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- संसद में गतिरोध खत्म...
आदित्य चोपड़ा| लोकतन्त्र में संसद की महत्ता इस प्रकार विवेचित है कि इसके पास देश के किसी भी संवैधानिक पद पर प्रतिष्ठापित व्यक्ति के विरुद्ध अभियोग चलाने का अधिकार है। इसके साथ ही जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से चुनी गई लोकसभा के पास अधिकार है कि वह इस सदन में बहुमत के आधार पर किसी भी दल या दलों के गठबन्धन को सत्ता पर काबिज करे और उसके अल्पमत में आने पर उसे हटा दे। इसे देश का सर्वोच्च सदन कहने के पीछे मन्तव्य यही है कि इसकी समन्वित सत्ता के आगे देश का प्रत्येक संवैधानिक संस्थान नतमस्तक हो परन्तु संसद को यह सर्वोच्चता भारत का संविधान ही देता है और तय करता है कि इसमें जनता द्वारा परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप से चुने गये प्रतिनिधि उसका सच्चा प्रतिनिधित्व करते हुए अपने दायित्व का शुद्ध अन्तःकरण से निर्वहन करें। इस संसद की संरचना सत्ता व विपक्ष में बैठे हुए राजनीतिक दलों के सदस्यों से बनती है। इनका कर्त्तव्य होता है कि वे सत्ता पर आसीन सरकार को संविधान के अनुसार काम करते हुए देखें। यह कार्य वे अपने-अपने सदनों के बनाये गये नियमों में बंध कर इस प्रकार करते हैं कि हर हालत में उनका लक्ष्य जनहित व राष्ट्रहित रहे। इसी जनहित व राष्ट्रहित को देखते हुए हमारे संविधान निर्माताओं ने संसद के माध्यम से सत्ता पर काबिज किसी भी सरकार की जवाबदेही संसद के प्रति नियत की और सुनिश्चित किया कि विपक्ष में बैठे सांसदों की यह जिम्मेदारी होगी कि वे सरकार के हर फैसले या कदम की संसद के भीतर तसदीक करें और इस कार्य के लिए संसद के सदनों द्वारा बनाये गये नियमों का पालन करते हुए किसी भी जनहित के मुद्दे पर सरकार से जवाबतलबी करें। गौर करिये यदि ऐसा न होता तो दोनों सदनों राज्यसभा व लोकसभा में ध्यानाकर्षण प्रस्ताव से लेकर शून्यकाल व कामरोको प्रस्ताव तक का प्रावधान क्यों किया गया होता? ये सब हथियार विपक्ष को इसलिए दिये गये जिससे बहुमत के गरूर में कोई भी सरकार निरंकुश न हो सके।