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एक समय था जब इंजीनियरिंग पढ़ने वाले छात्रों की संख्या काफी ज्यादा थी।
आदित्य चोपड़ा| एक समय था जब इंजीनियरिंग पढ़ने वाले छात्रों की संख्या काफी ज्यादा थी। अब ऐसा लगता है कि छात्रों का इंजीनियरिंग के प्रति मोह भंग हो चुका है। 'नहीं बनना है इंजीनियर' यह ठान कर छात्र अन्य विषयों में पढ़ाई कर रहे हैं। आल इंडिया टैक्निकल एजुकेशन काउंसिल के ताजा आंकड़ों से पता चलता है कि अंडर ग्रेजुएट, पोस्ट ग्रेजुएट और डिप्लोमा स्तर पर इंजीनियरिंग सीटों की संख्या घटकर 23.28 लाख रह गई है जो दस वर्षों में सबसे कम है। कई इंजीनियरिंग संस्थान लगातार बंद हो रहे हैं और प्रवेश क्षमता में कमी के कारण इस वर्ष सीटों की कमी 1.46 लाख आंकी गई है।
2014-15 में अपने पीक पर सभी एआईसीटीई से मान्यता प्राप्त संस्थानों में इंजीनियरिंग शिक्षा में लगभग 32 लाख सीटें थीं। गिरावट का दौर सात साल पहले शुरू हुआ, जिसमें मांग कम होने के कारण कालेजों को बंद करना पड़ा, तब से लगभग 400 इंजीनियरिंग स्कूलों ने कामकाज बंद कर दिया। कुछ ने अपनी फैकल्टी बदलने की अनुमति मांगी। 2015-16 से हर वर्ष कम से कम 50 इंजीनियरिंग संस्थान बंद हो रहे हैं। इस वर्ष 63 इंजीनियरिंग इंस्टीट्यूट्स को बंद करने की अनुमति दी गई है।
कोरोना महामारी के चलते शिक्षा क्षेत्र लगातार प्रभावित हुआ है। दूसरी ओर नए इंजीनियरिंग संस्थान स्थापित करने के लिए टेक्निकल एजुकेशन रेगुलेटरी की मंजूरी भी पांच साल के निचले स्तर पर है। वर्ष 2021-22 के लिए एआईसीटीई ने 54 नए संस्थानों को मंजूरी दी थी। यह मंजूरी पिछड़े जिलों में इंजीनियरिंग कालेज स्थापित करने के लिए हैं और साथ ही राज्य सरकारें नया संस्थान शुरू करना चाहती थीं। अनेक कालेजों ने अपने यहां बी-टेक की कई विधाएं बंद कर दी हैं। इंजीनियरिंग कालेज की दुर्दशा का कारण बढ़ती बेरोजगारी, इंजीनियरों की घटती मांग और उन्हें कम वेतन या नौकरी न मिलना है। एक कारण जरूरत से ज्यादा इंजीनियरिंग कालेज खुलना और शिक्षा की गुणवत्ता का न होना भी है। देश के कुल इंजीनियरिंग सीटों का 80 प्रतिशत हिस्सा तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, केरल और हरियाणा के पास है। देश में खाली सीटों का भी 80 प्रतिशत हिस्सा भी इन्हीं राज्यों के पास है। दरअसल न तो कालेजों में मूलभूत ढांचा है और न ही उनकी सीटें पूरी हो रही हैं तो फिर इनको बंद करना ही ठीक है।
देश के इंजीनियरों की प्रतिभा कोे लेकर सवालिया निशान लगते रहे हैं। कुछ वर्ष पहले मैकिंजी की एक रिपोर्ट आई थी जिसमें कहा गया था कि भारत के सिर्फ एक चौथाई इंजीनियर ही नौकरी के लायक हैं। बाद में आई कुछ अध्ययन रिपोर्टों में यहां तक कहा गया कि इसका स्तर केवल 20 फीसदी तक ही है। यह भी कहा गया कि देश के 95 फीसदी इंजीनियरिंग ठीक से कोडिंग करना भी नहीं जानते। हालांकि देश के प्रीमियर शैक्षणिक संस्थान जैसे आईआईटी के ग्रेजुएट की डिमांड अब भी जाॅब मार्केट में बनी हुई है। समस्या देश के अन्य इंजीनियरिंग कालेज और खासतौर पर आईटीआई जैसे संस्थानों के साथ है। हर वर्ष इन संस्थानों से भी लाखों छात्र पढ़ाई पूरी करते हैं, जिनके लिए रोजगार का संकट गहरा रहा है। देश के निजी संस्थानों ने शिक्षा की गुणवत्ता पर ध्यान दिए बिना इंजीनियरिंग की डिग्रियां बांटी जिसके परिणामस्वरूप इंजीनियरों की विशाल फौज इकट्ठी हो गई, इनमें से ज्यादा रोजगार के लायक नहीं। समस्या मेें घटिया पाठ्यक्रम और पुरानी पड़ चुकी करिकुलम जैसी चीजें थीं। अब जब आटोमेशन और अन्य नई प्रौद्योगिकी से कारोबार को नए आयाम दिए जा रहे हैं तो ऐसे में उनका कोर्स अर्थहीन होकर रह गया है।
देश में 80 प्रतिशत से भी अधिक इंजीनियर बेरोजगार हैं, वहीं इंजीनियरिंग कर चुके कुछ ही छात्रों को उनके अनुभव और सिस्टम के आधार पर नौकरी मिलती है। केवल 3.84 प्रतिशत इंजीनियर के पास स्टार्टअप में साफ्टवेयर से संबंधित नौकरियों के लिए आवश्यक तकनीकी संज्ञानात्मक और भाषाई स्किल है। केवल तीन प्रतिशत इंजीनियरों के पास उन लोगों में नए पुराने तकनीकी कौशल की जानकारी है जो अब फलफूल रहे हैं। जैसे आर्टिफिशियल इंटेलिजैंसी, मशीन लर्निंग, डेटा साइंस और मोबाइल डैवल्पमैंट। इस प्रकार केवल 1.7 प्रतिशत इंजीनियरों के पास नए दौर की नौकरियों में काम करने के लिए आवश्यक कौशल है। कोरोना महामारी ने शिक्षा क्षेत्र पर बहुत बड़ा आघात किया है। केन्द्र सरकार और उच्च शिक्षा से जुड़े नियामकों को इस बात का ध्यान रखना होगा कि अब अगर नए इंजीनियरिंग संस्थान खोलने हैं तो शिक्षा की गुणवत्ता का पूरा ध्यान रखा जाए और पाठ्यक्रम भी वैश्विक स्तर पर हों। अन्यथा इंजीनियरों की फौज तैयार करने से कोई फायदा नहीं होने वाला।

Triveni
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