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आईक्यूएयर की नई रिपोर्ट बताती है कि भारत का कोई भी शहर वर्ष 2021 में विश्व स्वास्थ्य संगठन यानी डब्ल्यूएचओ के वायु गुणवत्ता मानक पर खरा नहीं उतर सका
अनुमिता रॉय चौधरी
आईक्यूएयर की नई रिपोर्ट बताती है कि भारत का कोई भी शहर वर्ष 2021 में विश्व स्वास्थ्य संगठन यानी डब्ल्यूएचओ के वायु गुणवत्ता मानक पर खरा नहीं उतर सका। रिपोर्ट के मुताबिक, दिल्ली की हवा दुनिया की तमाम राजधानियों में सबसे जहरीली है और विश्व के शीर्ष 100 प्रदूषित शहरों में से 63 भारत के हैं। जाहिर है, दुनिया भर के नगरों का अध्ययन करके तैयार की गई यह रिपोर्ट काफी खास है। अब हम न सिर्फ वायु प्रदूषण की प्रवृत्तियों का अध्ययन कर रहे हैं, बल्कि उन नीतियों की भी पड़ताल में जुट गए हैं, जो वायु प्रदूषण के खिलाफ सरकारें अपनाती रही हैं।
मगर इस तस्वीर का एक अन्य पहलू भी है। यह रिपोर्ट बताती है कि वर्ष 2020 की तुलना में 2021 में प्रदूषण में काफी बढ़ोतरी हुई है। दिल्ली की आबोहवा 15 फीसदी अधिक दूषित हो गई है। लेकिन सच यह भी है कि 2020 में कोरोना महामारी के कारण हम एक लंबे लॉकडाउन के गवाह बने थे। आर्थिक गतिविधियों पर रोक लगने और सड़कों पर गाड़ियों का बोझ न होने के कारण पूरे देश में प्रदूषण के स्तर में तेज गिरावट आई थी। इसीलिए, जब अर्थव्यवस्था खोलने की कवायद शुरू हुई, तब तमाम विश्लेषकों ने प्रदूषण में इजाफा होने के कयास लगाए थे। आईक्यूएयर की रिपोर्ट इसकी तस्दीक कर रही है। हालांकि, 2016 से 2020 तक का जब हम ट्रेंड देखते हैं, तो पता चलता है कि दिल्ली में प्रदूषण के स्तर में कमी आई है। इसका अर्थ यह है कि प्रदूषण की दीर्घकालिक प्रवृत्ति में गिरावट दिख रही है। इसलिए इस नई रिपोर्ट के बहाने यह चिंतन भी होना चाहिए कि आर्थिक गतिविधियों के सुचारू रूप से काम करने के कारण 2021 में प्रदूषण का जो स्तर हम देख रहे हैं, उसे किस तरह से नियंत्रित किया जाए?
साफ है, हमें ऐसी योजनाएं बनानी होंगी, जो धरातल पर सफल साबित हों। विभिन्न क्षेत्रों में ऐसे प्रयास हो भी रहे हैं, लेकिन अब भी कई ऐसे छिद्र हैं, जिनको भरना अति-आवश्यक है। सबसे पहले तो गाड़ियों से होने वाले प्रदूषण को नियंत्रित करने पर काम होना चाहिए। इसके लिए न सिर्फ सार्वजनिक परिवहन को बड़े पैमाने पर बढ़ाना होगा, बल्कि सड़कों पर निजी गाड़ियों को कम करने की रणनीति भी अपनानी होगी। अच्छी बात है कि इलेक्ट्रिक गाड़ियों को लेकर सरकारें संजीदा हुई हैं। दिल्ली सरकार ने तो यह लक्ष्य बनाया है कि 2024 में जितनी गाड़ियां सड़कों पर होंगी, उनमें से 25 फीसदी इलेक्ट्रिक होनी चाहिए। हमें इस लक्ष्य को पाना ही होगा। इलेक्ट्रिक गाड़ियों पर मिलने वाली सब्सिडी इसमें कारगर भूमिका निभा सकती है।
इसी तरह, औद्योगिक इकाइयों में इस्तेमाल हो रहे ईंधन को भी हमें बदलना होगा। दिल्ली में कोयला जैसे जीवाश्म ईंधन का इस्तेमाल बंद कर दिया गया है। ऐसे में, प्राकृतिक गैस का विस्तार आवश्यक है। उद्योग जगत जितनी तेजी से स्वच्छ ईंधन की तरफ आकर्षित होगा, पर्यावरण में कार्बन का उत्सर्जन उतनी तेजी से कम होगा। हमें कचरा प्रबंधन पर भी प्रमुखता से काम करना होगा। कचरा का बेहतर निस्तारण तो होना ही चाहिए, कोशिश यह भी होनी चाहिए कि उनका फिर से इस्तेमाल हो सके। हालांकि, महज राष्ट्रीय राजधानी में काम करने से बात नहीं बनेगी। हमें पूरे एनसीआर में उसी सख्ती से योजनाओं को अमलीजामा पहनाना होगा, जितनी कठोरता की जरूरत दिल्ली में है। यह समझना होगा कि प्रदूषण की कोई प्रशासनिक सीमा नहीं होती। दिल्ली के आसपास के इलाकों में यदि प्रदूषण बढ़ता जाएगा, तो राष्ट्रीय राजधानी की हवा भी साफ नहीं रह सकेगी। एनसीआर के तमाम साझेदार विभागों को मिलकर इस दिशा में काम करना होगा।
वायु प्रदूषण कई पहलुओं पर निर्भर करता है। हर देश की अलग-अलग भौगोलिक और मौसमी परिस्थितियां होती हैं। इनका प्रदूषण पर खासा असर पड़ता है। यही वजह है कि भारत में गंगा के मैदानी इलाकों और उत्तर भारतीय शहरों में तुलनात्मक रूप से प्रदूषण का स्तर अधिक रहता है, जबकि दक्षिण भारत या देश के पूर्वोत्तर में प्रदूषण उतना परेशान नहीं करता। इसलिए, स्वच्छ वायु के लिए कोई रणनीति बनाते वक्त हमें स्थानीय स्तर पर भौगोलिक व मौसमी परिस्थितियों का विशेष ध्यान रखना चाहिए। सुखद है कि सरकार ने नीतिगत मोर्चे पर काम शुरू कर दिया है। साल 2019 में देश भर में राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम की शुरुआत की गई थी, जिसका मकसद साल 2024 तक 20-30 फीसदी तक प्रदूषण कम करना है। इसके लिए 132 शहरों को चिह्नित किया गया है। इसके अलावा, दिल्ली-एनसीआर में भी अलग से कई योजनाएं चलाई जा रही हैं। यानी, योजना-निर्माण के स्तर पर देश भर में काम हो रहा है, इसलिए इनके क्रियान्वयन को लेकर हमें प्रयास करना होगा। यह देखना होगा कि हमने इसमें कितने संसाधन लगाए हैं, या हमारी संस्थागत क्षमताओं में कितना इजाफा हो रहा है? पिछली कई योजनाओं का हश्र देखने का बाद यही समझ में आता है कि जब तक ऐसे कार्यक्रमों को राजनीतिक स्तर पर सहयोग नहीं मिलता, तब तक वे सार्थक नहीं हो पाते हैं।
हमारे नियामक बताते हैं कि देश में कहीं प्रदूषण बढ़ रहा है, तो कहीं घट रहा है, तो कहीं मिश्रित रुझान भी दिखने में आ रहे हैं। इसलिए हमें समस्या पर नहीं, बल्कि समाधान पर अधिक सोचना चाहिए। सार्वजनिक मंचों पर योजनाओं की चर्चा होने से उनको जन-समर्थन मिलता है। जनता और सरकार की समझ बढ़ाए बिना हम प्रदूषण के खिलाफ लड़ ही नहीं सकते। इसका अर्थ यह भी है कि देश भर में निस्संदेह प्रदूषण बढ़ रहा है, लेकिन इसको नियंत्रित करने के लिए जिस तरह की योजनाओं की जरूरत है, उनके निर्माण और क्रियान्वयन के लिए हमें आम लोगों को जोड़ना होगा।
हम समस्या पर बेशक जन-जागरूकता बढ़ाएं, लेकिन उसके समाधान को लेकर कहीं ज्यादा जागरूकता फैलाने की दरकार है। और, इसके लिए सार्वजनिक परिवहन को बढ़ावा देने, उद्योग जगत को वाजिब दरों पर स्वच्छ ईंधन उपलब्ध कराने, निजी गाड़ियों के इस्तेमाल को हतोत्साहित करने और कचरे का विशेष प्रबंधन करने की जरूरत है। तभी हम जहरीली आबोहवा से मुक्ति पा सकेंगे।
Rani Sahu
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