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जातिगत जनगणना से बढ़ेगी समानता, ये आंकड़े कर सकते हैं कई समस्याओं का समाधान
जनता से रिश्ता वेबडेस्क| संजय पोखरियाल| Caste Census of India जातिगत जनगणना से बढ़ेगी समानता जाहिर है पिछड़े वर्गों की संख्या 55 प्रतिशत के आसपास आते ही आरक्षण का कोटा बढ़ाने की मांग तेज होगी। कुल मिलाकर जातिगत जनगणना के आंकड़े कई समस्याओं का समाधान कर सकते हैं।
केसी त्यागी। छले कई महीनों से देश में जातिगत जनगणना और आरक्षण के मुद्दे छाए हुए हैं। इस संबंध में गत दिनों बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के नेतृत्व में 11 सदस्यीय प्रतिनिधिमंडल की प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से सौहार्दपूर्ण माहौल में बात हुई। नीतीश कुमार ने पटना लौटने पर यह वक्तव्य दिया कि प्रधानमंत्री ने जातीय जनगणना की मांग को नकारा नहीं। इस पर भाजपा के नेता सुशील कुमार मोदी ने कहा कि भाजपा ने कभी जाति एवं जनगणना का विरोध नहीं किया है। यह सुखद है कि आज कम्युनिस्ट भी जातीय जनगणना के सवाल पर चिंता एवं विमर्श साझा कर रहे हैं।
संसद में भी काफी समय बाद ऐसी सर्वमान्य एकता दिखी जब सभी राजनीतिक दलों के सांसदों ने एक मत होकर राज्यों को पिछड़ी जातियों को चिन्हित करने का अधिकार दिया। शीर्ष अदालत के एक निर्णय के बाद से ये अधिकार केंद्र के पास सुरक्षित थे। ऐसी एकता युद्ध या किसी बड़े राष्ट्रीय संकट जैसे असामान्य अवसरों पर ही दिखाई पड़ती है। इसके गहरे निहितार्थ हैं। इससे देश में जातिगत जनगणना की राह आसान होती नजर आ रही है
दरअसल जातिगत जनगणना की मांग सबसे पहले ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने की थी। इसके लिए बीजू जनता दल संसदीय दल ने गृहमंत्री अमित शाह से मुलाकात की थी। बिहार के साथ ओडिशा भी विधानसभा में जातिगत जनगणना का प्रस्ताव सर्वसम्मति से पारित कर चुका है। महाराष्ट्र सरकार पहले ही विधानसभा में सर्वसम्मत प्रस्ताव पारित कर चुकी है। इस दिशा में सबसे सामयिक एवं सटीक वक्तव्य ओबीसी आयोग के सदस्य जेके बजाज की तरफ से आया है।
उन्होंने कहा है कि जातिगत जनगणना के द्वारा सिर्फ व्यक्तियों की गिनती वर्गो में नहीं होती है, बल्कि इसके द्वारा समाज की विभिन्न सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों का ब्योरा भी एकत्रित किया जाता है। इसके द्वारा उनकी शैक्षणिक स्थिति आदि के आंकड़े एकत्रित किए जाते हैं। जनसंख्या के लिए स्त्री-पुरुष प्रतिशत और प्रजनन दर दर्ज की जाती है। इन वर्गो के खेती कार्यो में लगे और भूमिहीन मजदूरों की तालिका तैयार होती है। यह पता लगाया जाता है कि वे किस प्रकार के मकानों में रहते हैं। उम्र, शिक्षा, व्यवसाय, परिवार की भाषा, धर्म, और संपत्ति के सभी आंकड़े भी जातिगत जनगणना में रिकार्ड किए जाते हैं। जातीय जनगणना से यह भी पता चलेगा कि कमजोर एवं वंचित समाज तक विकास की योजनाएं किस हद तक पहुंची हैं।
जातिगत जनगणना के नए आंकड़े आने के बाद आरक्षण का दायरा बढ़ाने और इसे तर्कसंगत बनाने में मदद मिलेगी। बहरहाल मोदी सरकार ने पिछड़ी जातियों के 27 सांसदों को मंत्रिपरिषद में जगह दी है। मेडिकल-नीट में पिछड़ी जाति के उम्मीदवारों को आरक्षण देने का निर्णय किया गया है। स्मरण रहे कि 1990 में वीपी सिंह की सरकार द्वारा मंडल आयोग के फैसले को लागू करने की घोषणा की गई थी तो उसका सबसे ज्यादा विरोध मेडिकल सेवाओं में प्रवेश के इच्छुक विद्यार्थियों द्वारा ही किया गया था। तब कहा गया कि सरकार योग्यता के साथ समझौता कर रही है। संसद सदस्यों के आवास के बाहर प्रदर्शन होने लगे थे। यूथ फार इक्वलिटी जैसे संगठन बनाकर सड़कों पर हिंसक आंदोलन किया गया था। हरियाणा में तो कई करोड़ रुपये की संपत्ति तबाह हो गई थी, लेकिन इस बार केंद्र सरकार ने सावधानीपूर्वक आर्थिक आधार पर भी 10 प्रतिशत आरक्षण की घोषणा कर किसी संभावित आक्रोश को पनपने नहीं दिया।
देखा जाए को आजादी से पहले ही प्रेसीडेंसी रीजन और रियासतों के एक बड़े हिस्से की नौकरियों और शिक्षा में पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण देने की शुरुआत कर दी गई थी। महाराष्ट्र के कोल्हापुर के महाराजा छत्रपति शाहू जी महाराज ने 1901 में पिछड़े वर्गो की गरीबी दूर करने और राज्य प्रशासन में उन्हें हिस्सेदारी देने के लिए आरक्षण देना शुरू किया था। भारत में कमजोर वर्गो के कल्याण के लिए आरक्षण उपलब्ध कराने का यह पहला सरकारी आदेश था। 1901 में ही मद्रास प्रेसीडेंसी के सरकारी आदेश के तहत कमजोर वर्गो को 44 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था की गई थी। यद्यपि जातिविहीन समाज एवं स्वराज्य में सभी वर्गो और वर्णो की समान हिस्सेदारी की गूंज भी आजादी के संग्राम में सुनाई देने लगी थी। महात्मा गांधी और डा. आंबेडकर हिंदू धर्म में व्याप्त छुआछूत और सामाजिक असमानता को लेकर अपने अभियान को निरंतर धार दिए हुए थे।
औपनिवेशक शासनकाल में जाति प्रथा अपना उग्र स्वरूप लिए हुए थी। तब जाति की श्रेष्ठता के आधार पर समाज का संचालन होता था। पिछड़े एवं दलित वर्ग के लोग हेय दृष्टि से देखे जाते थे। सभी उच्च वर्ग की नौकरियों में अंग्रेजों के बाद कुछ खास वर्गो की हिस्सेदारी थी। इसके कारण पिछड़ी जातियों के बड़े समूह स्वयं को उच्च जाति का साबित करने का निरंतर प्रयास करते रहते थे। इस कारण 1931 की जनगणना को लेकर काफी विवाद है। यही वजह है कि आजाद भारत में जातिगत जनगणना की मांग तेज हुई है।
हालांकि कुछ लोग इसका विरोध भी कर रहे हैं, लेकिन उनके पास कोई ठोस तर्क नहीं हैं। वे वही योग्यता का ह्रास और जातीय विद्वेष पनपने की आशंका आदि पुरानी बातें दोहरा रहे हैं। बीते 30 वर्षो में समाज के सभी वर्गो में चेतना का संचार हुआ है। इस बीच समाज में गैर बराबरी भी बढ़ी है। पिछड़े वर्ग से जुड़े संगठन एवं समूह अपनी साझेदारी और हिस्सेदारी को लेकर व्यथित हैं और चिंतित भी।