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वर्ष 1947 में देश के विभाजन के पश्चात भारत और पाकिस्तान का राष्ट्र के रूप में उदय एक साथ ही हुआ था
सीबीपी श्रीवास्तव। वर्ष 1947 में देश के विभाजन के पश्चात भारत और पाकिस्तान का राष्ट्र के रूप में उदय एक साथ ही हुआ था। भारत की संविधान सभा के जरिए एक अंतरिम सरकार का गठन कर लोकतंत्र की नींव रखी गई और 26 नवंबर 1949 को ही भारत के संविधान का अधिनियमन कर 26 जनवरी 1950 से उसे प्रभावी बना दिया गया, ताकि लोकतांत्रिक प्रक्रिया के द्वारा स्थाई संसदीय लोकतंत्र स्थापित किया जा सके। कानूनों के दायरे में भारतीय लोकतंत्र ने कार्य आरंभ किया और यह सिद्ध हो गया कि भारत संसदीय लोकतंत्र के संचालन के लिए विधि के शासन को सबसे अधिक महत्व देता रहेगा।
इसके विपरीत, पाकिस्तान के निर्माण की प्रक्रिया ने उसकी शासन व्यवस्था को गंभीर रूप से प्रभावित किया। ध्यातव्य हो कि पाकिस्तान का निर्माण संस्कृति, विशेषकर धर्म के आधार पर हुआ और निश्चित रूप से यह अपकेंद्री ताकतों की सक्रियता का ही परिणाम था। इस कारण, अभिजात वर्ग शासन को आम लोगों तक पहुंचाने का पक्षधर नहीं था। साथ ही, उन्हें भविष्य में फिर अपकेंद्री ताकतों को उभरने से रोकना था। हालांकि धर्म के आधार पर राज्य के निर्माण ने सत्ता में आए लोगों के लिए चुनौती भी उत्पन्न कर दी थी। इस कारण पाकिस्तान के शासकों ने एक ओर धर्म तो दूसरी ओर सेना को राजनीति से जोड़ दिया। यही कारण है कि पाकिस्तान की राजनीति में धार्मिक गुरुओं और सेना प्रमुखों का प्रभुत्व बना रहा है।
प्रबुद्ध संविधान : यह विदित है कि लोकतांत्रिक शासन पद्धति में एक प्रबुद्ध संविधान का होना अनिवार्य होता है, जिसका तात्पर्य यह है कि विधि के शासन के सिद्धांतों और दार्शनिक विचारों से प्रेरित होकर ही संविधान दिशा-निर्देश दे सकता है। भारत के संविधान में ऐसे सभी लक्षण विद्यमान हैं, लेकिन पाकिस्तान में सबसे बड़ी समस्या यह थी कि सत्तावादी मानसिकता ने संविधान सभा का लोकतांत्रिक तरीके से गठन नहीं कराया और पहली बार संविधान सभा 1955 में गठित हुई। हालांकि 1956 में पाकिस्तान का पहला संविधान लागू हुआ, लेकिन तत्कालीन राष्ट्रपति इस्कंदर मिर्जा ने संविधान को निरस्त कर सेना प्रमुख अयूब खान को मार्शल ला प्रशासक नियुक्त किया। इसने संवैधानिक प्रणाली पर पहला गंभीर प्रश्न खड़ा किया और भविष्य में सैन्य शासन की आधारशिला भी रख दी।
यहां यह उल्लेख महत्वपूर्ण है कि पाकिस्तान के उच्चतम न्यायालय ने फेडरेशन आफ पाकिस्तान बनाम मौलवी तमीज़ुद्दीन 1955 मामले में राज्य की आवश्यकता के सिद्धांत की व्याख्या करते हुए यह कहा कि आवश्यकता पडऩे पर सरकार संविधानेत्तर शक्तियों का प्रयोग कर सकती है। इसी व्याख्या ने पहले मार्शल ला की बुनियाद रखी थी। इसके विपरीत, भारत के उच्चतम न्यायालय ने भारत का निर्वाचन आयोग बनाम सुब्रमण्यम स्वामी 1996 मामले में यह स्पष्ट किया कि भारत में सामान्य रूप से राज्य की आवश्यकता का सिद्धांत लागू नहीं होगा। इसका प्रयोग निरपेक्ष आवश्यकता में ही किया जा सकता है। इसका अर्थ यह है कि यदि किसी समय किसी प्राधिकारी को यह महसूस होता है कि किसी कार्य में पक्षपात होने की आशंका है तो वह ऐसे सिद्धांत का प्रयोग कर उसे रोक सकता है। उल्लेखनीय है कि पक्षपात के विरुद्ध नियम नैसर्गिक न्याय का एक आधार स्तंभ है। दूसरी ओर, यह संविधान की सर्वोच्चता के सिद्धांत के प्रचलन का भी एक उदाहरण है।
पाकिस्तान में नया संविधान : पाकिस्तान में 1962 में एक नया संविधान लागू किया गया, लेकिन समस्या यह रही कि संसदीय लोकतंत्र के प्रविधान के बावजूद जनरल अयूब खान ने राष्ट्रपतिमूलक तंत्र स्थापित कर दिया। इस प्रकार हम देखते हैं कि पाकिस्तान में संसद को स्वतंत्र रूप से कार्य करने का अवसर ही प्रदान नहीं किया गया। सत्तावादी शासकों का यह मानना था कि कार्यपालिका की नियुक्ति एक नियत कार्यकाल के लिए होनी चाहिए और उसे संसद में बहुमत पर आधारित नहीं होना चाहिए। इसी कारण कैबिनेट की नियुक्ति और बर्खास्तगी राष्ट्रपति की इच्छा पर सीमित था। इसी आधार पर पहले दो प्रधानमंत्रियों, लियाकत खान और नजीमुद्दीन की नियुक्ति की गई थी।
वर्ष 1973 में पाकिस्तान ने फिर एक नए संविधान का निर्माण किया। इसमें हालांकि इस्लाम को राज्य के धर्म के रूप में शामिल किया गया, लेकिन धार्मिक और लोकतांत्रिक मूल्यों के बीच संतुलन बना पाने में यह संविधान भी सक्षम नहीं हो पा रहा है। एक अन्य भिन्नता जो भारत और पाकिस्तान के बीच है, वह दोनों देशों के आदर्श वाक्य या मूल सिद्धांत में है। भारत ने 'सत्यमेव जयतेÓ को आदर्श वाक्य बनाया है, जबकि पाकिस्तान का आदर्श वाक्य 'ईमान, इत्तिहाद, नजामÓ है जिसका अर्थ 'आस्था, एकता, अनुशासनÓ है। सत्यमेव जयते सत्यता या वस्तुनिष्ठता पर बल देता है और यह एक राष्ट्र के रूप में भारत को निर्देशित करता है। इसके विपरीत, एक धार्मिक राष्ट्र के रूप में पाकिस्तान आस्था पर बल देता है जिसमें व्यक्तिनिष्ठता के गुण शामिल होते हैं। ऐसी स्थिति में कई अवसरों पर शासकों ने उसी व्यक्तिनिष्ठता का प्रयोग अपनी इच्छा के अनुरूप किया है और संवैधानिक मूल्यों से अलग हट कर भी कार्य किया है। ऐसी ही स्थिति में राज्य की स्वेच्छाचारिता को बल मिलता है। भारत में संवैधानिक मूल्यों को इस रूप में रखा गया है कि कोई भी प्राधिकारी निरपेक्ष नहीं हो सकता। संविधान में इनके लिए नियंत्रणकारी समन्वय के सिद्धांत को प्राथमिकता दी गई है।
भारत में वेस्ट मिन्स्टर माडल पर आधारित संसदीय तंत्र में बहुमत को सर्वोच्च वरीयता दी गई है और कार्यपालिका पर संसद का प्रशासनिक और वित्तीय, दोनों ही नियंत्रण स्थापित है। संविधान के अनुच्छेद 75(3) में यह स्पष्ट उल्लेख है कि मंत्री परिषद लोकसभा के प्रति सामूहिक रूप से उत्तरदायी होगी।
इसी प्रकार, अनुच्छेद 112-117 के प्रविधानों द्वारा वित्त पर संसद का नियंत्रण स्थापित है। साथ ही, प्रत्येक सदन की प्रक्रिया नियमावली में भी प्रशासनिक और वित्तीय नियंत्रण के लिए स्पष्ट प्रविधान किए गए हैं। हालांकि दोनों ही देशों में राष्ट्रपति द्वारा परामर्श पर कार्य करने का उल्लेख है, लेकिन जहां भारत में अनुच्छेद 74 (1) में मंत्री परिषद द्वारा परामर्श दिए जाने का प्रविधान है, वहीं पाकिस्तान में 1973 के मौजूदा संविधान के अनुच्छेद 48 (1) में यह कहा गया है कि राष्ट्रपति कैबिनेट या प्रधानमंत्री के परामर्श पर कार्य करेगा। ऐसी स्थिति में व्यक्तिनिष्ठता के आधार पर कई अवसरों पर प्रधानमंत्री बिना कैबिनेट को विश्वास में लिए भी कोई परामर्श दे सकता है। इसी का प्रमाण हाल में उभरे संवैधानिक संकट की पृष्ठभूमि में देखा जा सकता है, जब नेशनल असेंबली के उपाध्यक्ष ने विपक्ष द्वारा लाए जाने वाले अविश्वास प्रस्ताव की प्रस्तुति को रोक दिया था, तब प्रधानमंत्री ने नेशनल असेंबली को भंग करने का परामर्श दे दिया और राष्ट्रपति ने अनुच्छेद 58 के तहत उसे भंग कर दिया। तभी उच्चतम न्यायालय ने स्वत: संज्ञान लेते हुए इन कार्यों को असंवैधानिक घोषित किया।
पाकिस्तान के संविधानविदों ने न्यायालय के इस कदम को संसदीय कार्यवाहियों में हस्तक्षेप कहा और यह भी दावा किया कि उच्चतम न्यायालय ने स्वयं ही अनुच्छेद 69 का उल्लंघन किया है। संसदीय कार्यवाहियों में न्यायिक हस्तक्षेप नहीं करने का उल्लेख भारत के संविधान (अनुच्छेद 122) में भी है। साथ ही, अनुच्छेद 121 में यह कहा गया है कि जब तक किसी न्यायाधीश को पद से हटाने का प्रस्ताव विचाराधीन नहीं है, सदन में न्यायाधीश के आचरण पर चर्चा नहीं की जाएगी। यह उपबंध विधायिका और न्यायपालिका के बीच परोक्ष रूप से शक्तियों के पृथक्कीकरण को दर्शाते हैं। दूसरी ओर, अनुच्छेद 50 में कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच शक्ति पृथक्कीकरण का स्पष्ट उल्लेख है। इस प्रकार, विभिन्न प्राधिकारियों के बीच शक्तियों का संतुलन बनाया गया है। एक अन्य महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि स्वतंत्र न्यायपालिका को निरंकुश होने से बचाने के लिए समस्त न्यायिक शक्तियां संविधान में रखी गई हैं। इसकी व्याख्या स्वयं उच्चतम न्यायालय ने भी एल चंद्र कुमार बनाम भारत संघ 1997 मामले में की है। न्यायालय ने कहा है कि हालांकि समस्त न्यायिक शक्तियां संविधान में निहित हैं, लेकिन शक्ति पृथक्कीकरण के कारण न्यायपालिका की स्वतंत्रता पूर्णत: सुरक्षित है।
इसके बावजूद किसी भी अप्रत्याशित स्थिति से निपटने के लिए अनुच्छेद 142 में उच्चतम न्यायालय अपनी आनुवांशिक शक्ति का प्रयोग कर 'पूर्ण न्यायÓ देने के लिए पहलकारी भूमिका निभा सकता है।
कुल मिलाकर, स्थिति यह है कि पाकिस्तान में लोकतंत्र को मजबूत बनाने के लिए उसे भारत से सीख लेनी ही चाहिए। यह और बात है कि संबंधों के प्रगाढ़ नहीं होने से यह चुनौती है, लेकिन एक राष्ट्र के रूप में पाकिस्तान के लिए यह अत्यंत उपयोगी होगा। इस बात से भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि दोनों देशों में लोकतंत्र की मजबूती उनके बीच के विवादों के समाधान में भी अत्यंत महत्वपूर्ण योगदान देगी।
भारतीय लोकतंत्र की परिपक्वता और मजबूती
भारत के संविधान की एक बड़ी विशेषता यह है कि इसमें कई संस्थाओं को सर्वोच्चता दी गई है, जैसे विधि निर्माण में संसद, न्यायिक पुनर्विलोकन में न्यायपालिका और नागरिकता संबंधी विषय पर कार्यपालिका। इसके बावजूद किसी भी परिस्थिति में इनके बीच टकराव नहीं होता। यही भारत के संसदीय तंत्र की सफलता की बुनियाद है। संसदीय लोकतंत्र की मजबूती शक्ति संतुलन पर सीधे निर्भर करती है। साथ ही, यह इस बात पर भी निर्भर है कि प्राधिकारियों और संस्थाओं के बीच क्षैतिज समन्वय स्थापित हो, न कि केवल लंबवत नियंत्रण। विकास को गति देने के लिए ही प्रशासन में क्षैतिज समन्वय को प्रोत्साहित किया जाता है। पाकिस्तान के संविधान में धर्म और सेना के माध्यम से सत्तावादी अभिलक्षण शामिल हैं और इसी कारण क्षैतिज समन्वय की कमी स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। दूसरी ओर, लोकतंत्र की जड़ें तभी मजबूत होती हैं, जब सामान्य जन की वास्तविक भागीदारी हो। भारत ने इसी कारण राजनीतिक, प्रशासनिक और वित्तीय, तीनों ही स्तरों पर विकेंद्रीकरण की प्रक्रिया अपनाई है और प्रतिनिधि लोकतंत्र को व्यावहारिक रूप में सहभागी लोकतंत्र बनाया है।
हालांकि भारत और पाकिस्तान 1947 तक इतिहास और संस्कृति में साझेदार रहे हैं, लेकिन दुर्भाग्यवश पाकिस्तान ने लोकतंत्र को टाप-डाउन दृष्टिकोण से देखा, जबकि भारत ने बाटम-अप दृष्टिकोण से। दृष्टिकोण की इसी भिन्नता ने पाकिस्तान में लोकतंत्र के भविष्य को सदैव संदिग्ध बनाए रखा है, जबकि भारत का लोकतंत्र परिपक्व भी है और इसने विश्व में अपनी सफलता के उदाहरण भी प्रस्तुत किए हैं।
( अध्यक्ष, सेंटर फार अप्लायड रिसर्च इन गवर्नेंस, दिल्ली )
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