सम्पादकीय

राजद्रोह' खत्म करो

Rani Sahu
29 April 2022 7:07 PM GMT
राजद्रोह खत्म करो
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भारतीय दंड संहिता की धारा 124-ए की समीक्षा सर्वोच्च न्यायालय की न्यायिक पीठ करेगी

भारतीय दंड संहिता की धारा 124-ए की समीक्षा सर्वोच्च न्यायालय की न्यायिक पीठ करेगी। वह संविधान पीठ होगी या सामान्य पीठ सुनवाई करेगी, यह बाद में स्पष्ट होगा, लेकिन यह बेहद गंभीर पहल है। सुनवाई 5 मई से शुरू होगी। सर्वोच्च अदालत के सामने कुछ याचिकाएं हैं, जिनमें 1870 के इस उपनिवेशीय कानून को समाप्त करने की मांग की गई है। यह कानूनी धारा राजनीतिक और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के लिए गंभीर खतरा साबित होती रही है। सरकार के खिलाफ कुछ शब्द लिखें, बोलें या कहें अथवा कोई सरकार-विरोधी आंदोलन छेड़ें, तो इस कानून के तहत 'देशद्रोही' करार दिया जा सकता है। यह संज्ञेय और गैर-जमानती धारा है। न जाने कितने लेखकों, विचारकों, समाज-सुधारकों, बौद्धिकों, कॉर्टूनिस्टों और राजनीतिक विरोधियों को 'राजद्रोह' के तहत जेल की सलाखों के पीछे धकेला जा चुका है! यहां तक कि तमिलनाडु में कूडनकलाम परमाणु प्लांट के खिलाफ आंदोलित हजारों ग्रामीणों पर 'राजद्रोह' की धारा 124-ए चस्पा कर दी गई थी। आज के स्वतंत्र, आधुनिक और विकसित भारत में यह औपनिवेशिक कानून फिजूल और एक हथियार मात्र है, जिसकी कोई गुंज़ाइश नहीं है। सरकार के खिलाफ कथित नफरत, अवमानना और असंतोष को भडक़ाने या फैलाने के लिए तीन साल से लेकर उम्रकैद तक की सजा दी जा सकती है।

हजारों भारतीयों को महज सरकार का विरोध या आलोचना के मद्देनजर ही भारी कीमत चुकानी पड़ी है, लिहाजा सर्वोच्च अदालत में ऐसे कानून की समीक्षा और प्रासंगिकता एक स्वागतयोग्य और संवैधानिक कदम है। संभव है कि न्यायिक पीठ किसी निष्कर्ष पर पहुंचेगी कि अब यह कानूनी धारा बेमानी है, लिहाजा इसे खत्म ही किया जाना चाहिए। जब हम गुलाम थे और ब्रिटिश हुकूमत हम पर राज कर रही थी, उस दौर में ब्रिटिश साम्राज्यवादियों ने इस धारा को आदर्श कानूनी हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया। ब्रिटिश सिंहासन पर कोई टिप्पणी करना तक 'देशद्रोह' माना जाता था। बाल गंगाधर तिलक और महात्मा गांधी सरीखे असंख्य स्वतंत्रता सेनानियों को इसी कानून के तहत जेलों में ठूंसा गया। उन क्रांतिवीरों ने जो राजनीतिक विश्लेषण किए, अख़बारों में जो लिखा अथवा वक्तव्य दिए, उनके अलावा कोई ऐसा आधार नहीं था कि उनके खिलाफ 'राजद्रोह' का केस बनाया जा सकता, गोरों ने उन्हें ही आधार बनाया और उन्हें 'देशद्रोह' करार दिया। आज हम 75 साल से स्वतंत्र देश हैं, लेकिन आज की गणतांत्रिक सरकारें भी वही कर रही हैं कि विचारों, शब्दों, कॉर्टून आदि की अभिव्यक्ति पर 'देशद्रोही' मान रही है। अपने विरोधियों को निशाना बना रही हैं।
सर्वोच्च अदालत को ऐसी धारणाओं के खिलाफ फैसला सुनाना चाहिए, ताकि सरकार और पुलिस की मानसिकता 'मानवीय' हो सके। 1962 में केदारनाथ सिंह केस में सर्वोच्च अदालत ने सार्वजनिक जन-व्यवस्था, राज्य की एकता, अखंडता और सुरक्षा के लिए खतरों और स्थितियों के मद्देनजर फैसला दिया था कि 'राजद्रोह' क्या हो सकता है? एक आम परिभाषा देने की कोशिश की गई थी। वह केस इस संदर्भ में मानक माना जाता रहा है, लेकिन छह दशकों के बाद भी सरकार और पुलिस पर उस फैसले का प्रभाव दिखाई नहीं देता। अदालतें बार-बार दोहराती रही हैं कि सरकार की आलोचना या उसके खिलाफ जन-आंदोलन 'राजद्रोह' नहीं हैं, लेकिन यह संदेश भी व्यवस्था तक पहुंच नहीं पाया है। हालांकि ऐसे मामले अदालतों में टिक नहीं पाते और सरकारें 'राजद्रोह' को साबित नहीं कर पातीं, लेकिन फिर भी 124-ए का दुरुपयोग किया जाता रहा है। राजनीतिक प्रतिशोध के लिए यह धारा सबसे कारगर हथियार साबित होती रही है। सरकार आंख से इशारा करती है और थानों में मौजूद पुलिस 'विरोधी' को उठा लाती है और फिर जेल में लंबी यातनाएं झेलनी पड़ती हैं। सामाजिक अपमान अलग से किया जाता है। क्या भारत जैसे संवैधानिक देश में ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए? आतंकियों, अलगाववादियों, घोषित देश-विरोधियों, उग्रवादियों के मामले अपवाद स्वरूप हो सकते हैं, क्योंकि ऐसे तत्त्व देश की संप्रभुता के लिए खतरा साबित हो सकते हैं, लेकिन उनकी भी गहन जांच-पड़ताल के बाद ऐसा किया जाए, लेकिन 124-ए में संशोधन जरूरी है। एक आम आलोचक 'देशद्रोही' नहीं हो सकता। जिस ब्रिटेन ने सौगात में ऐसा कानून भारत को दिया था, खुद उसने 2009 में 'राजद्रोह' का कानून खंडित कर दिया। उनके विधान में अब यह कानून नहीं है। हमारी सर्वोच्च अदालत भी इस पर विचार कर सकती है।

क्रेडिट बाय दिव्याहिमाचली


Rani Sahu

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