सम्पादकीय

आखिर पाबंदी

Subhi
29 Sep 2022 4:39 AM GMT
आखिर पाबंदी
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पिछले कुछ दिनों से इस संगठन के खिलाफ लगातार चल रही कार्रवाई का सिरा अब अपने अंजाम पर पहुंच गया लगता है। गैरकानूनी गतिविधि रोकथाम कानून यानी यूएपीए के प्रावधानों के तहत इसे गैरकानूनी घोषित करते हुए सरकार की ओर से कहा गया है

Written by जनसत्ता; पिछले कुछ दिनों से इस संगठन के खिलाफ लगातार चल रही कार्रवाई का सिरा अब अपने अंजाम पर पहुंच गया लगता है। गैरकानूनी गतिविधि रोकथाम कानून यानी यूएपीए के प्रावधानों के तहत इसे गैरकानूनी घोषित करते हुए सरकार की ओर से कहा गया है कि यह संगठन और इससे संबद्ध संस्थाएं सार्वजनिक तौर पर तो सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक रूप से काम करते हैं, मगर किसी खास एजेंडे के तहत समाज के एक वर्ग विशेष के बीच कट्टरता फैला कर लोकतंत्र की अवधारणा को कमजोर करने की दिशा में काम करते हैं।

जाहिर है, अगर सरकार के आरोप सही हैं तो पीएफआइ एक तरह से संवैधानिक प्राधिकार और ढांचे का खयाल रखना जरूरी नहीं समझता। ऐसे में उस पर लगाई गई पाबंदी को प्रथम दृृष्टया सही कहा जा सकता है। हालांकि कुछ अन्य संगठनों ने इस तरह पाबंदी लगाने को अलोकतांत्रिक कहा है, लेकिन सवाल है कि क्या बिना किसी मजबूत आधार के सरकार किसी संगठन के खिलाफ इतनी सख्त कार्रवाई कर सकती है!

दरअसल, हाल में पीएफआइ से संबंधित ठिकानों पर सुरक्षा एजंसियों ने जिस तरह छापे मारे और सवा दो सौ से ज्यादा लोगों को गिरफ्तार किया, शायद उसी में सरकार को इस बात के आधार मिले कि वह इस संगठन को लेकर क्या रुख अख्तियार करे। यों पीएफआइ की गतिविधियों को लेकर काफी समय से शक जाहिर किया जा रहा था कि क्या यह देश के संविधान के ढांचे के खिलाफ भी कोई काम कर रहा है, मगर देश के लोकतांत्रिक स्वरूप में अलग-अलग विचारों और उसकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के सिद्धांत की वजह से कार्रवाई टलती रही।

मगर अब सरकार का मानना है कि पीएफआइ और इसके सहयोगी संगठन या इससे जुड़ी संस्थाएं उन गैरकानूनी गतिविधियों में संलिप्त हैं जो देश की अखंडता, संप्रभुता और सुरक्षा के खिलाफ हैं। साथ ही इससे शांति और सांप्रदायिक सद्भाव का माहौल खराब होने और देश में उग्रवाद को प्रोत्साहन मिलने की आशंका है। अगर इन आरोपों के दायरे में पीएफआइ की कोई भी गतिविधि आती है तो यह गंभीर चिंता की बात है और स्वाभाविक ही सरकार ने इस मसले पर एक बड़ा कदम उठाया है।

इसमें दो राय नहीं कि देश के लोकतांत्रिक ढांचे में किसी भी संगठन को अपने विचारों या मतों के प्रचार-प्रसार का अधिकार है और पीएफआइ इसी के तहत अपनी जमीन मजबूत बना रहा था। लेकिन अगर आइएसआइएस यानी इस्लामिक स्टेट आफ इराक एंड सीरिया जैसे आतंकवादी समूहों के साथ उसके संपर्क के उदाहरण हैं तो इसे लोकतांत्रिक अधिकारों की किस परिभाषा के तहत देखा जाएगा? किसी भी समुदाय के संवैधानिक अधिकारों के लिए राजनीतिक आंदोलन करने या आवाज उठाने से किसी को भी आपत्ति नहीं हो सकती, मगर लोगों के भीतर एकांगी या कट्टर विचार के साथ असुरक्षा का भाव भरने को कैसे उचित ठहराया जा सकता है?

हालांकि देश के कुछ राजनीतिकों की ओर से ऐसी दलीलों के आधार पर अलग-अलग संगठनों पर प्रतिबंध लगाने को लेकर सरकार की कार्रवाई में भेदभाव पर सवाल उठाया गया है और उसके अपने संदर्भ हैं। मगर यह देखने की बात होगी कि अब से पहले सार्वजनिक रूप से निर्बाध अपनी गतिविधियां संचालित करने और आम लोगों के हित में काम करने का दावा करने वाला संगठन पीएफआइ अपने ऊपर लगे आरोपों को गलत साबित करता है या फिर एक बार और यह सामने आता है कि किसी समुदाय के भीतर असुरक्षाबोध पैदा करके हासिल किए गए समर्थन के बल पर कोई अलगाववादी संगठन गैरकानूनी तरीके से अपनी गतिविधियां संचालित कर रहा था!

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