- Home
- /
- अन्य खबरें
- /
- सम्पादकीय
- /
- गिरे तो प्रश्नों के...

x
By: divyahimachal
प्राकृतिक आपदा में पुन: याद आई पर्वतीय वास्तुकला एवं सुरक्षात्मक इंजीनियरिंग की। माननीय हाईकोर्ट ने जनहित याचिका का संज्ञान लेते हुए भारत सरकार के अटार्नी जनरल को नोटिस दिया है। 45 वर्ष के इंजीनियरिंग अनुभव रखने वाले याचिकाकर्ता, श्यामकांत धर्माधिकारी ने पहाड़ों पर इंजीनियरिंग की अनदेखी व गलती पर प्रश्नचिन्ह लगाते हुए अदालत से संज्ञान लेने की अरदास की थी, जिसे स्वीकार करते हुए हाईकोर्ट ने विषय की गंभीरता पर सुनवाई शुरू की है। पहाड़ों की कटाई, भूमिगत सुरंगों की लंबाई और पुलों के लिए खोदी गई सतह पर वैज्ञानिक तौर-तरीकों की अवहेलना का आरोप है। कहना न होगा कि कमोबेश यही सब प्रमाणित होकर सडक़ों के मलबे में समाहित हो रहा है। कल तक जिस लंबाई और चौड़ाई में चंडीगढ़ से मनाली और शिमला का सफर पींगें बढ़ा रहा था, वह आज उदास कहीं फंसा है। कालका-शिमला फोरलेन का 40 मीटर हिस्सा नदारद है, तो मनाली सडक़ पहले ही अपने विध्वंस की कहानी बन चुकी है। ऐसे में प्रश्नों के कई पहाड़ गिर रहे हैं और विकास का यह मॉडल कहीं न कहीं प्रश्नांकित जरूर हुआ है। पर्वत को समझने की राष्ट्रीय अनिवार्यता को इंगित करता हाईकोर्ट का नोटिस, भविष्य के प्रश्नों से मुखातिब है। चले तो हम शिमला को फोरलेन देने, लेकिन कहीं बीच में ही मंजिलें ढह गईं। नतीजतन चंडीगढ़ से शिमला की यात्रा लंबी और महंगी हो गई या वैकल्पिक मार्गों के सहारे प्रदेश की राजधानी को अपने नए रास्ते खोजने पड़ रहे हैं।
जाहिर है विकास का सामथ्र्य इसकी प्रासंगिकता, गुणवत्ता और क्षमता निर्माण से सामने आता है। शिमला के लिए फोरलेन कई कारणों से आवश्यक समाधान रहा है, लेकिन पर्वत पर क्षमता निर्माण से जुड़ी गुणवत्ता का वैज्ञानिक अर्थ लाजिमी तौर पर किसी प्रतिज्ञा की तरह है। हम पर्यावरणीय चुनौतियों को नजरअंदाज करके या पर्वतीय शर्तों को भूलकर विकास करेंगे, तो खतरे जालिम की तरह व्यवहार करेंगे। शिमला की सडक़ ऊंचे पहाड़ से लड़ रही है, तो मनाली फोरलेन ब्यास नदी की धाराओं से मुकाबिल है। ऐेसे में एक अनुभवी इंजीनियर ने जो प्रश्न उठाए हैं, उनसे बहुत कुछ रेखांकित होता है। यहां मुकाबला समय की रफ्तार और पर्वत के व्यवहार से भी है। स्वयं केंद्रीय भूतल परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने मुआयना करके यह पाया है कि कुछ आधारभूत परिवर्तन करने होंगे। पर्वतीय विकास के विविध आयाम और भविष्य की आवश्यकताओं के अनुरूप पहाड़ की अपनी शैली और प्रस्तुति हो सकती है। दरअसल विकास के मानदंड और फिजीबिलिटी की राष्ट्रीय शर्तें पर्वत की प्राथमिकताओं को नहीं समझ पातीं। मामला सिर्फ विकास का नहीं रहता, बल्कि पहाड़ी परिवेश को बचाते हुए पर्वतीय विकास का है। विकास यहां सामान्य परिस्थिति नहीं, बल्कि मौसम की प्रतिकूलता का सामना करती जीवन शैली को बचाने की प्रतिबद्धता है। इस हिसाब से भले ही हिमाचल की दो प्रमुख फोरलेन परियोजनाओं को चोट लगी है, लेकिन यह गिर कर संभलने का वक्त है और इस हिसाब से केंद्र का तराजू बदलने की जरूरत भी है।
यहां हिमाचल का विकास नहीं हारा, बल्कि राष्ट्रीय परियोजनाओं का ऐसा आधार हारा है जिसने अभी तक पर्वत को पर्वतीय अंचल की विवशताओं में नहीं निखारा। यह पर्वतीय तकनीक में नवाचार, शोध एवं अध्ययन तथा अंतरराष्ट्रीय स्तर के अनुभव से भविष्य को रेखांकित करने की वचनबद्धता है। हिमाचल की सडक़ें ही नहीं, बल्कि आधुनिक निर्माण तथा जीवन शैली व जलवायु परिवर्तन को समझते हुए आगे बढऩे का मार्ग प्रशस्त करने की चुनौती है। अदालत अपने तरीके व तर्कों से उन साक्ष्यों पर रोशनी डाल रही है, जो दो प्रमुख फोरलेन परियोजनाओं को तहस-नहस करने की वजह बने हैं। अब वक्त उस गुंजाइश को देख रहा है जहां केंद्र सरकार में पर्वतीय राज्यों का पक्ष दृढ़ता से रखने के लिए एक स्वतंत्र मंत्रालय का गठन करना पड़ेगा।

Rani Sahu
Next Story