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- रोजगार के सवाल

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By: divyahimachal: भारत में बेरोजगारी और महंगाई सबसे अहम राष्ट्रीय मुद्दे हैं। विडंबना है कि इन मुद्दों पर अधिकतर जनादेश तय नहीं किए जाते। आजकल महिला आरक्षण की खूब गहमागहमी है। सामान्य आरक्षण भी ऐसा ही संवेदनशील मुद्दा है। आरक्षण से ज्यादा जरूरी रोजगार है, ताकि महिलाएं भी पीढ़ी-दर-पीढ़ी ‘अवैतनिक कामकाजी’ न रह सकें और औसत भारतीय आत्मनिर्भर बन सके। देश के प्रधानमंत्री मोदी भी आजकल क्रिकेट स्टेडियम का शिलान्यास करें या ‘यशोभूमि’ इवेंट कॉन्प्लैक्स का उद्घाटन करें अथवा किसी प्रदर्शनी में जाएं, तो वह हर जगह रोजगार की बढ़ोतरी के दावे करते हैं। देश में बड़े-बड़े राजमार्ग और एक्सप्रेस-वे भी बनाए जा रहे हैं, जाहिर है कि उनमें भी रोजगार पैदा होते होंगे। उनके निर्माण के समानांतर अन्य आर्थिक गतिविधियां भी बढ़ती हैं। बेशक हमारी अर्थव्यवस्था की विकास-दर करीब 8 फीसदी है, लेकिन प्रति व्यक्ति इसका औसत करीब 4.5 फीसदी ही है। कोरोना वैश्विक महामारी के बाद भारत की आर्थिकी ने बहुत तेज और सकारात्मक वापसी की है, लिहाजा 2021-22 में न केवल जीडीपी करीब 150 लाख करोड़ रुपए थी और बीते साल की अपेक्षा 9 फीसदी ज्यादा भी रही, बल्कि वह कोरोना-पूर्व के स्तर को भी लांघ गई। जीडीपी का अर्थशास्त्र कुछ भिन्न होता है, जिसे आम आदमी समझ नहीं पाता, लिहाजा आर्थिक विकास और सामान्य रोजगार की दर में गहरे विरोधाभास दिखाई देते हैं। कई अनुत्तरित सवाल भी निहित होते हैं। राजनीतिक सत्ताएं उनके जवाब नहीं देतीं।
रोजगार भी ऐसा ही मुद्दा है, जो तमाम सकारात्मक आर्थिक विकास के बावजूद पूरी तरह संबोधित नहीं किया जा रहा है। हमारे देश में रोजगार, नौकरी और स्वरोजगार की अलग-अलग व्याख्याएं और कहानियां हैं। भारत सरकार की विभिन्न रपटों के डाटा से स्पष्ट है कि नौकरी के बाजार में लचीलापन या रोजगार की वापसी हुई है। सरकारों के अलावा, निजी क्षेत्र में भी बंपर रोजगार के अवसर विज्ञापित किए जा रहे हैं, लेकिन महिलाओं और युवा स्नातकों के लिए ये अवसर समूची अर्थव्यवस्था से पिछड़ गए हैं। कोरोना महामारी के बाद पुरुष और महिला कामगारों की दर बढ़ी है, लेकिन रोजगार का यह डाटा सतही तौर पर ही सुर्खियों में रहा है। यदि कामकाज के हालात सुधरे हैं, तो जाहिरा तौर पर बेरोजगारी की दर कम होनी चाहिए, लेकिन आज भी यह राष्ट्रीय दर 7-8 फीसदी के बीच झूल रही है। 2021-22 में बेरोजगारी दर करीब 6.6 फीसदी थी, जो 2019-20 की तुलना में करीब 2 फीसदी कम थी, लेकिन महिला रोजगार में बढ़ोतरी दिखाई जा रही थी। यह कैसी विसंगति थी? एक रपट बताती है कि महिला रोजगार में संरचनात्मक ह्नास हुआ है। इसी के विरोधाभास में बताया गया कि महिलाओं के स्वरोजगार के रुझान बढ़े हैं। यह स्वरोजगार ‘अवैतनिक’ था और ‘मैदान छोडऩे’ का एक विकल्प था, क्योंकि बाजार में नौकरियों और रोजगार के बुरे हालात थे। यह भी निष्कर्ष दिया गया कि 2019-20 और 2020-21 की तुलना में महिलाओं की मासिक आमदनी बढ़ी है। इसे भी मुद्रास्फीति के संदर्भ में देखा जाना चाहिए। दिलचस्प है कि 2021-22 में जिसकी मासिक आय 12089 रुपए थी, वह 2017-18 की औसतन मासिक आय से करीब 2 फीसदी कम थी। यह कैसे संभव है? व्यक्ति की आय साल-दर-साल बढ़ती है या घटती जाती है?
विभिन्न राज्यों में महिलाओं की मासिक आमदनी को बढ़ाने के लिए राजनीतिक दलों की सरकारें अपनी वित्तीय नीतियां उसी के अनुरूप बनाती हैं। कोई 1500 रुपए, तो कोई 2000 रुपए और 2500 रुपए मुफ्त में बांटने की घोषणा करता है। वह नियमित आय नहीं कही जा सकती, क्योंकि मुफ्त की राशि कभी मिल जाती है, तो कभी सरकारें भूल भी जाती हैं। ऐसे लॉलीपॉप के बावजूद देश के श्रम-बल में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने के तनाव तो बरकरार हैं, लेकिन ऐसा हो नहीं पा रहा है। युवा बेरोजगारी तो एक चिंतित सरोकार है, जो कभी-कभार अराजकता का रूप भी धारण कर लेता है। डाटा से स्पष्ट है कि नौकरी ढूंढने वाले स्नातकों या उससे अधिक शिक्षित वर्ग में औसतन 29 साल की उम्र तक 20 फीसदी से ज्यादा बेरोजगारी है। कमोबेश प्रधानमंत्री को तो इसका एहसास होगा! दरअसल हमारी आर्थिक बढ़ोतरी ‘रोजगारहीन’ है। जीडीपी और रोजगार के बीच आपसी संबंध नहीं होते। तो फिर आर्थिक विकास या 5वीं बड़ी अर्थव्यवस्था होने के मायने क्या हैं? सरकार को युवाओं को रोजगार व स्वरोजगार देने के लिए बड़े पैमाने पर योजना बनाने की जरूरत है। केंद्र व राज्य सरकारें मिलकर यह काम कर सकती हैं।

Gulabi Jagat
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