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- सबके अपने-अपने आंबेडकर...
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इसलिए वह मार्क्स का पथ त्यागकर बुद्ध का मार्ग अपनाने का आग्रह करते रहे।
हम हर साल 14 अप्रैल को किस आंबेडकर का स्मरण करना चाहते हैं? उस आंबेडकर का, जो कहते थे कि धर्म परिवर्तन करते हुए ऐसा कुछ नहीं करूंगा, जिससे वरिष्ठ हिंदुओं का कोई नुकसान हो। जब उन्होंने बौद्ध धर्म अपनाया, तब एक वरिष्ठ हिंदू नेता ने कहा था, 'हमें डर था कि डा. आंबेडकर कहीं लंबी छलांग न मारें, वह लोगों को इस्लाम या ईसाई धर्म में न ले जाएं, परंतु उन्होंने बौद्ध धर्म अपना कर ऊंची छलांग मारी।' हिंदू नेता आंबेडकर के इस कदम से खुश थे कि वह ईसाई नहीं बने, मुसलमान भी नहीं बने। दरअसल आंबेडकर ने देखा था कि हिकारत से बचने के लिए अस्पृश्य समाज तरह-तरह से अपने नाम बदल कर अपनी जाति छिपाने का प्रयास करता है। आंबेडकर ने कहा कि इस तरह नाम बदलने की अपेक्षा धर्म बदलना अधिक सम्मानजनक है।
आंबेडकर तो अनेक हैं। किसे कौन-से आंबेडकर चाहिए? वंचित समाज को योद्धा आंबेडकर चाहिए, जिन्होंने अधिकारों की, समानता की वकालत की, संस्थाओं और सरकारों में अनुपातिक प्रतिनिधित्व सुनिश्चित कराया, जिनके संघर्ष से राष्ट्रीय आरक्षण नीति का विचार अस्तित्व में आया। धर्मिक भेदभाव और सामाजिक बहिष्कार के शिकार लोगों को बोधिसत्व आंबेडकर पसंद आए। 19वीं सदी का कलंक 20वीं सदी के हमारे राष्ट्र निर्माताओं ने धोया, जिनमें आंबेडकर सबसे आगे रहे। पर विद्या का वह प्रकाश खासकर राष्ट्र की माता-बहनों के जीवन को आलोकित क्यों नहीं कर पाया? आंबेडकर का हर रास्ता समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व को स्थापित करने के लक्ष्य को समर्पित था।
संविधान की प्रस्तावना में 'हम भारत के लोग' उसी संकल्प को आत्मसात कर देश को समाजवाद की ओर अग्रसर करने की प्रेरणा देता था। आज आंबेडकर की स्मृति में बड़े-बड़े स्मारक, गली-चौराहों पर मूर्तियां और कार्यालयों में फोटो लगाने का चलन तो खूब है, लेकिन जिन लोगों में आंबेडकर के प्राण बसते थे, उनकी सामाजिक दुर्दशा, शिक्षा और सेवा के अवसरों में कटौती देश को किस ओर ले जा रही है? दुखद यह है कि उच्च शिक्षा के क्षेत्र में आज ऐसे भी महारथियों की उपस्थिति है, जो अपनी कुपढ़ता के चलते अफवाह फैलाते हैं कि आंबेडकर ने संविधान में कोई मौलिक योगदान नहीं किया, दुनिया भर के संविधानों को उतार कर रख दिया। संविधान तो निर्मात्री सभा/ड्राफ्टिंग कमेटी ने बनाया था। आंबेडकर को तो शोभा के लिए चेयरमैन बना दिया गया था।
काश, समिति के सदस्यों ने अपने दायित्वों का सच में निर्वाह किया होता, तो टी.टी. कृष्णामचारी ने संविधान सभा में यह नहीं कहा होता कि, 'संविधान का निर्माण करने वाले चुनिंदा सात सदस्यों में से एक ने त्यागपत्र दिया, एक का देहांत हो गया, एक अमेरिका चला गया, एक रियासतों के कामकाज में व्यस्त रहा, एक-दो सदस्य दिल्ली से दूर रहते थे, उनका स्वास्थ्य ठीक न रहने से वे उपस्थित न रह सके। अंजाम यह हुआ कि संविधान निर्माण का सारा भार अकेले डॉ. आंबेडकर को ही उठाना पड़ा।' इस टिप्पणी से डॉ. आंबेडकर की कर्मठता प्रमाणित होती है या अकर्मण्यता, यह बताने की जरूरत नहीं। संविधान में संशोधन करने की सुविधा को रचनात्मक व सकारात्मक दृष्टि से लिया जाता है या नकारात्मक?
आंबेडकरी समाज का जीवन स्तर उठ रहा है या गिर रहा है? विभिन्न राजकीय और गैर राजकीय क्षेत्रों के शीर्ष पदों पर उनको नेतृत्व में भागीदार बनाया जा रहा है या नहीं? या संविधान का चरित्र बदल कर चोर दरवाजे से उसके अंगों की काट-छांट कर उसे निष्प्रभावी और केवल कागजी दस्तावेज भर बनाकर धर्मग्रंथों की तरह पूजनीय वस्तु बना दिया जाए। आज की सामाजिक विडंबना यह है कि लोग सच्चे क्रियाशील राष्ट्रवादी आंबेडकर को दलितवादी बनाने पर आमादा रहते हैं, अनुसूचित जातियों/जनजातियों के कल्याण संबंधी सामाजिक न्याय की व्यवस्था करने भर को ही उनका समूचा योगदान कहकर उन्हें भुला दिया जाता है। उन्होंने 'हिंदू कोड बिल' के जरिये भारतीय महिलाओं के जीवन में अभूतपूर्व और मूलभूत बदलाव कर दिया था।
महिला सशक्तीकरण की दिशा में पुरुषों के बराबर महिला के वोट का मूल्य स्थापित किया गया, जबकि तब दुनिया के कई देशों में ऐसा नहीं था। आज राजनीति में, उच्च शिक्षा में, न्यायपालिका में, कला-सिनेमा और मीडिया में महिलाओं की बढ़ती भागीदारी आंबेडकर की कृतज्ञ है क्या? पिता की संपत्ति में पुत्री का अधिकार, अंतर्जातीय/अंतर्धामिक विवाह करने की आजादी कोई मामूली कार्य है क्या? महिलाओं को समान अधिकार दिलाकर, प्रसूति अवकाश व समान सेवा के लिए समान वेतन नियम लागू कराकर, संपत्ति में अधिकार दिलाकर, स्त्रियों के विधिक सशक्तीकरण का रास्ता डॉ. आंबेडकर ने खोला था। लेकिन आंबेडकर का सपना आज कहां है? आज जब अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट में अश्वेत महिला जज बन गई हैं, तब भारत में महिला आयोगों की अध्यक्ष तक अनुसूचित महिलाएं नहीं हैं। आंबेडकर को राष्ट्र निर्माताओं से यह आशा रही कि वे समता, स्वतंत्रता और बंधुता की स्थापना स्वेच्छया करेंगे। वे खून खराबा-गृहयुद्ध की नौबत नहीं आने देंगे। इसलिए वह मार्क्स का पथ त्यागकर बुद्ध का मार्ग अपनाने का आग्रह करते रहे।
सोर्स: अमर उजाला
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