सम्पादकीय

ऊर्जा संकट

Subhi
2 Aug 2022 5:49 AM GMT
ऊर्जा संकट
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पिछले जितने भी चुनाव हुए हैं, उनमें सभी पार्टियां सरकारी खजाने को लुटाती दिखीं। चाहे वह केंद्र की सरकार हो या राज्य की, सब अपने-अपने तरीके से बांटने का प्रयास करती हैं

Written by जनसत्ता; पिछले जितने भी चुनाव हुए हैं, उनमें सभी पार्टियां सरकारी खजाने को लुटाती दिखीं। चाहे वह केंद्र की सरकार हो या राज्य की, सब अपने-अपने तरीके से बांटने का प्रयास करती हैं, ताकि जनता उनके प्रलोभन में आकर वोट दे और उनको कुर्सी मिल जाए। मगर इससे खतरा देश और राज्य को होता है। इसका स्पष्ट उदाहरण पड़ोसी देश श्रीलंका है, जहां की जनता ने लोकलुभावन वादे करने वाली पार्टी को सरकार बनाने दिया।

उसके बाद वहां आर्थिक संकट उत्पन्न हो गया। वैसा ही हमारे देश के कुछ राज्यों का हाल है, जो जनता से मुफ्त बिजली, मुफ्त पानी, बेरोजगारी भत्ता सहित अन्य चीजों को रेवड़ी की तरह बांट रहे हैं। उससे वे राज्य कर्ज में डूबते जा रहे हैं। अन्य महत्त्वपूर्ण कार्यों के लिए पैसा नहीं रह जाता। आजकल हर राज्य में बिजली संकट है, क्योंकि बिजली कंपनियों का पिछला बकाया अभी नहीं मिला है। तेलंगाना, यूपी, महाराष्ट्र, राजस्थान, पंजाब, गुजरात आदि कई राज्य इस समय कर्ज में हैं, जिस पर सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार से रिपोर्ट मांगी है और कहा है कि मुफ्त की चीजों पर रोक लगनी चाहिए।

दिल्ली की सत्ता को एक मायाजाल कहें तो सही होगा। दिल्ली की जनता ने अभूतपूर्व बहुमत से केजरीवाल को सत्ता सौंपी, पर उपराज्यपाल के शासन के फेर में भाजपा अभी तक अपनी जमीन ढूंढ़ती नजर आ रही है। अपने एक वक्तव्य में केजरीवाल बेशक कांग्रेस की भाषा बोलते नजर आए, सावरकर के बारे में उनका बयान अवश्य नुकसान पहुंचने वाला सिद्ध होगा। भारत अपने किसी क्रांतिकारी या वीर का अपमान स्वीकार नहीं करता। पर अभी तक दिल्ली में भाजपा को अपना मुख्यमंत्री का चेहरा नहीं मिल पाया है।

इसे क्या समझा जाए? जिस चाणक्य की रणनीति और राजनीतिक कौशल को सारा देश जानता है उनकी रणनीति दिल्ली को लेकर क्यों कारगर सिद्ध नहीं हुई। बूथ स्तर तक अपने सांसदों को लगाने के बाद भी वार्ड के चुनावों में भाजपा को वह सफलता नहीं मिली, जो मिलनी चाहिए थी। क्या दिल्ली की जनता का मन कांग्रेस और भाजपा जैसे राष्ट्रीय दलों से भर गया है? या फिर केजरीवाल का रचा मायाजाल जनता को बाहर आने का अवसर ही नहीं दे रहा। कुछ भी समझें, अभी भाजपा के लिए दिल्ली दूर है, उसे जमीन तक अपना नेटवर्क बनाने, जनहित कार्य करने वाले कार्यकर्ता खड़े करने और जनता का मन जीतने में अभी समय लगेगा। कितना समय, यह तो दिल्ली के नेतृत्व पर निर्भर करता है।

देश में कहीं शराबबंदी है, तो कहीं खुलेआम बिक्री। गुजरात में शराबबंदी है। दिल्ली और अन्य प्रदेशों में शराब की बिक्री स्वतंत्र रूप से हो रही है। एक तरफ कहा जाता है कि शराब खराब है, दूसरी तरफ दिल्ली सरकार कहती है कि नई आबकारी नीति से सरकार की आमदनी डेढ़ गुना बढ़ जाती, मगर भाजपा के लोगों ने इसका विरोध कर नई नीति लागू नहीं होने दी।

सरकार को अगर शराबबंदी करनी हो तो पूरे देश में शराब पर पाबंदी लगा दे और नहीं करनी है तो एक जैसी नीति पूरे देश में लागू कर दे, ताकि हर प्रदेश उसी नीति पर चले और उसका न तो सामाजिक विरोध हो और न ही राजनीतिक विरोध। टैक्स से होने वाली आमदनी पर भी किसी तरह के उतार-चढ़ाव की बात न उठने पाए। यह भी हो सकता है कि इसके गुण-दोष और लाभ-हानि के मद्देनजर समिति गठित करके विचार-विमर्श किया जाए और समिति जो निर्णय दे उसे संसद में बहस के बाद एक-सी नीति बना कर पूरे देश में लागू कर दी जाए ताकि सभी तरह के आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक विवादों से छुटकारा मिल सके।


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