सम्पादकीय

इंजीनियरिंग की भाषा, हिंदी का ओवरडोज ठीक नहीं

Gulabi
19 Dec 2020 1:57 PM GMT
इंजीनियरिंग की भाषा, हिंदी का ओवरडोज ठीक नहीं
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केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय का हाल में लिया गया एक फैसला आजकल देश के प्रतिष्ठित तकनीकी शिक्षा संस्थानों की परेशानी

जनता से रिश्ता वेबडेस्क। केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय का हाल में लिया गया एक फैसला आजकल देश के प्रतिष्ठित तकनीकी शिक्षा संस्थानों की परेशानी का सबब बना हुआ है। फैसले के मुताबिक आईआईटी और एनआईटी संस्थानों में आगामी सत्र से ही स्टूडेंट्स को हिंदी और अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने का मौका दिया जाना है। फैसले का मकसद यह बताया जा रहा है कि स्टूडेंट्स को उस भाषा में उच्च तकनीकी शिक्षा हासिल करने का अवसर मिले, जिसमें उन्होंने स्कूली पढ़ाई की है। फैसला राष्ट्रीय शिक्षा नीति की प्रमुख सिफारिशों के अनुरूप है और माना जा रहा है कि इससे गैर अंग्रेजी भाषी स्टूडेंट्स को खास तौर पर फायदा होगा। मगर फैसले से जुड़ी व्यावहारिक दिक्कतें इसका अमल करीब-करीब नामुमकिन बना रही हैं।




देश के तमाम इंजीनियरिंग कॉलेजों में तकनीकी शिक्षा अंग्रेजी में ही दी जाती है। ऐसे में अचानक हिंदी और अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में इंजीनियरिंग की शिक्षा देने वाले टीचर्स कहां से आएंगे? आईआईटी संस्थानों के लिए अच्छे टीचर्स पाना पहले से ही एक चुनौती बनी हुई है। वे इंटरनैशनल फैकल्टी पाने की जद्दोजहद में लगे हैं ताकि अपनी वर्ल्ड रैंकिंग सुधार सकें। इस बीच हिंदी और अन्य भाषाओं के शिक्षक ढूंढने की कवायद उनका फोकस बिगाड़ सकती है। फिर कोर्स बुक्स भी अंग्रेजी में ही हैं।

यही नहीं, इंजीनियरिंग स्टूडेंट्स को बहुत से रेफरेंस मटीरियल भी देखने होते हैं, जो अंग्रेजी में होते हैं। इन सबका ट्रांसलेशन कैसे उपलब्ध कराया जा सकेगा? सवाल यह भी है कि जैसे-तैसे नाम मात्र के लिए ये औपचारिकताएं कर भी ली गईं, तो इन स्टूडेंट्स का भविष्य क्या होगा? कौन सी मल्टीनैशनल कंपनी इन्हें नौकरी देगी? और, इंजीनियरिंग की पढ़ाई के नाम पर इस तरह का ढकोसला करने से आखिर क्या हासिल होने वाला है? राष्ट्रवादी भावनाओं के सहारे देसी भाषा में तकनीकी शिक्षा देने की वकालत करने वाले लोग अक्सर जर्मनी और चीन जैसे देशों का उदाहरण देते हैं। लेकिन सचाई यह है कि उन देशों में भी अब अंग्रेजी में तकनीकी शिक्षा पर जोर बढ़ रहा है। उन्हें अपनी गलती का अहसास हो गया है और वे इस गलती को सुधारने में लगे हैं। ऐसे में हम उलटे बांस बरेली को चलें, इसका कोई तुक नहीं है।

यह समझना होगा कि विज्ञान और तकनीक देश के दायरे में बंधकर रहने वाली चीज नहीं है। हमारे सुशिक्षित, प्रशिक्षित इंजीनियरों को दुनिया में हो रही अकादमिक हलचलों से न केवल परिचित होना चाहिए, बल्कि उसमें उनका दखल भी होना चाहिए। यह काम सिर्फ अनुवाद के सहारे नहीं हो सकता। अंग्रेजी ही वह पुल है जो हमारे इंजीनियरों, डॉक्टरों, वैज्ञानिकों और अन्य क्षेत्रों के एक्सपर्ट्स को उनकी ग्लोबल बिरादरी से जोड़ता है। जानबूझकर हो या अनजाने में, इस पुल को ध्वस्त करने की कोई भी कोशिश घातक है। बेहतर होगा शिक्षा मंत्रालय समय रहते अपने इस फैसले पर पुनर्विचार करते हुए इसे वापस ले ले।


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