सम्पादकीय

हिमाचल में इवेंट अभी बाकी

Gulabi
13 Sep 2021 6:44 AM GMT
हिमाचल में इवेंट अभी बाकी
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गुजरात को हिमाचल के संदर्भ में पढऩे से प्रफुल्लित, भाजपा का ही एक पक्ष क्या किसी परिवर्तन से लाभान्वित होगा

दिव्याहिमाचल.

गुजरात को हिमाचल के संदर्भ में पढऩे से प्रफुल्लित, भाजपा का ही एक पक्ष क्या किसी परिवर्तन से लाभान्वित होगा। भले ही इसका कोई सीधा उत्तर देना असंभव सा है, लेकिन बदलाव जैसे किसी कयास से भिन्न हिमाचल की सत्ता का संतुलन इस वक्त कई बड़े नेताओं के लिए सुकून का सबब है। दरअसल लगातार भाजपा शासित राज्यों में मुख्यमंत्रियों का बदलाव उत्तराखंड, कर्नाटक से होता हुआ गुजरात के विजय रूपाणी को ओहदे से हटा चुका है। जाहिर है गुजरात के साथ हिमाचल में भी अगले साल के अंत तक विधानसभा चुनाव हैं, इसलिए सत्ता के मंच पर प्रतीक्षारत मुकदमों, दबी-कुचली इच्छाओं और चिरस्थायी महत्त्वाकांक्षाओं के लिए अंदाजों की ताल ठोंकना आसान है।
हिमाचल में भाजपा के भीतर भी कुछ जुंडलियां हैं, जो आलाकमान के ऐसे फैसलों से प्रदेश में झाड़ू लगाना शुरू कर देती हैं। कुछ नेताओं के समर्थक लाल कालीन सिर पर उठाए चल रहे हैं और इंतजार यही कि बिल्ली के भाग्य से छिक्का टूट जाए, लेकिन हिमाचल के सियासी ऊंट अभी थके नहीं और न ही मुख्यमंत्री पद हासिल करने की मृगतृष्णा दूर हुई है। गुजरात को हिमाचल में हू-ब-हू उतारना उस वक्त भी संभव नहीं हुआ, जब 'गुजरात मॉडलÓ की बात पर देश झूम रहा था। यह इसलिए कि हिमाचल का अपना एक सफल मॉडल है और सियासत भी राष्ट्रीय प्रतीकों से भिन्न मिट्टी का कर्ज उतारते-उतारते, बार-बार की कोशिशों में 'मिशन रिपीटÓ नहीं कर पाती। इस बार भाजपा के जिन समीकरणों से जयराम ठाकुर मुख्यमंत्री बने, वे बरकरार हैं और यह एक हकीकत है कि प्रदेश की वर्तमान सत्ता को जगत प्रकाश नड्डा की छाया और छवि दोनों हासिल हैं। यह कहा जा सकता है कि रूपाणी को भी देश के प्रधानमंत्री का आशीर्वाद प्राप्त था, लेकिन वहां के सफेद पन्नों पर ही कालिख गिरी थी और कोविड काल की त्रासदी में रिकार्ड खराब हो गया।
इसके विपरीत हिमाचल ने वैक्सीनेशन के पहले चरण में सौ फीसदी सफलता हासिल करके जयराम सरकार की हैसियत बढ़ा दी। ऐसे में यह कहा जा सकता है कि हिमाचल में अभी इवेंट बाकी है। पूर्ण राज्यत्व की पचासवीं वर्षगांठ मना रही सरकार के पास कई डमरू हैं और इससे हासिल हर शो विंडो मुखातिब रहेगी। गुजरात और हिमाचल के बीच सत्ता की परंपराओं का अंतर भी स्पष्ट है और इस तरह चुनावी मुद्दों की तासीर भी बदलती है। देश के अन्य हिस्सों में भले ही धर्म के नाम पर संवेदना और राजनीतिक संवेग प्रभावित हो, लेकिन हिमाचल में ऐसा कोई ध्रुवीकरण संभव नहीं, फिर भी जातीय और क्षेत्रीय आधार पर बड़े फैसलों का राज छिपा रहता है। जयराम के मुख्यमंत्रित्व की राजनीतिक बुनियाद इसलिए भी सुरक्षित लगती है क्योंकि दो पूर्व मुख्यमंत्री सेवानिवृत्त हो चुके हैं तथा भाजपा के नेतृत्व में कोई स्पष्ट चुनौती नहीं है। जयराम न केवल दो उपचुनाव जिता कर ही राजनीतिक गणित सुधार पाए, बल्कि दिग्गज सुखराम से मंडी का सुख भी छीन चुके हैं। जयराम के मुख्यमंत्रित्व काल में किशन कपूर, डा. राजीव बिंदल तथा विपिन सिंह परमार का कद छोटा किया गया है और यह सब पवन राणा व जगत प्रकाश नड्डा की स्वीकृतियों का मौन आईना ही सिद्ध हुआ।
बावजूद इसके हिमाचल में भी चौथे साल से सत्ता विरोधी लहरें सिर उठाने लगी हैं। भले ही शांता कुमार खुश हों, लेकिन कांगड़ा नाराज दिखाई देता है। इसका प्रमाण नए नगर निगमों के चुनाव भी हैं कि जहां शांता की फरमाइश पर पालमपुर नगर निगम बन गया, लेकिन राजनीतिक पैमाइश में यह हार गया। केंद्रीय विश्वविद्यालय का धर्मशाला परिसर राज्य सरकार की वजह से हार गया, लेकिन देहरा के परिसर में केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर का वर्चस्व जीत गया। कभी धूमल सरकार के कट्टर विरोधी रहे किशन कपूर अब अनुराग ठाकुर के पाले में भले ही हैं, लेकिन सरकार के सारथी के रूप में नड्डा जब तक प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप में जयराम के साथ हैं, वह रूपाणी नहीं बन सकते।
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