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दुनिया के करोड़ों बच्चों का भविष्य आज जितना खतरे में है, शायद उतना पिछले कई दशकों में नहीं रहा
कैलाश सत्यार्थी। दुनिया के करोड़ों बच्चों का भविष्य आज जितना खतरे में है, शायद उतना पिछले कई दशकों में नहीं रहा। इसलिए आज का विश्व बाल श्रम निषेध दिवस बहुत महत्वपूर्ण है। कोरोना महामारी की गंभीर चुनौतियों को दृष्टिगत रखते हुए आज हमें नए संकल्प और संसाधनों के साथ बड़े कदम उठाने की जरूरत है। वर्ष 1998 में 103 देशों की बाल श्रम विरोध के संदर्भ में विश्व यात्र के बाद हमने अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के वार्षकि सम्मेलन में साल के एक दिन को बाल श्रम विरोधी दिवस के रूप में मनाने का प्रस्ताव रखा था, जिसे वर्ष 2002 में संयुक्त राष्ट्र ने स्वीकृत करके 12 जून सुनिश्चित कर दिया। लेकिन जिस शिद्दत और रफ्तार के साथ बाल मजदूरी के उन्मूलन का काम होना चाहिए था, वह नहीं हुआ।
फिर भी दुनिया इस दिशा में धीरे-धीरे आगे बढ़ रही है। इसलिए इस दिवस को मनाने का औचित्य है। अब कोरोना महामारी और उससे उपजे आíथक संकट से यह स्पष्ट हो गया है कि लाखों नहीं, बल्कि करोड़ों बच्चों का बाल मजदूरी में धकेले जाना तय है। इस संबंध में एक चिंताजनक पहलू यह भी सामने आया है कि पिछले 20 साल में पहली बार बाल श्रम के आंकड़े बढ़े हैं। इसलिए हमें बाल श्रम निषेध दिवस पर आत्मावलोकन की जरूरत है।
दुनिया में आज जितना संसाधन और तकनीक है, वह पहले कभी नहीं था। लेकिन बावजूद इसके तेजी से आगे बढ़ता मनुष्य अभी भी अपने बच्चों को साथ लेकर चलने में सक्षम नहीं बन पाया है। हमारे करोड़ों बच्चे पीछे छूटे जा रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र और उससे संबंधित संस्थाओं और विश्वभर की सरकारों से अपील करता रहा हूं कि बच्चों की शिक्षा, स्वास्थ्य और सुरक्षा के क्षेत्र में उनकी आबादी के अनुपात में भले ही न सही, लेकिन आवश्यकता के हिसाब से संसाधनों का उचित हिस्सा खर्च किया जाना चाहिए।
विडंबना यह है कि कोरोना महामारी से पूरी दुनिया समान रूप से प्रभावित हुई है, लेकिन उससे निपटने के लिए संसाधनों का जो वितरण किया गया, वह असमान रहा। महामारी से उपजे आíथक संकट से अर्थव्यवस्था को उबारने के लिए तमाम देश तरह-तरह के आíथक पैकेज दे रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी अमीर देशों ने मिल कर अनुदान की घोषणा की है। लेकिन इनमें बच्चे कहीं नहीं हैं। दुनिया के सबसे गरीब देशों को वर्ष 2020 में कोविड-19 राहत पैकेज के आठ खरब डॉलर में से महज 0.13 प्रतिशत यानी तकरीबन 10 अरब डॉलर ही मदद के लिए दिया गया। बाकी पैसा बड़े कारपोरेट घरानों को उबारने के लिए दे दिया गया।
एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि बाल मजदूरी एकांगी समस्या नहीं है। लेकिन दुर्भाग्य से संयुक्त राष्ट्र की संस्थाओं से लेकर विभिन्न देशों की सरकारों ने इन समस्याओं को टुकड़ों में बांट कर अलग-अलग संस्थाओं और मंत्रलयों को सौंप रखा है। जैसे बाल मजदूरी, शिक्षा, स्वास्थ्य और सुरक्षा के लिए अलग-अलग अंतरराष्ट्रीय संगठन और सरकारी विभाग हैं। हमें समझना चाहिए कि बाल मजदूरी, गरीबी, अशिक्षा और बीमारियों के बीच एक दुष्चक्र बना हुआ है, जो एक दूसरे को उत्पन्न करते हैं और फिर आगे बढ़ाते हैं।
वर्ष 1981 में बाल श्रम उन्मूलन का काम शुरू करने के कुछ ही समय में हम जान गए थे कि अशिक्षा और बाल मजदूरी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इसलिए नीतियों, कार्यक्रमों और लोक जागरण के मुद्दों में इसके समन्वय के प्रयास किए गए। फिर धीरे-धीरे यह समझ आया कि बाल मजदूरी वयस्क बेरोजगारी या फिर दूसरे अर्थो में कहें तो यह गरीबी को बढ़ावा देती है। तब हम इन तीनों के बीच रिश्ते पर जोर देने लगे। लेकिन महामारी के दौरान स्पष्ट हो गया कि इसमें चौथा महत्वपूर्ण आयाम स्वास्थ्य भी है। इसलिए भारत में स्वास्थ्य को मौलिक अधिकार का दर्जा मिलना चाहिए। अशिक्षा, गरीबी और बच्चों का स्वास्थ्य सुनिश्चित करने के लिए बाल मजदूरी का उन्मूलन अनिवार्य है।
हाल ही में विश्व स्वास्थ्य संगठन की 74वीं वर्ल्ड हेल्थ असेंबली में जुटे दुनियाभर के स्वास्थ्य मंत्रियों और वैश्विक नेताओं से कोरोना महामारी से प्रभावित बच्चों की सुरक्षा के लिए अपने-अपने देश में विशेष बजट आवंटित करने और टास्क फोर्स गठन करने का आग्रह किया। संयुक्त राष्ट्र की सभी एजेंसियों को ऐसे समय में एक साथ मिल कर काम करने और इंटर एजेंसी हाई लेवल ग्रुप बनाने का सुझाव फिर से दोहराया। इतना ही नहीं, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी पत्र लिखकर आग्रह किया है कि बच्चों के मामले में यह बहुआयामी विपदा है, लिहाजा इससे प्रभावी तरीके से निपटने के लिए वे राष्ट्रीय स्तर पर एक टास्क फोर्स गठित करें
अगर हम अब भी अपनी गलतियों से नहीं सीखते हैं और हाशिए पर खड़े तथा विकास में सबसे पीछे छूटे बच्चों के लिए कुछ नहीं सोचते और कुछ नहीं करते हैं तो हम अपने बच्चों को कोरोना वायरस के कारण नहीं, बल्कि उससे निपटने की तैयारी की कमी, उदासीनता और अपनी लापरवाही के कारण खो देंगे। महामारी के परिणामस्वरूप दुनिया के तकरीबन 14 करोड़ बच्चे और उनका परिवार अत्यधिक गरीबी के दलदल में धकेल दिया गया। लाखों बच्चे अनाथ हो गए हैं। स्कूल बंदी से कोरोड़ों बच्चों की पढ़ाई बाधित है और वे मिड-डे मील से भी वंचित हो गए हैं। कई अध्ययनों से यह स्थापित हो गया है कि इनमें से लाखों बच्चे अपनी कक्षाओं में अब वापस नहीं आ पाएंगे।
भारत सहित पूरी दुनिया में बच्चे हमारी राजनीतिक, सामाजिक और आíथक प्राथमिकताओं में नहीं रहे। यही कारण है कि बच्चे बड़ी तादाद में शिक्षा से वंचित हैं और बाल मजदूरी आदि के लिए विवश हैं। ऐसे में समय आ गया है कि पूरी एक पीढ़ी को बचाने के लिए राजनीति और विकास के हाशिए पर पड़े बच्चों को केंद्र में लाया जाए। मुनाफा, राजनीति और संपत्ति तो इंतजार कर सकती हैं, लेकिन हमारे बच्चे नहीं। उनकी आजादी, सुरक्षा और बचपन अब और इंतजार नहीं कर सकते।
[नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित बाल अधिकार कार्यकर्ता]
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