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पिछले छह-सात दिनों के दौरान जनसंख्या और क्षेत्रफल के लिहाज से देश का लगभग एक तिहाई हिस्सा एक बार फिर उसी सांप्रदायिक उन्माद का शिकार हो गया
विभूति नारायण राय
पिछले छह-सात दिनों के दौरान जनसंख्या और क्षेत्रफल के लिहाज से देश का लगभग एक तिहाई हिस्सा एक बार फिर उसी सांप्रदायिक उन्माद का शिकार हो गया, जो पिछले कई सौ वर्षों से उसका पीछा नहीं छोड़ रहा है। यह उन्माद कैसे निर्मित होता है और कब हिंसा में तब्दील हो जाता है, इसे जांचना दिलचस्प होगा। कुछ वर्षों पूर्व जब एक फेलोशिप के तहत मैं सांप्रदायिक हिंसा का अध्ययन कर रहा था, तब यह देखकर चकित रह गया कि एक ही जैसी क्रिया की प्रतिक्रिया अलग-अलग स्थानों पर भिन्न हुई है। मसलन, मैंने एक शहर में पाया कि बाजार में दो सांड़ों के लड़ जाने के बाद वहां भीषणतम दंगे हो गए और कई दिनों तक कफ्र्यू लगाना पड़ा। उसी के बगल में ऐसा कुछ घटा, जिस पर कोई भी दूसरा संवेदनशील इलाका जल सकता था, पर वहां कुछ नहीं हुआ। ऐसा अकारण नहीं होता । मैंने अपने अध्ययन के दौरान पाया कि सांप्रदायिक हिंसा का उभार एक पिरामिड की शक्ल में होता है। यह पिरामिड धीरे-धीरे निर्मित होता है। इस प्रक्रिया में एक ऐसा बिंदु आता है, जब एक पत्थर फेंकने, किसी अंतरधार्मिक विवाह, यहां तक कि दो अलग समुदायों के चालकों की साइकिलों के टकराने भर से दंगा भड़क सकता है। यदि यह पिरामिड निर्मित न हुआ हो, तो बड़ी से बड़ी घटना भी हिंसा नहीं करा पाती।
हालिया दंगों वाले शहरों में हमें बड़ा स्पष्ट दिखाई देता है कि तनाव का पिरामिड उस स्तर तक पहुंच गया था, जहां सिर्फ एक छोटी-सी चिनगारी की जरूरत थी और रामनवमी या हनुमान जयंती की 'शोभा' यात्राओं ने यह अवसर प्रदान कर ही दिया । दिल्ली में अभी कुछ महीने पहले ही दंगे हुए थे और जख्म पूरी तरह से भरे नहीं थे। खास तौर से अल्पसंख्यक समुदाय के मन में पुलिस के आचरण को लेकर कसक बाकी है। बहुत लोग हैं, जो अभी भी पुलिस को निष्पक्ष तथा कानून को लागू करने वाली एजेंसी मानने के लिए तैयार नहीं हैं।
मैंने राजस्थान, गुजरात, पश्चिम बंगाल, कर्नाटक और बिहार के जिन हिस्सों में हिंसा की घटनाएं घटीं, उनको बारीकी से समझने की कोशिश की। मुझे कोई आश्चर्य नहीं हुआ कि हर जगह हिंसा का पिरामिड उस बिंदु पर था, जहां एक छोटा-सा पत्थर बडे़ दंगे का कारण बन सकता था। यह सवाल लाजिमी है कि तनाव का यह पिरामिड कोई रातोंरात तो बना नहीं होगा, धीरे-धीरे बिगड़ती स्थितियों को संभालने की कोशिश राज्य द्वारा क्यों नहीं की गई? कुछ मामलों में तो साफ समझ आ रहा था कि राज्य के कुछ अंगों द्वारा न सिर्फ आपराधिक लापरवाही बरती गई, बल्कि कई तो आग भड़काने में लगे दिखते हैं। खास तौर से राज्य की सबसे दृश्यमान अंग पुलिस पिरामिड को ऊपर बढ़ने से रोकने में सबसे अधिक असहाय नजर आती है। शायद इसका सबसे बड़ा कारण पुलिस के रोजमर्रा के कामों में बढ़ता राजनीतिक हतक्षेप है। स्वाभाविक है, अगर राज्य का प्रभावी विमर्श सांप्रदायिक हिंसा का पक्षधर है, तो पुलिस भी उसे रोकने के अपने कानूनी दायित्व से विमुख हो सकती है।
भारतीय समाज में धार्मिक जुलूस सौ साल से भी अधिक समय से दोनों समुदायों के बीच तनाव बढ़ाने के सबसे बड़े कारण रहे हैं और इसीलिए हर राज्य में पुलिस ने स्थानीय जरूरतों के मुताबिक इन जुलूसों के प्रबंधन के लिए रणनीति बना रखी है। हर पुलिस थाने में एक अलग रजिस्टर में इस रणनीति के तहत कुछ सूचनाएं दर्ज की जाती हैं। इनमें जुलूस की तिथि, मार्ग, भाग लेने वालों की संख्या, जुलूस में लगने वाले नारे या बजाए जाने वाले वाद्ययंत्र जैसे विवरणों का इंद्राज होता है। संवेदनशील इलाकों में पुलिस थानों से अपेक्षा की जाती है कि त्योहार के पहले वे सभी संबंधित पक्षों के साथ बैठकें करेंगे, उन्हें निर्धारित रूट, भाग लेने वालों की संख्या या नारों के बारे में सहमत करेंगे और जरूरत पड़ने पर आयोजकों व असामाजिक तत्वों को कानूनी प्रावधानों के तहत पाबंद करेंगे।
जो विजुअल मुख्यधारा के मीडिया या सोशल मीडिया पर उपलब्ध हैं, उनसे कम से कम दिल्ली और खरगोन में स्पष्ट है कि जुलूस में शामिल लोग भड़काऊ नारे लगा रहे थे, खास तौर से जब वे विशेष आबादी वाले इलाकों से गुजरे या किसी पूजा स्थल के सामने पहुंचे। मेरे पास यह जानने का कोई साधन नहीं है कि स्थानीय पुलिस ने रामनवमी या हनुमान जयंती के आयोजकों के सामने रूट या नारों को लेकर कुछ शर्तें रखी थीं या नहीं, पर मेरा पुराना अनुभव कह रहा है कि कानून लागू करने वाली एजेंसियों ने जरूर उन्हें अपनी मंशा से अवगत करा दिया होगा। पर यह स्पष्ट था कि वे इन शर्तों का उल्लंघन कर रहे थे। उन्हें पूरा विश्वास था कि पुलिस उनके खिलाफ कोई प्रभावी कार्रवाई नहीं करेगी और पुलिस ने उन्हें निराश भी नहीं किया।
एक सामान्य बात हर घटनास्थल पर दिखी। हर जगह अल्पसंख्यक आबादी की छतों और पूजा स्थलों से पथराव हुए। क्या इसे उनके उग्र और हिंसक समुदाय होने के सुबूत के तौर पर देखा जाना चाहिए? मुझे लगता है, ऐसा मानना सरलीकरण होगा। कहीं ऐसा तो नहीं कि एक डरा हुआ समुदाय, जिसे राज्य पर बहुत भरोसा नहीं है, अपनी सुरक्षा के लिए खुद इंतजाम करने की सोचने लगा है? अपने घर या पूजास्थल के पास खड़ी भीड़ को उत्तेजक नारे लगाते देखकर अक्सर वह पहला पत्थर फेंक देता है। यदि उसे यह भरोसा हो कि उसकी जान को खतरा हुआ, तो राज्य उसकी सुरक्षा करेगा, तब शायद वह अपनी छतों पर ऐसे इंतजाम नहीं करेगा। यह एक ऐसा विषय है, जो लंबे समाजशास्त्रीय अध्ययन की मांग करता है।
यह याद रखना चाहिए कि पांच खरब डॉलर की अर्थव्यवस्था बनने का सपना देख रहे एक राष्ट्र में सांप्रदायिक हिंसा के लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिए। स्वाभाविक ही आज के वैश्विक परिदृश्य में दंगों के चलते भारत की छवि धूमिल हुई है। यह कहकर कि पश्चिम में भी मानवाधिकारों का उल्लंघन होता है, हम अपना पल्ला नहीं झाड़ सकते। एक परमाणु संपन्न राष्ट्र का नैतिक होना भी जरूरी है और हमारे बीच एक डरे हुए नागरिक समुदाय की उपस्थिति हमें इस नैतिकता से महरूम करती है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
Rani Sahu
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