सम्पादकीय

हर कला को होती है सच्चे रसिक की तलाश

Gulabi
19 Aug 2021 6:58 AM GMT
हर कला को होती है सच्चे रसिक की तलाश
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उस मर्म को छूने का छोर दिया, जिसके सहारे रचना के बुनियादी उसूलों के पास जाया जा सकता है

विनय उपाध्याय, कला समीक्षक, मीडियाकर्मी एवं उद्घोषक।

"हुस्न बेकार है, अगर कोई सराहने वाला न हो". यह शायराना जुमला एक दफ़ा शास्त्रीय गायक पंडित छन्नूलाल मिश्र ने एक पत्रकार के सवाल का जवाब देते हुए बड़े ही कलात्मक अंदाज़ में इस्तेमाल किया था. शास्त्रीय संगीत की गूढ़-गंभीर प्रस्तुति, श्रोताओं की रूचि-अरूचि और उसके असर-बेअसर पर उनके अपने तर्क थे. कहना था कि राग से अगर बैराग हो जाए और श्रोता बीच महफिल से उठकर जाने लगे तो गायक को गाना बंद कर देना चाहिए. काशी के बुजुर्ग गान मनीषी के इस वक्तव्य ने संगीत ही नहीं, सृजन की बहुतेरी विधाओं के आसपास फैले आस्वाद के धरातल को नई नज़र से देखने का कौतुहल जगाया. उस मर्म को छूने का छोर दिया, जिसके सहारे रचना के बुनियादी उसूलों के पास जाया जा सकता है

वह क्या रहस्य है कि एक रचनाकार के चित्त में अनुभूति की तरंगें उठती हैं, जिन पर तैरते हुए वह अभिव्यक्ति के किनारे तलाशता है. रस, गंध और स्पर्श में आनंद और सुख की चाह में कोई ऐसा अगोचर तत्व है, जो उत्प्रेरक का काम करता है. रचने वाले और श्रोता-दृष्टा के बीच जब यह उत्प्रेरणा किसी बिन्दु पर समान घटित हो, तो इस चमत्कार का आनंद ही कुछ और है. बीज रूप में इसे ही आस्वाद कहा गया है. साहित्य और कलाओं की बहुरंगी दुनिया की असल बुनियाद आस्वाद ही है. हमारे आदिम पुरखे ने जब अपने अस्तित्व को आसमान और धरती के बीच निहारा होगा, तब आंख से आत्मा और कान से चित्त तक एक रोमांचक सिहरन जागी होगी. रस-भाव उमड़ा होगा.
सूरज, चांद, सितारे, बादल, धरती, वन-पर्वत, वनस्पति, पवन, पानी, पंछी ने मिलकर जो सुहाना मंज़र रचा, वही शब्द, ध्वनि, रंग और दृश्य की कलात्मक दुनिया में चला आया. मनुष्य को महसूसने की ताक़त यहीं से मिली. यहीं से कल्पना के पंख फूटे यहीं से प्रकृति को 'अपनी प्रकृति' से रचने की हुमस उसमें जागी. भावों की इसी अभिव्यक्ति की कसक और आज़ादी को हमने कला का नाम दिया. जीवन के नौ रस कला के इसी कलश में छलकते रहे.
रंग-बिरंगा और रसभीना है कलाओं का दामन और दायरा
जैसा जीवन सुदूर फैला हुआ है, बहुरंगी है, कलाओं का दामन और दायरा भी उतना ही रंग-बिरंगा और रसभीना है. ये कलाएं जब हमारे पास हमारे ही भावों को लौटाती हुई, हमारी आंख और मन से संवाद करती हैं, तो हमारे आस्वाद के अलग-अलग आयाम भी खुलते हैं. संगीत, नृत्य, नाटक, रूपंकर यही सब तो है! आस्वाद की ही क्षमता कह लीजिए, जो किसी रचनाकार को बड़ा बनाती है या उसका रचनाकार होना साबित करती है. सबसे पहले रचनाकार आस्वादक ही है. यदि उसका आस्वाद का तत्व कमज़ोर है, या नहीं है, तो वह रचनाकार तो हो ही नहीं सकता. तुलसी ने तो कह ही दिया कि 'नाना पुराण निगमागम'. अर्थात वे उन जगहों पर गये और वहाँ से आस्वाद प्राप्त किया तब रामचरित मानस जैसा महान ग्रन्थ उन्होंने लिखा.
मिट्टी को लोच देने के पहले मिट्टी किसी कलाकार के भीतर लोच पा चुकी होती है. शिल्पी-साहित्यकार शंपा शाह कहती हैं कि कला मनुष्य के भीतर की एक जटिल आवश्यकता है, जिसको वो ठीक-ठीक शब्द भी नहीं दे पाता. जब मैं सिरेमिक करती हूं तो भीतर से प्रश्न आता है- "मैं क्यों करती हूं? यानी अगर मैं कल यह काम करना बन्द कर दूं, तो इससे दुनिया को क्या फ़र्क पड़ जाना है?"
तुर्ग ने अपनी मृत्यु शैय्या पर जब वे थे, तो टालस्टॉय को लिखा था- "उपन्यास लिखना बंद नहीं होना चाहिए." देखिए कि ये क्या ही अजीब समय था, मतलब कला से कैसी अपेक्षाएं थीं, उसकी समाज में कैसी उपस्थिति थी. आज हमें उस तरह से कलाएं महसूस नहीं होती. लेकिन फिर भी, मेरा यह दृढ़ मानना है, चाहे मैं खुद हूं या कोई भी कला हो, अगर वो सचमुच में है, उसमें सचमुच आस्वाद पैदा होना है तो उसे एक बड़ी आन्तरिक जरूरत में से उत्पन्न होना है. कला या कथा बिना ज़रूरत के अगर खड़ी होगी, तो वो कहीं टिक ही नहीं सकती. 'पिठौरा' की हम-आपने कथा सुनी होगी. उसमें यह आता है कि इस संसार में सब कुछ बहुत बढ़िया था. धर्मी राजा का लोक था.
लेकिन, अचानक से लोग हंसने (मनोरंजन) की क्षमता भूल गये थे. उनकी हंसने की क्षमता ही छूट गयी थी. सब कुछ था. धन-धान्य सब था. तो उस हंसी को लौटाने के लिए पिठौरा कुंवर को एक बड़ी यात्रा करनी पड़ी और हिमाली हारदा को लेकर आना पड़ा और हिमाली हारदा ने लोगों के बीच में नर्तन किया, गीत गाये और उससे लोगों में हास्य फिर से उत्पन्न हुआ.
जरूरी है किसी भी समाज के लिए हंसना
एक समाज जिसके पास सब है, वो अगर हँसना भूल जाता है तो कुछ भी नहीं हो पाता. जब उल्लास ही नहीं है, मन में आनन्द ही नहीं है तो क्या होगा! इसलिए नृत्य और संगीत जो हैं, वो उल्लास को लौटाते हैं, जीवन में जीवन के तत्व को लौटाते हैं. कवि-कला रसिक प्रेमशंकर शुक्ल इस विमर्श में जोड़ते हैं कि कलाएं तो खुद ही एक तरह की प्रवक्ता हैं. चाहे आप कविता के मुख से सुनिये, चाहे कहानी के, चाहे अन्य कलाओं को देखिए, दरअसल जो हमारी रूपाकार वाली कलाएं हैं, जिसमें हमें रूप सीधे दिखता है, उसमें जब मैं खुद भी देखता हूं तो एक तरह से रूप में होकर भी रूप से बाहर जाने का प्रयत्न दिखता है कलाकार का. कलाकार का नहीं, बल्कि कला का सबसे अधिक. सभी कलाओं में दुख है, पीड़ा है, प्रेम है, पराजय है, करुणा है. इन्हीं क्षणों में आदमी सर्जना की तरफ जाता है.
प्रेमशंकर बताते हैं कि 'भीम बैठका' पर पिछले दिनों उन्होंने कुछ काम किया. वहां आदिमानव के चित्र देखे. लगता है कि वही कलाएं हैं, जो आदि मानव को भीतर आलोड़ित हुई होंगी. कलाओं के साथ तो यह है ही कि वह दुख, पीड़ा, पराजय या एकान्त क्षणों में, जब आप खुद से खुद मिलते हैं. अपना रूप धरती हैं. मनुष्य के लिए सबसे बड़ी चुनौती उसकी मनुष्यता है. जब वह अपनी मनुष्यता में फडफड़ाता है, परेशान होता है तब वह सर्जना की तरफ दौड़ता है.
दरअसल जो सर्जना का क्षण होता है, वो इतना रहस्यमयी है कि बहुत बार सर्जक को, कवि को ये ठीक-ठीक नहीं पता होता कि वह जो रच रहा है, उसके पीछे कौन-सी शक्ति काम कर रही है! यानि कोई अलौकिक शक्ति काम कर रही है या कुछ वह तत्व जो हमसे बड़ा है. रचना की खूबसूरती का रहस्य ही है कि जो पता नहीं है रचने वाले को और जो कर रहा है, उसको खुद ही नहीं पता है कि हम जिधर जा रहे हैं, हम पहुंचेंगे कहां? एक रचनाकार अंधेरे में गांठें लगाता है. उसका अपना ताना-बाना करता है और एक चीज़ तैयार होकर आती है. एक अच्छी रचना सबसे पहले अपने रचनाकार को ही चमत्कृत कर देती है कि देखो, तुम्हारे भीतर ये था और मैं इस तरह आकर खड़ी हो गयी.
रहस्य का होना ही सच्चे अर्थों में सृजन का सुख भी है और उसकी अस्मिता या अस्तित्व के लिए उसका रहस्यात्मक होना जरूरी भी है. यदि पहले से सब पता हो तो वो एक तरह का फ्रेमवर्क हो जायेगा. रचना अनिश्चितता है इसलिए वो रचना दीर्घजीवी भी है और मनुष्य लगातार उसकी तरफ जा रहा है. उसका कोई आकर्षण है. रहस्य ही उसका चुम्बक है, जो खींचता है आपको.
कलाओं की परस्परता का उभरा हुए पक्ष
हमारा जो स्पन्दन है, चाहे वो शब्द में आये, चाहे रंग में आये, रूप में आये, अनुभूति में आये, अनुभव में आये यदि हमने उसको सच्चे अर्थों में पकड़ लिया है, छू लिया है, हमने उसका स्पर्श कर लिया है तो एक नयी चीज़ वो लायेगा ही. पूरे एक दिन का जीवन आप देखिए तो सवेरे से शाम तक कितने तरह से हैं. कभी आप प्रेम में होते हैं, कभी पीड़ा में, कभी पराजय में, कभी अवसाद में, कभी मुश्किलों में, कहीं आपके अपने जूझने की क्षमता. खुद चमत्कृत होते हैं. लगता था कि भंवर से निकल नहीं पाउंगा, लेकिन निकल जाता है व्यक्ति.
इस बीच कलाओं की परस्परता का एक पक्ष उभरा है. यह विचार मांगता है, लेकिन कला का जोड़ने वाला पक्ष यही है. मसलन हम देखते हैं कि पहाड़ी चित्रशैली जो है, कांगड़ा के जो चित्र हैं वो रागों पर आधारित हैं. जाहिर है कि चित्रकार ने कुछ महसूस किया है कि किसी राग को जो मूलतः संगीत की वस्तु है, उसे चित्र में भी उकेरा जा सकता है. वो 'गीत गोविन्द' के पदों पर रचे गये हैं, यानी कि निश्चित ही उसका कविता से सम्बन्ध है. हम स्कल्पचर्स देखते हैं खजुराहो के, कोणार्क के. सूर्य की मूर्ति है कोणार्क में. उसकी चार मूर्तियाँ हैं. चारों सूर्य के अस्त होते और अन्य प्रहरों के अनुसार भंगिमाएं लिए.
यदि आस्वाद-तत्व हमारा घनीभूत नहीं होगा, गहरा नहीं होगा तो हम रचना में कोई चीज़ नहीं पकड़ सकते. शिल्पी हो, चाहे चित्रकार हो, चाहे कवि हो, नाटककार हो, आस्वाद के धरातल से ही अपनी कोई चीज़ उठा सकता है. आकाश देने के लिए आपको एक बेस तो चाहिए. एक ठोस चीज़ जहां से आप अपनी पूरी उड़ान भरते हैं.
इस प्रवाह में शंपा शाह नए संदर्भ जोड़ती हैं. उनका मानना है कि कला आस्वाद के आयामों पर चर्चा करते हुए 'सहृदयी' शब्द बहुत ही महत्वपूर्ण है. इसके बिना कोई क्यों लिखेगा या कोई क्यों कुछ बनायेगा? सच्चे रसिक की तलाश तो हमेशा से रही है. कला होगी ही नहीं यदि रसिक न हो, उसे ठीक से ग्रहण करने वाला न हो. मूर्धन्य साहित्यकार-चिंतक विद्यानिवास मिश्र एक अद्भुत प्रसंग सुनाते हैं. 'गीत गोविन्द' में एक पद आता है. अंधियारी रात है, बादल घिर आये हैं और पूरा वन पार करके बालक कृष्ण को वृन्दावन पहुँचना है. उन्हें डर लगता है. वो अपने पिता से कहते हैं कि मुझे डर लग रहा है जंगल पार करने में. तो नन्द राधा से कहते हैं कि कृष्ण को वहाँ जंगल पार करा दो. पहली बार राधा और कृष्ण वो अँधेरा वन पार कर रहे हैं.
विद्यानिवास जी कहते हैं कि आखिर कृष्ण को क्यों भय लग रहा है? ये जो अंधेरा, ये जो श्याम वर्ण है, वो अपने से ही भयभीत, अपने ही तत्व से कृष्ण का भयभीत होना है. वो अपने बरक्स एक सहृदयी को चाहते हैं, जहाँ से वो उजास प्राप्त कर सकें. कहते हैं कि बूंद तो सागर की ओर जाती ही है, लेकिन ये सागर का बूंद की ओर पलट कर देखना, एक विराट तत्व का अपने लघुत्तम स्वरूप की ओर पलट कर देखना, ये ही सहृदयी की तलाश है.
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए जनता से रिश्ता किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
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