नीलाम कर देने की कोशिश को लगे लोग। लेकिन, भाई जान पर्दे के पीछे इनका सब कारोबार चलता है। बाज़ारू होना ही इनका जीना और बाज़ारू होना ही इनका मरना होता है। लेकिन साहिब दुनिया तरक्की कर रही है। एक से अनेक हो जाने के प्रयास में लगी है। खूबसूरती की बात आज कौन करता है? खूबसूरती के बाज़ार आजकल चलते नहीं। श्रमिक दिवस मनाने की औपचारिकता चाहे जितनी कर लो, लेकिन मेहनतकश मजदूरों की नियति तो यही है कि उनके हाथ से काम छीन कर उनके पेट की रोटी को संशय में डाल कर उन्हें तपती सडक़ पर नंगे पांव, उनका घर छीन कर दूसरे घर की तलाश के लिए दर-बदर कर दो। कितना बड़ा नया सच है यहां इनके जीने का, काम करने का, लिखने का, कला समर्पण का जीवन भर का प्रयास इनसे छीन लो। इनके गिर्द अनजान, अजनबी, निर्मम बाजार सजा दो। ये इसमें न जी सकें और न मर सकें। इनकी दम टूटती सांसों की नींव पर अपने काइसांपन का नया बाज़ार खड़ा करो। इस नए बाज़ार का नाम है 'भय का बाज़ार'। ऐसे रहस्यमय विषाणु देश की रग-रग में फैलने दो कि सही मूल्यों का, विकास का, प्रगति का दम भरने वाला, अपने नवनिर्माण के, नए समाज के, सपने देखने पर शर्मिंदा हो जाए।

अंधी और सूनी गलियों में रहस्यमय विषाणुओं की कृपा से दम तोड़ते हुए लोगों को एक आंकड़े में तबदील होते हुए देखो, देखते रहो। मरते हुए सपनों की बंदी हुई मंदी की गिरफ्त में दुनिया पहले ही आ गई थी। अब यहां जितने चाहे मुकाबले के संदेश दे लो, लेकिन टूटती हुई सांस वाली दुनिया कहती है, 'यह दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है।' पिछली गुजरी हुई महामारी ने दुनिया में भय का एक बाज़ार रच दिया। यह बाज़ार नया तो नहीं। इतिहास के पन्ने पलट जाओ, सिकंदर जैसे महान लोग हर युग में अवतरित होते हैं और दुनिया को अपने कदमों में झुका देने के लिए भय का एक नया बाज़ार रच देते हैं। मौत की साजिश की तरह इनका हरहराता हुआ समुद्र बेरोकटोक आगे बढ़ता जाता है और अपनी संक्रामक बीमारी और बर्बरता के डर के कलेवर में मेहनतकशों की मेहनत अच्छा जीवन जीने के आदर्शो और नैतिक मूल्यों का साथ निभाने के दम को अपने अजगर पाश में समेटता जाता है। भय का बाज़ार सजा है और इसमें घबराए हुए लोग बच निकलने की बैसाखियां तलाश रहे हैं। इस भय के बाज़ार के चलन निराले हैं। वे उपचार के साधन भी बताते हैं, पर इन पर भरोसा न करने का उपदेश भी देते हैं। उपदेश के पीछे छिपा एक दिलासा भी मिलता है कि सार्थक नतीजे निकल ही आएंगे, लेकिन पूर्ण रोग मुक्ति की उम्मीद तब भी मत रखना, लो कर लो बात। इसलिए इन छोटे-बड़े भय के विषाणुओं की गिरफ्त में आए हे इन्सान, इन विषाणुओं के साथ जीने की आदत डालो। भय के इस बाज़ार में जीना ही अब तुम्हारी नियति है और उस लालटेन के पीछे-पीछे चलना तुम्हारी परिणति। मीलों चलने के बाद भी अंधेरा नहीं हटे, तो क्या गम? तुम चलो तो सही।

सुरेश सेठ

sethsuresh25U@gmail.कॉम

By: divyahimachal

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