सम्पादकीय

गठबंधन टूटने के बाद भी अकाली दल और बीजेपी सच्चे मित्र की तरह एक दूसरे के काम आ रहे हैं

Gulabi
31 Aug 2021 6:15 AM GMT
गठबंधन टूटने के बाद भी अकाली दल और बीजेपी सच्चे मित्र की तरह एक दूसरे के काम आ रहे हैं
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जो बुरे वक्त में काम आए. शिरोमणि अकाली दल और भारतीय जनता पार्टी की 24 साल पुरानी दोस्ती भले ही पिछले वर्ष टूट गयी

अजय झा.

कहते हैं कि एक सच्चा दोस्त वही होता है जो बुरे वक्त में काम आए. शिरोमणि अकाली दल और भारतीय जनता पार्टी की 24 साल पुरानी दोस्ती भले ही पिछले वर्ष टूट गयी, पर दोनों पार्टियां अब भी एक दूसरे के काम आ रही हैं. कृषि कानूनों के विरोध में अकाली दल लगभग एक साल पहले केंद्र सरकार से अलग हो गई थी, यानि एनडीए छोड़ दिया था और बीजेपी के साथ गठबंधन तोड़ दिया था. लेकिन अब जब पंजाब में विधानसभा का समय आ गया है, दोनों दलों को एक दूसरे की कमी खलने लगी है.

सन 1996 से बीजेपी और अकाली दल का गठबंधन चल रहा था. दोनों दल एक दूसरे के साथ तब से थे जब भारत की राजनीति में छुआछूत की बीमारी जोरों पर थी. सभी मुख्यधारा की पार्टियां इससे ग्रसित थीं और उस बीमारी को धर्मनिरपेक्षता के नाम से जाना जाता था. अकाली दल का गठन ही 1920 में गुरुद्वारों को चलाने के लिए हुआ था और पार्टी सिक्खों की ही राजनीति करती थी. वहीं बीजेपी का तार भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ा था और बीजेपी को हिन्दुओं की पार्टी मानी जाती थी. दोनों दलों से तथाकथित धर्मनिरपेक्ष पार्टियां दूरी बनाए रखती थीं.
एक साथ मिल कर कई बार सरकार बना चुके हैं
बीजेपी और अकाली दल एक दूसरे के पूरक बन गए जिसका फायदा दोनों दलों को हुआ. 1997 के चुनाव में दोनों दलों का पहली बार गठबंधन हुआ और जबरदस्त जीत हासिल हुई. जहां 1992 के चुनाव में बीजेपी को 6 और अकाली दल को 3 सीटों पर ही जीत नसीब हुई थी, 1997 में गठबंधन को 117 सदस्यों वाली विधानसभा में 93 सीटों पर जीत हासिल हुई– अकाली दल 92 सीटों पर चुनाव लड़ी और 75 पर विजयी रही, बीजेपी 22 सीटों पर चुनाव लड़ी और पार्टी के 18 विधायक चुने गए.
2002 के चुनाव में कांग्रेस पार्टी बाजी मार ले गयी, अकाली दल के 41 और बीजेपी के मात्र 3 विधायक चुन कर आये. अकाली-बीजेपी गठबंधन की एक बार फिर से 2007 में सरकार बनी. अकाली दल 41 के मुकाबले 48 सीटों पर जीती और बीजेपी ने लम्बी छलांग लगायी, 3 सीटों से 19 पर पहुंच गयी, यानि बीजेपी के सिर्फ 4 प्रत्याशी ही चुनाव जीतने में असफल रहे.
2012 में एक नए इतिहास की रचना करते हुए अकाली-बीजेपी गठबंधन की लगातार दूसरी बार सरकार बनी. 1966 में पंजाब में विभाजन और हिमाचल प्रदेश तथा हरियाणा के पृथक राज्य बनने के बाद पहली बार किसी पार्टी या गठबंधन को लगातार दूसरी बार चुनाव में सफलता मिली थी. अकाली दल को 56 सीटें मिली और बीजेपी के खाते में 12 सीटें आईं. अकाली दल के ऊपर भ्रष्टाचार के इतने आरोप लगे कि नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता भी 2017 के चुनाव में गठबंधन को नहीं बचा सकीं. अकाली दल 15 सीटों पर सिमट गयी और बीजेपी लुढ़क कर 3 सीटों पर आ गयी.
नेताओं की शॉर्टेज से जूझ रहे हैं दोनों दल
लगातार पांच बार इकठ्ठा विधानसभा चुनाव लड़ने के बाद, जिसमें तीन बार अकाली दल-बीजेपी को जीत हासिल हुई, 2022 में दोनों दल अलग-अलग चुनाव लड़ेंगे. अकाली दल को लगने लगा था कि कृषि कानूनों के खिलाफ बढ़ते विरोध के कारण बीजेपी का साथ उसके लिए नुकसानदायक साबित हो सकता है, वहीं बीजेपी भी चाहती थी कि वह अकाली दल की छत्रछाया से बाहर निकले और पंजाब में अपनी जमीन तलाश करे, खासकर जिस तरह अकाली दल और बादल परिवार पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों का खामियाजा बीजेपी को उठाना पड़ा था.
लेकिन दनों दलों की एक समस्या थी जिससे अब वह जूझते दिख रहे हैं. दोनों दल एक दूसरे पर इतने आश्रित हो गए थे कि जहां बीजेपी का फोकस उन्ही 23 विधानसभा क्षेत्रों पर होता था, जहां से वह चुनाव लड़ती थी, अकाली दल का भी सारा ध्यान उन्हीं 94 सीटों पर होता था जहां से उनके प्रत्याशी मैदान में होते थे. अकाली दल सिख बहुल इलाकों से चुनाव लड़ती थी और वहीं बीजेपी के खाते में शहरी या फिर हिन्दू बहुल सीटें ही होती थीं. गठबंधन के टूटने के बाद जहां अकाली दल को गैर-सिख नेताओं, खासकर हिन्दू नेताओं की कमी खलने लगी, बीजेपी के पास भी गिने चुने सिख नेता ही थे.
एक दूसरे के नेताओं की हेरा-फेरी से चला रहे हैं काम
अकाली दल ने इसका शॉर्टकट समाधान बहुजन समाज पार्टी के साथ गठबंधन की घोषणा करके निकालने की कोशिश कर रही है. बीएसपी को 20 सीटों पर चुनाव लड़ना है, जिसमें से अधिकतर वही सीटें हैं जहां से बीजेपी चुनाव लड़ती थी. पर अकाली दल रिस्क नहीं लेना चाहती है. इसे यह पता है कि बीएसपी के भरोसे नहीं बैठा जा सकता क्योंकि बीएसपी चुनाव के आते-आते अपना फैसला बदलने के लिए विख्यात है. लिहाजा अकाली दल ने बीजेपी के उन नेताओं पर डोरे डालना शुरू किया है जो सार्वजनिक या व्यक्तिगत रूप से किसान आन्दोलन के समर्थक थे.
अकाली दल को सफलता भी मिली जब पूर्व मंत्री अनिल जोशी और कुछ अन्य बीजेपी नेताओं ने अकाली दल का दामन थाम लिया. वहीं दूसरी तरफ अकाली दल में भी कई ऐसा सिख नेता हैं जो पार्टी पर बादल परिवार के आधिपत्य और उनके कारनामों से खुश नहीं थे. पूर्व केन्द्रीय मंत्री बलवंत सिंह रामूवालिया की पुत्री अमनजोत कौर रामूवालिया, जो अकाली दल महिला मोर्चा की महासचिव थीं, कई अन्य नेताओं के साथ कुछ समय पूर्व बीजेपी में शामिल हो गयीं. अब तक बीजेपी में 25 से अधिक सिख नेता शामिल हो चुके हैं, जिनमें से ज्यादातर का नाता अकाली दल के साथ था. बीजेपी का दावा है कि उसके पास सिख नेताओं की कतार लगी है, जो पार्टी में शामिल होना चाहते हैं और बीजेपी उन्हीं को शामिल करेगी जिनका ट्रैक रिकॉर्ड धूमिल नहीं है और उनमें चुनाव जीतने की क्षमता है. यानि जहां जरूरत पड़ेगी अकाली दल बीजेपी में सेंध लगाएगी और बीजेपी अकाली दल में. एक दूसरे को दोनों दल चुनाव लड़ने लायक नेताओं की कमी नहीं महसूस होने देंगे.
चुनाव नजदीक आते ही बढ़ जाएगी दल बदल की प्रक्रिया
पंजाब में चुनाव जनवरी-फरवरी के महीने में होने वाला है. ज्यों-ज्यों चुनाव नजदीक आता जाएगा, दल बदल प्रक्रिया की रफ़्तार बढ़ती जाएगी. अकाली दल और कांग्रेस पार्टी में ऐसे कई नेता हैं जो खुश नहीं हैं या उन्हें टिकट से वंचित किया जा सकता है. ऐसी स्थिति में उनके पास बीजेपी और आम आदमी पार्टी में शामिल होने का ही विकल्प रहता है. बागी नेताओं का बीजेपी की तरफ रुझान ज्यादा रहेगा क्योंकि केंद्र में बीजेपी की सरकार है. वैसे भी 2022 के पंजाब चुनाव में बीजेपी के पास खोने को मात्र 3 सीट ही हैं और पाने को सरकार बनाने तक का अवसर.
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