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दुनिया में बढ़ती बिजली की मांग के कारण उत्सर्जन भी बढ़ रहा है
आरती खोसला। दुनिया में बढ़ती बिजली की मांग के कारण उत्सर्जन भी बढ़ रहा है। इस उत्सर्जन को रोकने के लिए एनर्जी ट्रांजिशन यानी ऊर्जा के रूपांतर पर जोर देने की बहुत जरूरत है। एनर्जी ट्रांजिशन हो रहा है, लेकिन आवश्यक तात्कालिकता के साथ नहीं। इससे उत्सर्जन गलत दिशा में जा रहे हैं। देश में कोयले का भंडार सीमित है और इसकी खपत वर्ष 2030 तक चरम पर पहुंचने के बाद कम होने लगेगी। जीवाश्म ईंधन पर देश के 120 जिलों की अर्थव्यवस्था निर्भर है, जहां लगभग 30 करोड़ लोग रहते हैं।
दरअसल हम अर्थव्यवस्था के हरेक क्षेत्र में स्वच्छ ऊर्जा को प्रोत्साहित करने के लिए प्रतिबद्ध हैं। भारत के औद्योगिक सेक्टर के विकास को देखते हुए देश के जलवायु लक्ष्यों को हासिल करने के लक्ष्य से स्वच्छ ऊर्जा की नियमित और स्थिर आपूर्ति ज़रूरी होगी, लेकिन कम कार्बन उत्सर्जन वाले निर्माण की तरफ बढ़ने के लिए पर्याप्त और भरोसे वाली रिन्यूएबिल ऊर्जा की आपूर्ति की ज़रूरत पड़ेगी।
जलवायु परिवर्तन इन दिनों बाजारों के नाकाम होने का एक बहुत बड़ा उदाहरण है। यह कार्बन न्यूनीकरण संबंधी बहस और अनुकूलन संबंधी चर्चा, दोनों को ही प्रभावित करता है। हमें इस बात पर भी ध्यान देना होगा कि हम ऊर्जा रूपांतरण की व्याख्या किस तरह से करते हैं। जापान में सोचा जाता है कि पर्यावरण पर चर्चा दरअसल एक आर्थिक रूपांतरण है जबकि भारत में हम इसे सहलाभ संबंधी चर्चा के तौर पर देखते हैं।
भारत में पवन और सौर ऊर्जा उत्पादन की लागत में कमी आ रही है । उसको देखते हुए ये दोनों ज्य़ादा प्रतियोगी ऊर्जा स्रोत बनते जा रहे हैं। ऐसे में आगे आने वाले समय में भारत की ऊर्जा सुरक्षा अब सौर और पवन ऊर्जा के बुनियादी ढांचे के लिए एक विविध आपूर्ति चेन बनाने पर निर्भर करेगी।
एनर्जी ट्रांज़िशन के अनेक आयाम और तत्व हैं। अगर हम ऐसा चाहते हैं कि उनका संचालन सुचारू रूप से हो और वह नागरिकों की वास्तव में मदद करे तो हमें उन्हें समझना ही होगा। जब हम स्वच्छ ऊर्जा में रूपांतरण की बात करते हैं तो हमें यह भी याद रखना चाहिए कि आमतौर पर इसका मतलब स्वच्छ बिजली रूपांतरण से लगाया जाता है लेकिन यह ऊर्जा रूपांतरण का एक बहुत छोटा-सा हिस्सा है। देश की 70% ऊर्जा का इस्तेमाल बिजली के रूप में नहीं किया जाता, लिहाजा ऊर्जा रूपांतरण एक बहुत बड़ा सवाल है।
ऊर्जा रूपांतरण को एक ऐसा तंत्र बनाना होगा जिसकी ज्यादा से ज्यादा स्वीकार्यता हो। अगर हम भारत में नियामक तंत्र पर नजर डालें तो पर्यावरण नियमन एजेंसियां समाज द्वारा उठाई जाने वाली आपत्तियों को सुलझाने का काम नहीं करती हैं। सच्चाई यह है कि इन दोनों पहलुओं का आपस में कोई तालमेल ही नहीं है। तंत्र में अभी यह समझ ही विकसित नहीं हुई है कि लोग किसी बदलाव का खामियाजा किस तरह भुगतेंगे।
अगर हम भारत के कोयला उत्पादक राज्यों को देखें तो वे न सिर्फ खनन और वायु प्रदूषण से बेतरतीब ढंग से प्रभावित हैं बल्कि वे विकास की दौड़ में भी पीछे रह गए हैं। देश के बाकी हिस्सों को ईंधन उपलब्ध कराने के लिए वहां के स्कूल और अस्पताल बगैर बिजली के रह जाते हैं। जब हम ऊर्जा रूपांतरण के इस व्यापक मुद्दे को देखते हैं तो हमें यह भी ध्यान में रखना होगा कि हमें ऐसे सजग संस्थान विकसित करने होंगे जो इन समस्याओं का पूर्वानुमान लगा सकें और प्रभाव का आकलन कर सकें।
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