सम्पादकीय

काव्य-सृजन में परिवेश

Gulabi
25 Oct 2021 3:42 AM GMT
काव्य-सृजन में परिवेश
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काव्य-सृजन

काव्य-सृजन में परिवेश की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। अपने युगीन सच का चित्रण करने वाला कवि ही विशिष्ट है। जिस कविता में परिवेश मुखर नहीं वह शब्दों की बाजीगरी हो सकता है किंतु जरूरी नहीं कि वह कालजयी कृति हो। परिवेश काव्य-संपदा की वास्तविक तराश है जिसकी बदौलत कवि को सही पहचान मिलती है। परिवेश रूप भर नहीं है बल्कि संस्कृति की छाप है जो आहिस्ता-आहिस्ता कविता झरती है, उसे मूल्यवान बनाती है। कोई भी साहित्यकार परिवेश से निस्संग नहीं रह सकता।


प्रकृति, समाज और सहजीवन की विविध अर्थछटाएं परिवेश से खिलती हैं। जो समाज व्यक्ति स्वतंत्रता का हिमायती होगा वहां संबंधों में सहजता, विचारों में खुलापन होगा किंतु जहां निजता खंडित और विभाजित होगी वहां परिवेशगत विविधता नहीं मिल सकती। संस्कृति और परंपरा के विविध रूप परिवेश से उपजते हैं, कलाओं में उभार, वैज्ञानिक चेतना का प्रसार, शोध-अन्वेषण यहां तक कि चेतना की उर्ध्व-यात्रा परिवेश से ही निःसृत है। परिवेश का ही कमाल है कि कोई कवि ऋषि की भांति बोलता है क्योंकि यहां परिवेश नकल के अर्थ में नहीं बल्कि अनुभूत सत्य के अर्थ में है। कालिदास, भवभूति, सूर, कबीर, तुलसी, मीरा, निराला, दिनकर, त्रिलोचन आदि को निरे कवि कहंे तो बात नहीं बनेगी, इन्होंने शब्दों के द्वारा वास्तविक सत्य तक पहुंचने का कार्य किया है। शब्द और जीवन में जो सार्थक संयोजन हो सकता है वह इनकी कविताओं में दिखता है, यही वजह है कि ये कवि नहीं ऋषि हैं।

इनकी कविता भारतीय परिवेश की गौरवशाली परंपरा को दर्शाती है जो बार-बार पढ़े जाने के बाद भी नहीं चुकती। हर बार शेष रहती है। जैसे परिवेश से जीवन लेकर पुनः नए परिवेश का सृजन कर रही हो। कोई कवि किसी विचार या दर्शन का मात्र अनुकरण करता है तो परिवेश के सूक्ष्म रूप को नहीं पकड़ सकता, उसका कृतित्व सदैव परिवेशगत ईमानदारी से ओझल रहेगा। परिवेश के सही रूप का प्राकट्य तो तभी संभव है जब संस्कृति और परंपरा को भीतर तक जज्ब किया जा सके। इतिहास की घटनाएं, जन-चरित्र, रीति-रिवाज, मेले-उत्सव, सामाजिक दाय आदि परिवेश के बहिरंग पक्ष नहीं अपितु उसकी आत्मा हैं और जब तक आत्मा की बात नहीं होगी, तब तक जीवन-बोध की बात नहीं होगी; कविता या साहित्य में विश्वसनीयता और प्रामाणिकता संदेहप्रद ही रहेगी। जीवन की सही बानगी तो परिवेश के सम्यक निरूपण से होती है। परिवेश में माटी की गंध के साथ पुरखों की विरासत, लोक परंपरा के सुघड़ रूप भासित होते हैं जिनकी सही पहचान आवश्यक है। परिवेश किसी विशेष वातावरण की झलक भर नहीं अपितु युगबोध है जिसमें सभ्यता और संस्कृति की सुंदर सांसें हैं। इतिहास और दर्शन की सुंदर कलाकारी के साथ साहित्य में परिवेश का समग्र चित्रण आवश्यक है। यह चित्रण जितना मौलिक और घना होगा उतनी ही सुवासित महक साहित्य से उठेगी। आज नई पीढ़ी की समस्या यह है कि वह अपने परिवेश से कट चुकी है और जो अपने परिवेश से कट जाता है, वह जीवन से कट जाता है। उसके जीवन में भौतिक उछाह चाहे जितनी भी हो किंतु जीवन-दर्शन की स्पष्ट कमी सदैव देखी जा सकती है। हर किसी का परिवेश एक-सा नहीं होता और न ही हर व्यक्ति का मिजाज एक-सा होता है।

परिवेश की भिन्नता ही किसी को विशेष और मुख्तलिफ बनाती है। मैदान के कवि का अनुभव निश्चित ही पहाड़ के कवि के अनुभव से भिन्न होगा। यह भी आवश्यक नहीं कि जो घटनाएं या दृश्य मैदानी कवि के हांे, हू-ब-हू वही पहाड़ी कवि के भी हों। काव्य-सृजन को पिष्टपेषण या नकल तक सीमित करना उचित नहीं जान पड़ता और न ही इसे थोपा जा सकता है। अनुभव ही परिवेश रचते हैं। जिसका अनुभव जितना विस्तीर्ण होगा उसकी कविता उतनी ही कलात्मक निखार लिए होगी। कविता को सच्चा उसका अनुभव-बोध ही बनाता है और यकीनन पहाड़ के कवियों का अनुभूत सत्य विलग है, इसलिए हिमाचल की हिंदी कविता भी विलग है। हिमाचल के कवियों की प्रकृति के साथ गहरी तदाकारिता है। यही कारण है कि इस कविता में वैसा रोष या संघर्ष नहीं जो मैदानी कवि के यहां है। पहाड़ का जीवन जटिल, दुर्धर्ष-जीवन है, बावजूद इसके कविता में चीत्कार नहीं है। कारण स्पष्ट है पहाड़ के कवि ने प्रकृति के साथ अपनत्व को समाप्त नहीं किया है। वह प्रकृति के साथ जगता है, सोता है और प्रकृति के सान्निध्य में रचता है। जिसे भी प्रकृति का अद्भुत साहचर्य प्राप्त होगा, वह थका-हारा या अवश नहीं होगा। उसकी कविता सदैव ममत्व-नेह के जल से भीगी हुई आत्मदान की कविता होगी जिसमें सतत सीखने, बनने और सिरजने का बोध होगा।

वर्तमान संदर्भ में जब वैश्वीकरण की तेज आंधी पैर पसार रही है और हर ओर पूंजी का अमोघ विस्तार है, ऐसे विघटनकारी दौर में संस्कृतियां मिट रही हैं, गांव सिकुड़ते जा रहे हैं। नगरीकरण के अथाह विस्तार ने सब कुछ मिटा दिया है। कहने को तो हम आधुनिक हुए हैं किंतु गांव-गिरांव की साझी विरासत अब खतरे में है। पुरानी स्मृतियां, गंवई-लोक और नदी-किनारे सभ्यता का खिलता हुआ रूप मानो दांव पर लग चुका है। पूंजी के अप्रत्याशित निवेश, भौतिकता की बनावटी संस्कृति आदि ने हमारी लोक-परंपराओं को पूरी तरह निगल लिया है। पुरखों की विरासत के नाम पर जगह-जगह लोक केे अनचीन्हे अवशेष देखे जा सकते हैं। आज जब शहराती परंपरा के नाम पर पेड़ काटे जा रहे हैं, पहाड़ों को जमींदोज किया जा रहा है, ऐसे विषम समय में पहाड़ अब भी गा रहे हैं, नदियां अब भी मुस्करा रही हैं, हिमाचल का हिंदी साहित्य इसका जीवंत प्रमाण है। घुमक्कड़ी का शौक रखने वाले सैलानी जब पहाड़ देखते हैं तो उन्हें प्राकृतिक सौंदर्य की इंद्रधनुषीय तूलिका भर दिखती है। ओस में भीगे हुए निवासियों के पसीने ओझल हो जाते हैं किंतु हिमाचल के हिंदी कवियों ने अपने परिवेश को जिया है। इनकी कविताओं में पहाड़ के लोगों के पहाड़-भर दुखों के साथ प्रकृति का विराट संगीत भी दिखता है जिसमें कलागत ईमानदारी के साथ परिवेश की सुंदर उद्भावना भी दृष्टिगोचर होती है।

चंद्रकांत सिंह, मो.-8219939068

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