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एक दौर में विनोद खन्ना, विजय आनंद और महेश भट्ट आचार्य रजनीश के प्रवचन सुनने जाते रहे
जयप्रकाश चौकसे का कॉलम:
एक दौर में विनोद खन्ना, विजय आनंद और महेश भट्ट आचार्य रजनीश के प्रवचन सुनने जाते रहे। महेश भट्ट ने तो यू.जी कृष्णमूर्ति से भी जीवन और मृत्यु के रहस्य को समझने का प्रयास किया। वे सब जगह की यात्रा करके फिल्म निर्माण में लौटे। विजय आनंद ने भी देव आनंद और वहीदा रहमान अभिनीत फिल्म 'गाइड' बनाकर अपने जीवन की सार्थकता को प्राप्त किया।
गोया कि भीतर का अंधकार जब घना हो जाता है, तब जुगनू की रोशनी में मनुष्य अपनी राह खोजता है। आभास होता है कि शैलेंद्र और सचिन देव बर्मन ने सही निष्कर्ष निकाला कि 'मुसाफिर जाएगा कहां, ये छैंया पाएगा कहां।' ज्ञातव्य है कि आचार्य रजनीश का जन्म, गाडरवारा के निकट गांव में हुआ था और सागर विश्वविद्यालय से दर्शनशास्त्र में एम.ए की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद वे जबलपुर के कॉलेज में पढ़ाने जाते थे, उन दिनों वे साइकिल चलाते थे।
उनका जीवन इतना उतार-चढ़ाव भरा रहा कि साइकिल चलाने वाले रजनीश के पास बाद में आधा दर्जन से भी ज्यादा रॉल्स-रॉयस गाड़ियां रहीं। उनके प्रशंसकों की संख्या इतनी अधिक बढ़ी कि अमेरिकन गुप्तचर जांच एजेंसी द्वारा जांच कराई गई कि उनके आश्रम में कहीं किसी नशीले पदार्थ का सेवन तो नहीं किया जाता है? बहरहाल, वहां कोई नशीला पदार्थ नहीं पाया गया था। आचार्य रजनीश की मृत्यु को भी हत्या माना गया और शक उनकी शिष्या मां आनंद शीला पर किया गया। लेकिन सघन जांच-पड़ताल के बाद वे निर्दोष घोषित हुईं।
बहरहाल, टी. एस. एलियट के पद्य में लिखे नाटक 'मर्डर इन द कैथेड्रल' से प्रेरित फिल्म भी बनी है, परंतु उस ऐतिहासिक घटना से प्रेरित रिचर्ड बर्टन और पीटर ओ टूल अभिनीत फिल्म 'बैकेट' अधिक सराही गई थी, जिसकी प्रेरणा से ऋषिकेश मुखर्जी ने अमिताभ बच्चन और राजेश खन्ना अभिनीत 'नमक हराम' बनाई थी।
व्यक्तिगत बदले के कारण हत्याएं हुई हैं। नेताओं की हत्याओं का सिलसिला बहुत पुराना है। जो मनुष्य अपने शरीर में बम रखकर किसी की हत्या करते हुए स्वयं भी मर जाता है उसकी विचार प्रक्रिया कैसी होती होगी! उसे नफरत और हिंसा की गोद में कैसे पाला गया होगा?
ज्ञातव्य है कि आचार्य रजनीश का जन्म नाम चंद्र मोहन जैन बताया जा रहा है। उन्होंने अधिकांश प्राचीन ग्रंथ पढ़े हैं और उनकी तर्कसम्मत व्याख्या की है। वे अनुवाद की गईं भ्रामक, मिथ्या धारणाओं से बचे रहे। धर्मनिरपेक्षता उनकी विचार शैली का आधार स्तंभ रहा है। कभी-कभी कुछ लोग अपनी लोकप्रियता के पिंजरे में बंद हो जाते हैं।
उनके शिष्यों में आपसी प्रतिस्पर्धा पनप जाती है। कभी-कभी उन्हें लगता है कि वे अपने गुरु से अधिक जानते हैं। गुरु का स्थान लेने के लिए षड्यंत्र रचे जाते हैं। इस तरह संगठित अपराध जगत के समानांतर संस्था बना लेते हैं। इन्हीं वैचारिक बिंदुओं से हत्याओं का क्रम रचा जाता है। टी.एस. एलियट के 'मर्डर इन द कैथेड्रल' में चौथा टेम्पटर कहता है कि 'बैकेट जानता है कि राजा उसकी हत्या कर देगा।
वह इस लालच से मुक्त नहीं है कि शहीद हो जाने पर उसके जन्मदिन और निर्वाण दिवस पर मेले आयोजित किए जाएंगे और वह अमर हो जाएगा। यह अमर हो जाने का लोभ बड़ा कायराना और भ्रामक विचार है। मरकर याद किया जाना और किसी के आंसुओं में मुस्कुराना बड़ा ही लुभावना वादा है।
गुरु दत्त की फिल्म 'प्यासा' का साहिर लुधियानवी का लिखा गीत याद आता है, 'यह बस्ती है मुर्दा परस्तों की बस्ती, यहां पर तो जीवन से है मौत सस्ती, ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है।' अन्य संदर्भ में कबीर कहते हैं, 'साधो ये मुर्दों का गांव, चंदा मरिहे सूरज मरिहे।' दरअसल सभी सृजन करने वालों को कबीर से प्रेरणा मिलती रही। यह भी कह सकते हैं कि चंदा मरिहे, सूरज मरिहे परंतु कबीर अमर हैं। उनकी लिखी मात्र एक पंक्ति ठंडे पड़ रहे सूरज की सिगड़ी को फिर दहका सकती है।
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