सम्पादकीय

दो साल बाद भी मुश्किलें बरकरार

Deepa Sahu
20 March 2022 6:33 PM GMT
दो साल बाद भी मुश्किलें बरकरार
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अब से चार दिन बाद भारत में लॉकडाउन के दो साल पूरे हो जाएंगे।

आलोक जोशी, वरिष्ठ पत्रकार | अब से चार दिन बाद भारत में लॉकडाउन के दो साल पूरे हो जाएंगे। 22 मार्च को जनता कर्फ्यू लगा था और 24 मार्च को रात आठ बजे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राष्ट्र के नाम संदेश दिया था। उन्होंने कहा, 'हिन्दुस्तान को बचाने के लिए, हिन्दुस्तान के हर नागरिक को बचाने के लिए... आज रात 12 बजे से घर से बाहर निकलने पर पूरी तरह पाबंदी लगाई जा रही है।' प्रधानमंत्री को पता था कि यह कदम महंगा पड़ने वाला है। उन्होंने कहा भी कि इस लॉकडाउन की आर्थिक कीमत भारत को चुकानी पड़ेगी, लेकिन उस समय देश की जनता को बचाना बड़ी प्राथमिकता थी। हालांकि, आज यह कहना बहुत मुश्किल है कि किसी को इस बात का अंदाजा भी था कि यह कदम कितना महंगा पड़ने वाला है।

प्रधानमंत्री का एलान खत्म भी नहीं हुआ था कि हर शहर की सड़कों और बाजारों में भगदड़ मच चुकी थी। लोग पूरी-पूरी दुकानें खरीदकर घर भरने में जुटे हुए थे, क्योंकि चार घंटे से भी कम का वक्त था उनके पास और उसके बाद क्या होगा, किसी को यह पता नहीं था। बाद में आंकड़े आए, तो पता चला कि इन चार घंटों की वजह से ही मार्च के आखिरी हफ्ते में रोजमर्रा के इस्तेमाल की चीजों की खपत 80 फीसदी बढ़ गई थी। और, उसके अगले हफ्ते बिक्री में करीब 47 प्रतिशत की गिरावट आई। हालांकि, उसके बाद अप्रैल के तीसरे हफ्ते में एक बार फिर खपत तेज हुई, और जब सरकार ने लॉकडाउन बढ़ाने का एलान किया, तब फिर एफएमसीजी सामान की बिक्री लगभग ढाई गुना बढ़ गई। लेकिन इस खरीद-बिक्री का बहुत बड़ा हिस्सा घरों में बैठकर ही या ऑनलाइन चल रहा था।
फिटनेस का ख्याल रखने वाले ज्यादातर लोग आजकल हिसाब रखते हैं कि वे दिन भर में कितने कदम चले। इसको नापने के लिए मोबाइल एप हैं और अलग से फिटनेस बैंड या एक्टिविटी ट्रैकर भी। ऐसे ही एक एक्टिविटी ट्रैकर चलाने वाली कंपनी ने आंकड़े जारी किए कि बड़ा लॉकडाउन लगने के पहले 15 दिन में ही देश में लोगों के चलने का आंकड़ा 62 प्रतिशत तक गिर चुका था, यानी कदम थम रहे थे।
लेकिन ये एक्टिविटी ट्रैकर देश की पूरी तस्वीर नहीं दिखा रहे थे। दिखाते, तो लॉकडाउन शुरू होने के साथ ही देश का ऐवरेज स्टेप काउंट कई गुना हो चुका होता। लॉकडाउन के पहले दिन मुंबई और दिल्ली के रेलवे स्टेशनों व बस अड्डों पर इसकी आहट दिखाई पड़ी, तो अगले कुछ दिनों में देश भर के राजमार्गों पर लाखों की तादाद में पैदल, साइकिल, रिक्शा और टेंपो या छोटी गाड़ियों पर सफर करते लोग छा चुके थे। विश्व बैंक का अनुमान है कि करीब चार करोड़ लोग इस तरह दर-दर भटकते हुए शहर से गांव की ओर निकले थे। इनमें से बहुतों ने सैकड़ों किलोमीटर का, तो कुछ ने हजारों किलोमीटर का सफर पैदल या साइकिल से तय किया।
इस कहानी का दूसरा पहलू भी कम दर्दनाक नहीं है। बडे़-छोटे शहरों और औद्योगिक क्षेत्रों में सभी तरह के कारोबार ठप होने का असर सीधे-सीधे उनकी कमाई पर पड़ा। बड़ी कंपनियां तो काफी हद तक इसे झेल गईं। हालांकि, बहुत जगह इसी वक्त तनख्वाह में कटौती और छंटनी भी हुई, लेकिन कुल कारोबार की तुलना में यह बहुत कम था। फिर बड़ी कंपनियों का काम इसलिए भी पटरी से कम उतरा, क्योंकि उन्होंने तेजी से 'वर्क फ्रॉम होम' शुरू कर दिया। लेकिन छोटे और मध्यम श्रेणी के कारोबारियों के लिए यह रास्ता था ही नहीं। कुछ जरूरी चीजों को छोड़कर बाकी दुकानों के शटर बंद हो गए, जो महीनों तक नहीं खुले। जाहिर है, जो खुद नहीं कमाएगा, वह स्टाफ को भला कब तक और कैसे तनख्वाह देता रहेगा? लॉकडाउन शुरू होते ही 12 करोड़ लोग एक झटके में बेरोजगार हो गए थे।
एक साल बाद हालात सुधरने के आसार बन रहे थे कि कोरोना की दूसरी और तीसरी लहर ने एक बार फिर कहर ढा दिया। सरकारी आंकड़ों पर ही भरोसा करें, तो भारत में 23 करोड़़ लोग गरीबी की रेखा के नीचे जा चुके हैं। आजादी के बाद ऐसा पहली बार हुआ है कि गरीबों की गिनती घटने के बजाय बढ़ रही है।
लॉकडाउन का सबसे बड़ा नुकसान किसे हुआ? इसके जवाब में होटल, रेस्तरां, एयरलाइंस, टूरिज्म, जिम, छोटे कारोबारी और दुकानदार वगैरह के नाम तो खूब गिनाए जाते हैं, लेकिन सबसे बड़ी मार पड़ी है कारीगरों, यानी कोई न कोई हुनर जानने और उसके भरोसे अपनी रोजी-रोटी चलाने वाले लोगों पर। हैरानी की बात यह है कि हस्तशिल्प के कारोबार में लगे इन लोगों की गिनती का कोई पक्का आंकड़ा तक नहीं है। अलग-अलग अध्ययनों में इनकी गिनती 70 लाख से लेकर 20 करोड़ तक बताई जाती है। कोरोना ने इनमें से कम से कम 40 फीसदी लोगों को काम छोड़ने पर मजबूर कर दिया और 20 प्रतिशत से ज्यादा लोगों की सालाना कमाई एक चौथाई ही रह गई।
उधर रोजगार का ताजा आंकड़ा भी दिखा रहा है कि नौजवानों के दुख भरे दिन अभी बीते नहीं हैं। कोरोना काल के पहले लॉकडाउन के लगते ही अप्रैल से जून 2020 के बीच 30 साल से कम के नौजवानों में बेरोजगारी दर करीब 35 फीसदी पहुंच गई थी। उसके बाद इसमें लगातार सुधार हो रहा था, हालांकि कभी भी यह 20 प्रतिशत से नीचे नहीं जा पाई। लेकिन कोरोना की दूसरी लहर के बाद, यानी बीते साल अप्रैल से जून के बीच यह फिर उछलकर 25.9 प्रतिशत हो गई है। और, यहां भी इसी उम्र की लड़कियों में बेरोजगारी 31 फीसदी पर पहुंच गई है।
बेरोजगारी और कमाई की कमी से जूझते लोगों के सामने अब महंगाई का खतरा और बढ़ रहा है। खासकर, यूक्रेन संकट के बाद तेल के दामों को देखते हुए। अभी तो भारत को रूस से सस्ता तेल मिलने की उम्मीद बंधी है, फिर भी कच्चे तेल के दाम सरकार के अनुमान से कहीं ऊंचे हैं। आम खरीदार तक महंगाई कैसे पहुंचेगी, यह सिर्फ थोक और खुदरा सूचकांक में नहीं दिखता। सरसों के तेल से लेकर बिस्कुट के पैकेट तक, सबके दाम दाम बढ़ रहे हैं। यानी, जेब पर बोझ तो बढ़ रहा है, मगर जेब भरेगी कैसे, इसका इंतजाम दिखाई नहीं देता।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)


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