सम्पादकीय

ध्वस्त होती धारणाओं का दौर

Rani Sahu
13 Sep 2021 7:08 AM GMT
ध्वस्त होती धारणाओं का दौर
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तीन दशक पहले अमेरिकी लेखक आल्विन टॉफलर ने एक किताब लिखी थी- पावर शिफ्ट

हरजिंदर। तीन दशक पहले अमेरिकी लेखक आल्विन टॉफलर ने एक किताब लिखी थी- पावर शिफ्ट। यह उनकी तीसरी किताब थी और तब तक वह अपनी पहली दो किताबों फ्यूचर शॉक और थर्ड वेव से दुनिया के उन प्रतिष्ठित विचारकों में शुमार हो चुके थे, जो अतीत व वर्तमान के विश्लेषण के साथ-साथ भविष्य का जो खाका खींच रहे थे, वह ज्यादातर लोगों को विश्वसनीय लगने लगा था।

इस किताब में टॉफलर हमें बताते हैं कि सत्ता के स्रोत या संसाधन अब पूरी तरह बदल गए हैं या फिर तेजी से बदल रहे हैं। एक दौर था, जब सत्ता बाहुबल से तय होती थी। जिसके पास ज्यादा बाहुबल होता, अंत में वही सत्ता पर काबिज हो जाता। फिर, जब समाज विकसित हुआ, तो सत्ता का स्रोत बाहुबल नहीं, संपत्ति हो गया। बाहुबल अपनी जगह रहा, लेकिन वह दूसरे दर्जे की चीज बन गया। जिसके पास संपत्ति है, वह कहीं भी, कभी भी बाहुबल को खरीद सकता है। इसके बाद हम ऐसे युग में पहुंचने लगे, जहां ज्ञान सत्ता का स्रोत बनने लग गया। अगर आपके पास समुचित और सार्थक ज्ञान है, तो कोई भी आपको संपत्ति हासिल करने से नहीं रोक सकता और फिर बाहुबल तो आप खरीद ही लेंगे। यानी, पिछली सदी के अंतिम दशक में ज्ञान वहां प्रतिष्ठित होता दिख रहा था, जहां संपत्ति और बाहुबल उसके अनुचर बनने को तैयार थे। हालांकि, बाद में कुछ लोग सत्ता के इस स्रोत को सूचनाओं और फिर डाटा तक ले गए, पर फिलहाल हम अपनी बात को टॉफलर तक ही सीमित रख रहे हैं।
वैसे टॉफलर ने कोई नई बात नहीं कही थी। चार सदी पहले तकरीबन यही बात ब्रिटिश दार्शनिक फ्रांसिस बेकन ने भी कही थी। टॉफलर की पावर शिफ्ट की महत्वपूर्ण बात यह थी कि जिस समय यह किताब बाजार में आई, उस समय एक सदी बीत रही थी और दुनिया अगली सदी के लिए पलक पांवडे़ बिछा रही थी। यह धारणा लगातार मजबूत हो रही थी कि अगली सदी ज्ञान की सदी होने वाली है। सूचना क्रांति का विस्फोट भी लगभग इसी दौर में हुआ था, और मोबाइल फोन तब तक जिन लोगों की जेब में नहीं पहुंचा था, उनके दिमाग में इसे हासिल करने का सपना घर करने लगा था। इंटरनेट की सेवाएं हर किसी तक पहुंचने के लिए बेताब थीं। यानी, टॉफलर जो कह रहे थे, उस पर यकीन न करने का किसी के पास कोई कारण नहीं था।
अगले कुछ साल में यह हो भी गया। मोबाइल फोन और इंटरनेट अगर हर किसी की जेब में नहीं पहुंचे, तो लगभग हर घर में पहुंच ही गए। लेकिन इसके साथ ही यह दुनिया कहां पहुंच गई?
इसके बाद हम चलते हैं उस अफगानिस्तान में, जहां पिछले दिनों मध्ययुगीन आस्था और बाहुबल को सबसे बड़ी ताकत मानने वाले तालिबान ने उस अमेरिका के ज्ञान गौरव को धूल चटा दी, जिसके मुकुट की शोभा सूचना युग के ज्यादातर बडे़ कॉरपोरेट बढ़ाते हैं। बेशक हम यह कह सकते हैं कि तालिबान ने अमेरिका को किसी युद्ध में नहीं हराया, वह तो खुद ही वहां से भाग निकला, क्योंकि उसे एहसास हो गया था कि ताकत के बल पर अफगानिस्तान पर शासन तो किया जा सकता है, लेकिन उसे जीता नहीं जा सकता। यह भी कहा गया कि अमेरिका वहां दो दशक और रह लेता, तब भी अफगानिस्तान के हालात नहीं बदलने वाले थे और उसे तब भी इन्हीं स्थितियों में इस देश को छोड़ना पड़ता। शायद यह सब सच भी है, लेकिन इसका एक अर्थ यह भी है कि सिर्फ ज्ञान, धन और आला दर्जे की फौजी ताकत के बल पर न तो पूरी दुनिया की सत्ता हासिल की जा सकती है, न ही किसी समाज को हमेशा के लिए बदला जा सकता है।
इसी अफगानिस्तान में हम जब आगे बढ़ते हैं, तो हमारी मुलाकात होती है मौलवी नूरुल्लाह मुनीर से, जो फिलहाल तालिबान की तदर्थ सरकार के शिक्षा मंत्री हैं। वह अफगानिस्तान को ही नहीं, पूरी दुनिया को बताते हैं कि इस एमए और पीएचडी में क्या रखा है। तालिबान नेता तो दसवीं पास भी नहीं हैं, लेकिन महान हैं। जिस ताकत ने पूरे दो दशक तक अमेरिका के तमाम आलिम फाजिल को छकाने के बाद उन्हें हार मान लेने को मजबूर कर दिया हो, उसका उच्च शिक्षा के विरुद्ध इस तरह का दंभ कोई हैरत में डालने वाला नहीं है। वैसे मौलवी मुनीर जिस समय यह कह रहे थे, उन्हें खुद भी पता नहीं होगा कि वह इसके साथ फ्रांसिस बेकन व आल्विन टॉफलर की स्थापनाओं को भी श्रद्धांजलि दे रहे हैं।
मुमकिन है कि आज हम अफगानिस्तान में जो बुद्धि-विरोधी रुझान देख रहे हैं, अगले दिनों में कुछ क्रूर उदाहरणों के साथ हमारे सामने आए। लेकिन बुद्धि विरोध का यह रुझान सिर्फ तालिबान की ईजाद नहीं है। इस समय आप दुनिया के किसी भी कोने में चले जाएं, आपको यह रुझान कम या ज्यादा फलता-फूलता दिख जाएगा। थोड़ा ही पीछे जाएं, तो कोविड संक्रमण के शुरुआती दौर में अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने जो इलाज बताए, वे इसका सबसे अच्छा उदाहरण हैं। बुद्धिजीवियों का मजाक उड़ाने का काम तो वह इसके पहले से ही कर रहे थे। महामारी के दौर में यह रुझान पूरी दुनिया में कई तरह से सतह पर आता दिखा। एक नई चुनौती से निपटने के लिए लोग नए ज्ञान के बजाय सदियों पुराने टोटकों की गोद में जाते दिखे। बुद्धि से विरोध का यह सिलसिला दुनिया के लिए नया नहीं है। अतीत में विभिन्न मौकों पर यह कई जगह दिखा है। जैसे, चीन में साम्यवादी क्रांति के बाद वहां बुद्धिजीवियों को लंबे समय तक जलील किया गया था। ऐसे कई उदाहरण हैं। जिसे हम 'एंटी इंटलैक्चुअलिज्म' कहते हैं, अब वह पहली बार पूरी दुनिया में एक साथ दिख रहा है और कई जगह तो मुख्यधारा बनने को बेताब है। भले ही हर जगह इसमें वह भोंडापन नहीं है, जो फिलहाल अफगानिस्तान में दिख रहा है, पर किसी न किसी मात्रा में यह हर जगह पांव पसार रहा है। और यह सब उस सदी में हो रहा है, जिसे हम ज्ञान की सदी मानकर चल रहे थे।


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