- Home
- /
- अन्य खबरें
- /
- सम्पादकीय
- /
- पर्यावरणीय संकट व...
मनुष्य समाज जैसे-जैसे विकास की सीढि़यां चढ़ रहा है, वैसे-वैसे ज्ञान का भी विस्तार हो रहा है। ज्ञान के विस्तार के साथ विकास के नए-नए आयाम खुल रहे हैं। या यूं कहें कि विकास और ज्ञान अन्योन्याश्रित हैं। फिर भी एक सवाल तो रह ही जाता है कि विकास जनित ज्ञान या ज्ञान जनित विकास? जब जब विकास जनित ज्ञान के मार्गदर्शन में आगे बढ़ेंगे, एकांगी होने की संभावनाएं बढ़ जाएंगी, क्योंकि विकास वस्तुओं, सेवाओं और ढांचागत निर्माणों से जुड़ा होता है, जिसमें तात्कालिक समस्याओं और अपेक्षाओं से निपटना प्राथमिकता होती है। विकास का तंत्र किसके हाथ में है, इसका भी बहुत असर होता है, जिसके चलते निहित स्वार्थों का खेल चल निकलता है। फिर जिंदगी के लिए अत्यंत जरूरी हवा, पानी, मिट्टी जैसे बुनियादी तत्वों से, वस्तुएं, सेवाएं और ढांचे ज्यादा जरूरी हो जाते हैं जिनके निर्माण के लिए बुनियादी तत्वों की भेंट चढ़ाने तक से कोई संकोच नहीं होता है। इसका परिणाम वर्तमान विकसित समाज के रूप में प्रकट होता है, जहां सुविधाओं का अंबार लगता जा रहा है, किंतु हवा सांस लेने योग्य बचेगी या नहीं, इस बात की कोई गारंटी नहीं है। पीने योग्य या सिंचाई योग्य पानी बचेगा या नहीं, इस बात की कोई गारंटी नहीं है। पेट की भूख मिटाने योग्य उपजाऊ मिट्टी बचेगी या नहीं, कह नहीं सकते। मिट्टी गंवा कर उपज बढ़ाने का ज्ञान नाक गंवा कर लौंग बचाने जैसा ही है। ग्लेशियर से आने वाला शुद्ध जल 2050 आते-आते खत्म हो जाएगा। ऐसे जल संकट से कैसे निपटेंगे? हवाओं में छोड़ा जा रहा कई तरह की जहरीली गैसों का धुआं सांस लेने योग्य शुद्ध वायु कहां छोड़ने वाला है। इन्हीं गैसों के चलते होने वाले वैश्विक तापमान वृद्धि से जलवायु परिवर्तन के आसन्न खतरे से निपटने के सारे प्रयास आधे-अधूरे साबित होने की दिशा में बढ़ रहे हैं और हम तापमान वृद्धि को औद्योगिक क्रांति के स्तर से 2.5 डिग्री के भीतर रोक पाने के लिए अनमने संघर्ष में उलझे दिख रहे हैं। प्लास्टिक कचरा धरती को कचरा बनाने पर तुला है। सारे प्रयास अधूरे लग रहे हैं, क्योंकि विकास का अर्थ तो बाहुल्य हो गया है। जितना ज्यादा उपभोग उतना बड़ा इनसान। बड़ा तो सबको बनना है। उपभोग बढ़ेगा तो कचरा भी बढ़ेगा। क्या किया जा सकता है। इस तरह के बहाने हमने बना लिए हैं।
सोर्स- divyahimachal