सम्पादकीय

पर्यावरण को केवल सरकारी नीतियों और प्रशासन के माध्यम से संरक्षित नहीं किया जा सकता

Gulabi Jagat
5 Jun 2022 7:05 AM GMT
पर्यावरण को केवल सरकारी नीतियों और प्रशासन के माध्यम से संरक्षित नहीं किया जा सकता
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डा. अनिता भटनागर जैन। पिछले कुछ दिनों में ऐसी तमाम खबरें देखने को मिलीं कि भारत में मार्च-अप्रैल में पिछले 122 वर्षों में सबसे अधिक गर्मी पड़ी, दिन का तापमान 50 डिग्री सेल्सियस तक पहुंचा, अंटार्कटिका में लू चली, विश्व के 50 सबसे प्रदूषित शहरों में 35 भारत के। दिल्ली लगातार चौथी बार विश्व का सबसे प्रदूषित शहर रही। ऐसी खबरों के अलावा इन सूचनाओं से भी हम अनभिज्ञ नहीं हो सकते कि इंडोनेशिया की राजधानी जकार्ता समुद्र के बढ़ते जल स्तर के कारण डूब रही है और अब नई राजधानी दूसरे टापू पर बनाई जाएगी, पहाड़ों से निकलती अलकनंदा नदी की मछलियों में और समुद्र से प्राप्त नमक में भी प्लास्टिक के कण मिले, असंतुलित जलवायु और अत्यधिक तापमान के कारण दुनिया में गेहूं की उपज कम हुई। आज जब हम विश्व पर्यावरण दिवस मना रहे हैं तो उपरोक्त खबरों पर हमें गंभीरता से विचार करना चाहिए। इस बार पर्यावरण दिवस का संदेश 'केवल एक पृथ्वी' है।
अरबों गैलेक्सियों के बावजूद हम सब यानी मनुष्य, पेड़-पौधे, जीव-जंतु आदि केवल इस पृथ्वी पर ही जीवित रह सकते हैं और वह भी तब, जब वायु, समुद्र, नदी, तालाब, मृदा आदि पर मंडरा रहे खतरे दूर हो सकें। यह माना जा रहा है कि वर्तमान पीढ़ी ही है, जो पृथ्वी को सहेज सकती है। पृथ्वी के संरक्षण की आवश्यकता क्यों? क्योंकि जीव-जंतुओं और पेड़-पौधों की विभिन्न प्रजातियों के विलुप्त होने की गति सामान्य से 10 हजार गुना अधिक है। पिछले 25 वर्षों में गिद्ध सहित 8,462 प्रजातियां सदैव के लिए विलुप्त हो गई हैं। 4,415 प्रजातियों का अस्तित्व अत्यधिक खतरे में है। गौरैया को बचाने के लिए अब हम गौरैया दिवस मनाते हैं। कदाचित 2050 तक मछलियां बचेंगी ही नहीं। यदि इन सबके अस्तित्व पर प्रभाव पड़ रहा है तो निश्चित रूप से मनुष्य पर भी खतरा मंडरा रहा है। दुनिया में पीने का पानी तेजी से कम हो रहा है। ग्लेशियर तेज गति से पिघल रहे हैं जिससे समंदरों का जलस्तर बढ़ रहा है। चूंकि करीब 80 करोड़ लोग समुद्र से सौ किलोमीटर की दूरी पर ही रहते हैं, इसलिए उनके विस्थापन का खतरा पैदा हो गया है। गत 12 वर्षों में विश्व में 5.34 करोड़ लोग प्राकृतिक आपदाओं के कारण विस्थापित हुए भी हैं।
विश्व की 33 प्रतिशत कृषि योग्य भूमि की गुणवत्ता कम हो चुकी है, पर खाने वालों की संख्या में वृद्धि हो रही है। गर्म होते समंदरों के कारण अन्य देशों के साथ भारत में भी साइक्लोन आने की संख्या तेजी से बढ़ी है। आखिर पर्यावरण संरक्षण की पहल कौन करेगा? पर्यावरण को केवल सरकारी नीतियों और प्रशासन के माध्यम से संरक्षित नहीं किया जा सकता। यह काम तभी संभव है, जब प्रत्येक नागरिक अपने कर्तव्यों का निर्वहन करे। इतिहास में बड़े परिवर्तन लोगों के एकजुट प्रयास से ही आए हैं। दुख की बात है कि अधिकांश लोग यह मानते हैं कि वे समस्या का हिस्सा हैं ही नहीं और निदान कोई दूसरा करेगा। आवश्यकता है कि हमारी जीवनशैली पर्यावरण संरक्षण की हो। हम पर्यावरण और नैतिकता के गहरे संबंध को समझें।
हमारी संस्कृति तो वैसे भी पेड़-पौधों, पशु-पक्षियों को आदर देने की रही है। बिना आक्सीजन के हम जीवित नहीं रह सकते। एक व्यक्ति को एक दिन में 14,000 लीटर हवा की आवश्यकता होती है। 70 वर्ष की आयु तक जीवित रहते हुए प्रत्येक व्यक्ति करीब उतनी आक्सीजन का उपयोग कर लेता है, जो 65 वृक्ष अपने पूरे जीवन काल में देते हैं। सवाल है हमने कितने वृक्ष लगाए और उनकी देखभाल भी की? एक शोध के अनुसार 16 वर्ष पूर्व, प्रत्येक दिन केवल दिल्ली में ही ट्रैफिक लाइट पर वाहनों का इंजन बंद न करने के कारण 4.22 लाख लीटर पेट्रोल एवं डीजल व्यर्थ हो रहा था। सोचिए आज देश भर में यह आंकड़ा कितना बढ़ गया होगा? क्या हम ट्रैफिक लाइट पर गाड़ी का इंजन बंद नहीं कर सकते? क्या अपने आसपास पैदल या साइकिल से नहीं जा सकते? क्या हम अपने घर, कार्यालय में अनावश्यक बिजली का उपयोग बंद कर सकते हैं? क्या हम प्राकृतिक रोशनी का इस्तेमाल कर सकते हैं? हमें रिड्यूस, रियूज, रिसाइकिल से आगे जाकर सबसे महत्वपूर्ण रिफ्यूज यानी मना करने की आदत डालनी होगी।
आज के भौतिकवादी युग में सामान खरीदना एक मनोवैज्ञानिक बीमारी सी हो गई है। जिन वस्तुओं की आवश्यकता नहीं है, हम उन्हें न खरीदें। संसाधनों के अनावश्यक उपयोग रोकने से पानी, बिजली, कोयला सब बचाए जा सकते हैं। एक कपड़े की कमीज बनाने में सैकड़ों लीटर पानी का इस्तेमाल होता है। क्या हमने गौर किया कि हमारे पास कितने कपड़े हैं? सिंगल यूज का परिणाम भयावह है। एक दिन में विश्व में 144 करोड़ प्लास्टिक की बोतलों का उपयोग होता है। जब हम बाजार जाएं तो अपना थैला साथ रखकर संसाधन एवं कूड़ा बचाने में बहुत बड़ा योगदान कर सकते हैं। इसी तरह कागज के कम उपयोग से वृक्ष बचाए जा सकते हैं। होटलों में ठहरते समय प्रत्येक दिन तौलिया और चादर न बदलवाकर जल बचाया जा सकता है। सूखी हुई नदियों, गिरते हुए भूगर्भ जल के दृष्टिगत हम अपने मकान, कार्यालय, मोहल्ले में मिलजुल कर स्वयं रेन वाटर हार्वेस्टिंग करा सकते हैं। याद रखें हम पृथ्वी के केवल ट्रस्टी हैं। हमें आने वाली पीढिय़ों के लिए इस पृथ्वी का उपयोग इस प्रकार करना है कि उन पीढिय़ों को भी संसाधन मिल सकें। वर्तमान में पृथ्वी के संसाधनों का इतना उपयोग हम कर रहे हैं, जो डेढ़ पृथ्वी से अधिक के हैं। आज हमें इस पर गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है कि हम अपनी 'धरती मां' के लिए क्या कर रहे हैं, जिसकी वजह से हमारा अस्तित्व है? 'केवल एक पृथ्वी' यानी अपने अस्तित्व को बचाने का एकमात्र समाधान अपने आप से शुरुआत है।

(लेखिका पूर्व आइएएस अधिकारी हैं एवं लंबे समय से पर्यावरण के क्षेत्र में कार्य कर रही हैं)
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